ann ka ek daana - mahabharat story
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पांडवों ने महर्षि धौम्य को अपना कुल-पुरोहित बनाया था। इसलिए जब उन्हें पांडवों की वनवास-यात्रा के विषय में पता चला तो वे वन में उनके निकट ही कुटिया बनाकर रहने लगे।

एक दिन युधिष्ठिर ने उनसे कहा- “महात्मन् ! अनेक ऋषि-मुनि और ब्राह्मणगण स्नेहवश हमारे साथ रह रहे हैं, परंतु मेरे समक्ष धर्मसंकट उत्पन्न हो गया है। मैं न तो उनका भरण-पोषण करने में समर्थ हूं और न ही उन्हें छोड़ सकता हूं। इस स्थिति में मैं कुछ भी करने में असमर्थ हूं। अब आप ही मेरा मार्गदर्शन करें।”

महर्षि धौम्य बोले-“राजन ! भगवान सूर्यदेव को अन्न का देवता भी कहा जाता है। इसलिए आप उनकी आराधना करें। वे आपकी समस्या का अवश्य समाधान करेंगे।”

युधिष्ठिर ने श्रद्धापूर्वक भगवान सूर्यदेव की पूजा-उपासना की। अंततः वे प्रसन्न होकर साक्षात् प्रकट हुए और युधिष्ठिर को एक दिव्य पात्र प्रदान करते हुए बोले-“वत्स ! यह अक्षय पात्र स्वीकार करो। इसे द्रौपदी को दे देना। प्रतिदिन जब तक वह स्वयं भोजन नहीं कर लेगी, तब तक यह पात्र तुम्हें मनचाहा भोजन देता रहेगा।” युधिष्ठिर ने वह अक्षय पात्र लाकर द्रौपदी को सौंप दिया।

इस प्रकार भगवान सूर्यदेव की कृपा से युधिष्ठिर की समस्या हल हो गई। एक बार दुर्वासा मुनि दस हजार शिष्यों सहित हस्तिनापुर पधारे। दुर्योधन ने उनका भरपूर अतिथि-सत्कार किया। जब दुर्वासा मुनि वहां से जाने लगे, तब शकुनि ने दुर्योधन को समझाया-“भांजे ! पांडवों को नष्ट करने का यही उपयुक्त अवसर है। तुम दुर्वासा मुनि को पांडवों के पास जाने का परामर्श दो। इस समय पांडव निर्धन हैं; वे उनका सत्कार नहीं कर पाएंगे और तब क्रोधित होकर मुनि उन्हें शाप दे देंगे। इस प्रकार तुम्हारे रास्ते के कांटे सदा के लिए हट जाएंगे।”

शकुनि की बात सुनकर दुर्योधन प्रसन्नता से भर उठा और उसने विनयपूर्वक उन्हें पांडवों के पास भेज दिया। दुर्वासा मुनि को शिष्यों सहित आया देखकर युधिष्ठिर अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्होंने अक्षय पात्र के आधार पर दुर्वासा मुनि को भोजन के लिए आमंत्रित कर लिया। भोजन करने से पूर्व मुनि शिष्यों सहित स्नान करने चले गए। युधिष्ठिर ने द्रौपदी को अतिशीघ्र भोजन तैयार करने के लिए कहा। परंतु उस समय तक सभी को भोजन करवाकर द्रौपदी भी भोजन कर चुकी थी, इसलिए अक्षय पात्र से भोजन मिलना असंभव था।

युधिष्ठिर चिंतित हो उठे। वे जानते थे कि यदि दुर्वासा मुनि क्रोधित हो गए तो उन्हें शाप देकर भस्म कर देंगे। कोई उपाय न देखकर उन्होंने सब कुछ भगवान पर छोड़ दिया। द्रौपदी ने इस संकट से बचने के लिए भगवान श्रीकृष्ण का स्मरण किया।

तभी उनकी कुटिया के बाहर एक रथ आकर रुका और उसमें से श्रीकृष्ण उतरे। उन्हें देखकर द्रौपदी प्रसन्न हो उठी। वह जानती थी कि वे उनकी सहायता के लिए आए हैं।

आसन ग्रहण करने के बाद श्रीकृष्ण ने कहा- “पांचाली ! बड़ी भूख लगी है। कुछ खाने को लाओ।”

द्रौपदी लज्जित हो उठी। घर में अन्न का केवल एक दाना था। उसने वही दाना एक पात्र में रखकर श्रीकृष्ण को दे दिया। श्रीकृष्ण ने प्रेमपूर्वक उस दाने को उठाकर मुख में रख लिया।

इधर श्रीकृष्ण ने वह दाना खाया, उधर नदी के तट पर दुर्वासा मुनि और उनके शिष्यों को ऐसा प्रतीत होने लगा मानो उन्होंने अनेक दिनों का भोजन एक साथ खा लिया हो। तब दुर्वासा मुनि वहीं से अपने आश्रम लौट गए।

जब बहुत देर तक मुनि नहीं आए, तब नकुल उनका पता लगाने नदी के तट पर गए, परंतु वहां कोई भी नहीं मिला। उन्होंने लौटकर बताया तो द्रौपदी समझ गई कि यह चमत्कार श्रीकृष्ण का है। उसने श्रीकृष्ण की स्तुति कर कृपादृष्टि बनाए रखने की प्रार्थना की।

इस प्रकार श्रीकृष्ण ने एक बार फिर द्रौपदी की लाज रख ली।