पांडव एकचक्रा नगरी को छोड़कर किसी सुरक्षित स्थान की खोज में भटक रहे थे। तभी उनकी भेंट महर्षि व्यास से हुई। उन्होंने उन्हें पांचाल देश जाने का परामर्श दिया। कुंती ने भी पुत्रों से पांचाल चलने का आग्रह किया। अतः पांडव पांचाल की ओर चल पड़े। मार्ग में महर्षि धौम्य का आश्रम पड़ा। पांडवों ने महर्षि से उनका पुरोहित बनने की प्रार्थना की। उन्होंने पांडवों की प्रार्थना स्वीकार कर ली। तदंतर आज्ञा लेकर पांडव आगे बढ़े।
पांचाल देश पहुंचकर उन्होंने एक कुम्हार के घर शरण ली और भिक्षा मांगकर अपने दिन बिताने लगे।
उन्हीं दिनों पांचाल-नरेश द्रुपद ने द्रौपदी के स्वयंवर का आयोजन किया। विभिन्न देशों के अनेक राजा इसमें सम्मिलित हुए। पांडव भी अन्य ब्राह्मणों के साथ वहां उपस्थित हुए।
राजा द्रुपद की इच्छा थी कि अर्जुन के समान कोई वीर धनुर्धर ही द्रौपदी का वरण करे। इसलिए उन्होंने एक भारी धनुष बनवाया, जिसे साधारण मनुष्य नहीं उठा सकते थे। साथ ही उन्होंने काठ की एक मछली बनवाकर उसे एक चक्रयुक्त यंत्र पर ऊपर लटकवा दिया। यह मछली निरंतर घूम रही थी। नीचे तेल से भरा एक विशाल पात्र रखा हुआ था। द्रुपद ने सभा में यह घोषणा की कि जो धनुर्धर तेल में प्रतिबिंब देखकर मछली की आंख को तीर से भेद देगा, उसी से राजकुमारी द्रौपदी का विवाह होगा।
स्वयंवर प्रारंभ हुआ। बारी-बारी से योद्धा आगे आने लगे, परंतु मछली की आंख को भेदना तो दूर धनुष को भी नहीं उठा सके। दुर्योधन भी असफल हो गया। अंत में कर्ण आगे बढ़ा और सरलता से धनुष उठा लिया, परंतु जैसे ही वह मछली का निशाना साधने लगा, द्रौपदी बोल पड़ी- “यदि यह सूत-पुत्र स्वयंवर की शर्त पूरी कर दे, तब भी मैं इससे विवाह नहीं करूंगी।” अपमान का घूंट पीकर कर्ण अपने स्थान पर पुनः आ बैठा।
सभा में कोई भी ऐसा राजा नहीं था, जो स्वयंवर की शर्त पूरी कर सके। द्रुपद निराश होकर स्वयंवर भंग ही करने वाले थे कि तभी ब्राह्मणों के बीच से अर्जुन उठकर आगे आए। उन्होंने पल-भर में धनुष उठा लिया और मछली की आंख का निशाना साधकर उसे भेद दिया। चारों ओर उनकी जय-जयकार होने लगी। ब्राह्मण प्रसन्नता से भर उठे। द्रौपदी ने अर्जुन के गले में वरमाला डाल दी।
राजाओं को यह अपमान सहन नहीं हुआ। वे यह कैसे देख सकते थे कि क्षत्रियों की सभा में एक ब्राह्मण राजकुमारी को ले जाए। अतः उन्होंने मिलकर अर्जुन पर आक्रमण कर दिया। सभी ब्राह्मण अपने-अपने पात्र उठाकर अर्जुन की सहायता को आगे बढ़े, परंतु अर्जुन ने विनम्रतापूर्वक उन्हें रोक दिया। तदंतर अपने तीक्ष्ण बाणों से सभी राजाओं को धूल चटा दी। इन राजाओं में कर्ण भी सम्मिलित था।
अंत में पांडव द्रौपदी को साथ लेकर अपने निवास-स्थान पर लौट पड़े। द्रौपदी के भाई धृष्टद्युम्न को संदेह था कि वे ब्राह्मण नहीं हैं। इसलिए सत्य जानने के लिए वह गुपचुप तरीके से उनका पीछा कर रहा था।
जिस समय पांडव घर पहुंचे, उस समय कुंती पूजा-अर्चना में लीन थी। उन्होंने माता को आश्चर्य में डालने का निश्चय किया और एक स्वर में बोले-“माताश्री ! हम आज की भिक्षा ले आए हैं।”
“ठीक है। तुम पांचों भाई इसे आपस में बांट लो।” यह कहकर कुंती पीछे मुड़ी, परंतु पुत्रों के साथ एक सुंदर युवती को देख आश्चर्यचकित रह गई। वह सोचने लगी कि पल-भर में यह कैसा अनर्थ हो गया ! अपने कथन को याद करके वह पश्चात्ताप करने लगी।
तभी वहां भगवान श्रीकृष्ण, बलराम और धृष्टद्युम्न आ पहुंचे। उन्हें जब सारी घटना पता चली तो वे मुस्कराते हुए बोले- “बुआ ! तुम्हारा वचन कभी मिथ्या नहीं जा सकता। द्रौपदी का विवाह पांचों पांडवों के साथ ही होगा। यह विधि का विधान है, जिसे मिटाया नहीं जा सकता। द्रौपदी के पूर्वजन्म में घटित घटना के कारण ही ऐसा हुआ है। इसमें किसी का कोई दोष नहीं है।”
तत्पश्चात् उन्होंने द्रौपदी के पूर्वजन्म की कथा सुनाकर सभी को संतुष्ट कर दिया। अंततः द्रौपदी का विवाह पांचों पांडवों के साथ हो गया। पांच पतियों की पत्नी होने के कारण द्रौपदी ‘पांचाली’ के नाम से विख्यात हुई।
बाद में, देवर्षि नारद के समक्ष युधिष्ठिर ने यह नियम बनाया था कि द्रौपदी कुछ-कुछ समय के लिए प्रत्येक भाई के पास रहेगी। पांडवों ने सदा इस नियम का पालन किया।
