Bhagwan Vishnu Katha: भगवान् विष्णु ने पृथ्वी का उद्धार करने के लिए वराह अवतार धारण कर दैत्य हिरण्याक्ष को मारा था । उसका एक भाई था हिरण्यकशिपु । भाई की मृत्यु से दु:खी हिरण्यकशिपु प्रतिशोध की अग्नि में जल रहा था । एक दिन सैनिकों को आज्ञा देते हुए बोला -“वीरो ! जो ऋषि-मुनि तप, यज्ञ, हवन और व्रतादि कर रहे हैं, उन्हें मौत के घाट उतार दो । उनके आश्रमों को जलाकर राख कर दो ।”
स्वामी की आज्ञानुसार दैत्यों ने घोर अत्याचार आरम्भ कर दिए । उन्हें जहाँ भी ऋषि-मुनि यज्ञ, हवन अथवा तप करते दिखाई देते, वे उनके मस्तक काट डालते । इस प्रकार उन्होंने अनेक आश्रमों में मौत का भयंकर तांडव खेला । पृथ्वी से धर्म-कर्म का नाम समाप्त हो गया ।
भाई हिरण्याक्ष की मृत्यु से क्षुब्ध हिरण्यकशिपु ने देवताओं पर आक्रमण करने का निश्चय किया । दैत्यगुरु शुक्राचार्य ने उसे देवताओं पर आक्रमण करने से पूर्व ब्रह्माजी से वरदान प्राप्त करने का परामर्श दिया । हिरण्यकशिपु मंदराचल पर कठोर तप करने लगा । अनेक वर्षों तक तप करने के कारण उसके शरीर से दिव्य अग्नि की लपटें निकलकर ब्रह्माण्ड को जलाने लगीं । चारों ओर भीषण हाहाकार मच गया । अंत में उसकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्माजी प्रकट हुए और वर माँगने के लिए कहा ।
हिरयण्कशिपु बोला -“प्रभु ! मुझे यह वर दीजिए कि मनुष्य, देवता, गंधर्व, नाग आदि किसी भी प्राणी द्वारा मेरी मृत्यु न हो । मेरी मृत्यु न दिन में हो और न रात में, न आकाश में, हो न पृथ्वी पर, न अस्त्र से,हो और न शस्त्र से, न घर के अंदर हो और न घर के बाहर ।” ब्रह्माजी ने उसे इच्छित वर दे दिया ।
हिरण्यकशिपु का विवाह नाग कन्या कयाधु से हुआ था । जब वह मंदराचल पर तप कर रहा था, तब देवताओं ने दैत्यों पर आक्रमण कर दिया । भीषण युद्ध छिड़ गया । किंतु हिरण्यकशिपु की अनुपस्थिति के कारण दैत्य पराजित हो गए और प्राण बचाकर भाग गए । विजयश्री के मद में चूर होकर इन्द्र ने हिरण्यकशिपु की पत्नी कयाधु को बंदी बना लिया और उसे साथ लेकर स्वर्ग की ओर चल पड़े । कयाधु रोते हुए उनसे दया की प्रार्थना करने लगी, किंतु इन्द्र का मन उस समय पत्थर के समान कठोर हो गया था । उन्होंने कयाधु की प्रार्थना अनसुनी कर दी ।
तभी देवर्षि नारद की दृष्टि उन पर पड़ी । जब उन्होंने कयाधु की यह दुर्दशा देखी तो वे इन्द्र से बोले -“देवेन्द्र ! आप इतने ज्ञानवान और धर्मप्रिय होने के बाद भी यह कैसा नीच कर्म कर रहे हैं? परम साध्वी और पतिव्रता कयाधु के साथ ऐसा दुर्व्यवहार कर आप इसका अपमान न करें । यह निरपराधी है । इसे बंदी बनाना अनुचित है । आप इसे तत्सण मुक्त कर दें ।”
इन्द्र बोले -“मुनिवर ! शत्रु कभी भी दया के पात्र नहीं होते । उन्हें अभयदान देने से स्वयं पर संकट उत्पन्न हो जाता है । आप नहीं जानते इस समय कयाधु के गर्भ में देवगण का शत्रु पल रहा है । हिरण्यकशिपु का पुत्र होने के कारण वह बालक भी वीर, पराक्रमी, बलशाली और देवताओं का प्रबल शत्रु होगा । युद्ध नीति कहती है कि शत्रु को उत्पन्न होने से पूर्व ही कुचल देना चाहिए । यही कारण है कि मैं कयाधु को स्वर्ग ले जा रहा हूँ । जब इसका पुत्र जन्म लेगा तो मैं उसे मारकर इसे मुक्त कर दूँगा ।”
देवर्षि नारद मुस्कराते हुए बोले -“देवेन्द्र ! तुम जिस बालक का वध करना चाहते हो, उसे मारना तुम्हारे वश की बात नहीं है । कयाधु का यह बालक भगवान् विष्णु का परम प्रिय भक्त, परम तपस्वी और ज्ञानवान होगा । देवराज ! सम्पूर्ण जगत् भली-भांति जानता है कि जिस पर भगवान् विष्णु की कृपा-दृष्टि होती है, उसे मारने की शक्ति किसी में नहीं होती । वे भक्तजन की रक्षा के लिए स्वयं को भी अर्पित कर देते हैं । इसलिए तुम उसे मारने का विचार त्याग कर कयाधु को छोड़ दो ।”
उनकी बात सुनकर इन्द्र ने कयाधु को मुक्त कर दिया । तब नारदजी उसे साथ लेकर अपने आश्रम में आ गए । कयाधु पुत्री के समान उनकी सेवा करने लगी ।
इस दौरान देवर्षि नारद ने कयाधु को धर्म के रहस्य और ज्ञान का उपदेश दिया, जिसे गर्भस्थ शिशु ने भी भली-भांति आत्मसात् कर लिया । कुछ दिनों बाद कयाधु ने एक पुत्र को जन्म दिया । देवर्षि नारद ने उसका नाम प्रह्लाद रखा । उधर, हिरण्यकशिपु ब्रह्माजी से वर प्राप्त कर लौटा तो उसे सारी बात ज्ञात हुई । वह उसी क्षण नारदजी के आश्रम में जाकर अपनी पत्नी और पुत्र को वापस ले आया ।
वर प्राप्त कर दैत्य हिरण्यकशिपु दिव्य तेज से आलोकित हो गया था । तपस्या से दुर्बल हुआ उसका शरीर भी पुन: स्वस्थ और शक्तिशाली हो गया था । अब वह अपने प्रतिशोध की धार पैनी करने में जुट गया । फिर एक दिन उसने अपने शत्रुओं पर हमला कर दिया । धीरे-धीरे उसने देवताओं, गंधर्वों, नागों, विद्याधरों, पितृों, यक्षों और ऋषि-मुनियों को जीतकर अपने वश में कर लिया । तीनों लोकों और समस्त दिशाओं में उसका राज्य स्थापित हो गया । अब वह स्वर्ग में ही रहने लगा । विश्वकर्मा द्वारा निर्मित देवराज इन्द्र का महल ही उसका आवास हो गया । सभी देवता उससे भयभीत होकर यहाँ-वहाँ छिप गए थे । जब वह इन्द्रासन पर बैठता, तब विश्वावसु और तुम्बुरु आदि मुनिगण उसकी स्तुति करते थे ।
उसने पृथ्वी पर होने वाले यज्ञों का भाग स्वयं ही ग्रहण करना आरम्भ कर दिया । इससे उसके बल में और भी वृद्धि होती गई । उसके भय से पृथ्वी स्वयं ही उसे अन्न आदि वस्तुएँ प्रदान करने लगी । आकाश उसकी इच्छित वस्तुएँ प्रदान कर उसे प्रसन्न रखने की चेष्टा करता था । ऐश्वर्य और सुखों के मद में चूर होकर वह वेदों और शास्त्रों का उल्लंघन करने लगा । अनेक वर्ष बीत गए ।
जब हिरण्यकशिपु के अत्याचार बढ़ते गए तो ऋषि-मुनि और देवगण भगवान् विष्णु के स्वरूप का स्मरण कर उनकी उपासना करने लगे । निराहार रहकर वे अनेक वर्षों तक समाधि में लीन रहे । उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु साक्षात् प्रकट होकर बोले -“भय का त्याग करो, पुत्रो ! मेरे दर्शन मात्र से प्राणियों को परम कल्याण की प्राप्ति हो जाती है । हिरण्यकशिपु की दुष्टता का मुझे ज्ञान है । पूर्वजन्म में हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष-जय और विजय नामक मेरे धाम वैकुण्ठ के द्वारपाल थे । एक बार इन्होंने अज्ञानवश सनकादि मुनिगण का अपमान कर दिया । उन्होंने क्रुद्ध होकर इन्हें दैत्य योनि में उत्पन्न होने का शाप दे दिया था । तब मैंने ही इनका उद्धार करने का वचन दिया था । वराह अवतार लेकर मैं पहले ही हिरण्याक्ष का उद्धार कर चुका हूँ, अब मैं इसका संहार कर इसको भी इस योनि से मुक्त करूँगा, किंतु तुम कुछ दिन और प्रतीक्षा करो । जब वह अपने तपस्वी पुत्र प्रह्लाद का वध करने के लिए उद्यत होगा, उस समय मैं अवतार धारण कर उस दुष्ट का वध करूँगा ।”
हिरण्यकशिपु के वध की बात सुन देवगण अत्यंत प्रसन्न हुए और भगवान् विष्णु की स्तुति करने के बाद अपने-अपने स्थानों को लौट गए ।
हिरण्यकशिपु के चार पुत्र थे । उनमें प्रह्लाद सबसे छोटा था, किंतु गुणों में वह सबसे श्रेष्ठ था । वह धर्मात्मा, सदाचारी, सत्यप्रतिज्ञ, जितेन्द्रिय और विष्णु भक्त था । वह समस्त प्राणियों को भगवान् का अंश समझता था और उनके साथ समानता का व्यवहार करता था । शीघ्र ही उसने अपने मधुर व्यवहार से सभी का मन जीत लिया था । उसका मन सदा श्रीहरि की भक्ति में लीन रहता था । जब उसके अन्य भाई खेलते थे, तो वह समाधि में बैठकर श्रीविष्णु के स्वरूप का चिंतन करता था ।
पिता हिरण्यकशिपु ने प्रह्लाद को बहुत समझाया और विष्णु भक्ति से विरक्त करने का प्रयास किया, किंतु वह सफल नहीं हुआ ।
अंत में वह क्रुद्ध होकर बोला -“दुष्ट ! जिसने तेरे चाचा को मार डाला, तू उसी विष्णु के गुण गा रहा है । तूने मायावी विष्णु के लिए माता-पिता के स्नेह को भी भुला दिया । अवश्य तू बालक रूप में विष्णु ही है, जिसने दैत्यों का संहार करने के लिए दैत्य वंश में जन्म लिया है । यदि कोई अंग शरीर को हानि पहुँचा रहा हो तो उसे काट डालना चाहिए, क्योंकि उसके न रहने से शरीर तो सुख से जी सकता है । तू भी ऐसे ही विष-अंग के समान है । सैनिको ! इसे मेरी दृष्टि से दूर ले जाकर समाप्त कर दो । इसका जीवन दैत्य वंश के लिए खतरनाक है ।”
आदेश पाते ही सैनिक प्रह्लाद को वहाँ से ले गए और कारागार में डाल दिया । तत्पश्चात् भयानक मुख और विशाल शरीर वाले दैत्य हाथों में त्रिशूल लेकर उस पर प्रहार करने लगे । चूंकि वह समाधिलीन होकर भगवान् का स्मरण कर रहा था, अतः उनकी कृपा से उसके शरीर पर त्रिशूलों का कोई असर नहीं हुआ ।
जब हिरण्यकशिपु को यह बात ज्ञात हुई तो वह प्रह्लाद को मार डालने के लिए भाति-भांति के उपाय करने लगा । उसने उसे हाथियों के पाँव तले कुचलवाया, सर्पों से डसवाया, पहाड़ की चोटी से गिराया, समुद्र में डुबोया, भोजन बंद कर दिया, अग्नि में जलाने का प्रयास किया-किंतु उसका बाल भी बाँका न हुआ । जब उसके सभी उपाय समाप्त हो गए तो अपनी विवशता देख उसे बड़ी चिंता होने लगी । अब उसे विश्वास हो गया था कि प्रह्लाद वास्तव में विष्णु का ही अंश है और दैत्यों का सर्वनाश करने के लिए ही उसने कयाधु के गर्भ से जन्म लिया है ।
अंत में उसने स्वयं प्रह्लाद का वध करने का निश्चय किया और तलवार हाथ में लेकर बोला -“दुष्ट ! तुझे जीवित रहने के इतने अवसर दिए, किंतु तूने अपनी बातों से सिद्ध कर दिया है कि तू क्षमा योग्य नहीं है । तू मुझे छोड़कर किसी और को जगत् का स्वामी बताता है, मैं भी तो देखूँ कहाँ है तेरा वह भगवान्? तेरा विष्णु सर्वत्र है तो वह तुझे इस खम्भे में भी अवश्य दिखाई दे रहा होगा । मैं तलवार से तेरा मस्तक धड़ से अलग करने जा रहा हूँ । यदि तेरा भगवान् इस खम्भे में है तो वह अवश्य तेरी रक्षा करने आएगा । जीवित रहना चाहता है तो पुकार अपने भगवान् को ।”
यह कहकर हिरण्यकशिपु ने जैसे ही प्रह्लाद को मारने के लिए तलवार उठाई, वैसे ही भीषण गर्जन करते भगवान् विष्णु खम्भा तोड़कर बाहर निकल आए । उस समय उनका मस्तक सिंह का और शरीर मनुष्य का था, इसलिए वे भगवान् नृसिंह कहलाए ।
भगवान् नृसिंह का रूप बड़ा विकराल था । हिरण्यकशिपु जैसा महापराक्रमी दैत्य भी उनका स्वरूप देखकर भयभीत हो गया । लेकिन अगले ही पल वह संभला और दोनों में घनघोर महायुद्ध आरंभ हो गया । अंततः भगवान् नृसिंह ने द्वार के बीच में बैठ कर हिरण्यकशिपु को गोद में लिटा लिया । फिर अपने तीखे नखों से उसका पेट चीर दिया । भगवान् नृसिंह स्वयं ही अवतरित हुए थे, उस समय न दिन था और न रात अर्थात् वह संध्या का समय था, वे न तो घर के अंदर थे और न बाहर दैत्य हिरण्यकशिपु का शरीर न तो आकाश में था और न ही पृथ्वी पर । इस प्रकार नृसिंह भगवान् ने ब्रह्माजी के वरदान के अनुसार हिरण्यकशिपु का वध कर दिया । देवगण उन पर पुष्प-वर्षा करने लगे । तब प्रह्लाद भगवान् नृसिंह के श्रीचरणों में बैठ गया और विभिन्न प्रकार से उनकी स्तुति करने लगा ।
उसकी स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान् नृसिंह ने उसे सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य और मृत्यु के बाद वैकुण्ठ लोक में स्थान प्रदान किया । इस प्रकार भगवान् विष्णु की भक्ति से प्रह्लाद जीवन-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो गया ।
ये कथा ‘पुराणों की कथाएं’ किताब से ली गई है, इसकी और कथाएं पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Purano Ki Kathayen(पुराणों की कथाएं)
