draupadee ka janm - mahabharat story
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पांचाल देश में परम पराक्रमी राजा पृषत राज्य करते थे। उनका एक पुत्र था, जिसका नाम द्रुपद था। राजा पृषत की महर्षि भारद्वाज के साथ मित्रता थी। इसलिए उन्होंने द्रुपद को शिक्षा-दीक्षा लेने के लिए उन्हीं के पास भेजा। वहीं महर्षि भारद्वाज के पुत्र द्रोण भी रहते थे। द्रुपद और द्रोण में गहरी मित्रता हो गई। उन्होंने एक साथ ही धनुर्विद्या सीखी थी।

बाल्यकाल में द्रुपद अकसर द्रोण को कहा करता था कि जब वह राजा बनेगा तो अपना आधा राज्य उन्हें दे देगा।

शिक्षा पूर्ण होने के बाद द्रुपद पांचाल लौट गया। कुछ दिनों बाद राजा पृषत का स्वर्गवास हो गया और द्रुपद को राजा बनाया गया। द्रोणाचार्य को जब द्रुपद के राजा बनने का समाचार मिला तो वे बड़े प्रसन्न हुए और उससे मिलने पांचाल पहुंच गए, परंतु राज-मद में डूबकर द्रुपद अभिमानी हो गया था। उसे द्रोणाचार्य का मित्रवत् व्यवहार अनुचित लगा और उसने उन्हें अपमानित कर दिया। द्रोणाचार्य अपमान का घूंट पीकर वहां से चले आए।

बाद में भीष्म पितामह के कहने पर वे कौरवों और पांडवों को अस्त्र-विद्या प्रदान करने लगे। जब राजकुमारों की शिक्षा पूर्ण हुई तो गुरु दक्षिणा में उन्होंने राजा द्रुपद को बंदी बनाकर लाने को कहा।

कौरव तो भयभीत होकर पीछे हट गए, परंतु पांडव शस्त्र धारण कर गुरु की आज्ञा पूर्ण करने चल पड़े। उन्होंने द्रुपद को पराजित कर बंदी बना लिया और उनके हाथ-पैर बांधकर गुरु के चरणों में ला पटका। तब द्रोणाचार्य ने द्रुपद को उसका राज्य लौटाकर जीवित छोड़ दिया।

द्रुपद के लिए यह अपमान असहनीय था। प्रतिकार की भावना से उसका मन तड़प उठा। अब उसका एक ही लक्ष्य था‒द्रोणाचार्य से अपने अपमान का प्रतिशोध लेना। इसके लिए उसने कठोर व्रत रखे; अनेक विद्वान ब्राह्मणों की शरण में गया, परंतु सब व्यर्थ गया।

एक दिन द्रुपद की भेंट याज और उपयाज नामक दो श्रेष्ठ ब्राह्मणों से हुई। वह उन्हें आदरसहित अपने महल में ले आया और अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए कहा, ‘वह ऐसा पुत्र चाहता है, जो द्रोण का काल हो।’

याज और उपयाज यज्ञ करने के लिए सहमत हो गए। यज्ञ पूर्ण होने पर उन्होंने राजा द्रुपद की पत्नी से प्रसाद ग्रहण करने को कहा, परंतु उस समय रानी पान चबा रही थी, इसलिए उसने कुछ देर प्रतीक्षा करने के लिए कहा। तब याज ने यह कहते हुए प्रसाद यज्ञाग्नि में डाल दिया कि प्रसाद किसी की प्रतीक्षा नहीं करता।

तभी एक चमत्कार हुआ। यज्ञ-अग्नि में से एक युवक प्रकट हुआ। वह युवक अस्त्र-शस्त्रों से युक्त था।

ठीक इसी समय दूसरे मुनि ने भी अपना प्रसाद यज्ञाग्नि में डाल दिया तथा देखते-ही देखते उसमें से एक सुंदर युवती प्रकट हुई। उसका मनोहारी स्वरूप अप्सराओं को भी लज्जित करने वाला था।

तभी आकाशवाणी हुई-“राजन ! यज्ञ से उत्पन्न यह सुंदर युवक द्रोणाचार्य का काल है। यह धृष्टद्युम्न नाम से जाना जाएगा और यह युवती संसार में द्रौपदी के नाम से प्रसिद्ध होगी। इसका नाम कृष्णा भी होगा। इसका जन्म दुष्टों और पापियों के नाश के लिए हुआ है।”

राजा द्रुपद और रानी ने मुनियों से प्रार्थना की कि वे ऐसी व्यवस्था कर दें, जिससे ये दोनों उन्हें ही अपना माता-पिता समझें। मुनियों ने उनकी इच्छा पूर्ण कर दी।

इस प्रकार यज्ञ-अग्नि से धृष्टद्युम्न और द्रौपदी का जन्म हुआ।