Bhishma-Pratigya - Mahabharat story

देवव्रत ने भगवान परशुराम से अस्त्र-शस्त्र की शिक्षा प्राप्त की थी, इसलिए वे उन्हीं के समान वीर, पराक्रमी और धनुर्धर थे। ऐसा युवराज पाकर हस्तिनापुर की प्रजा धन्य थी। राजा शांतनु भी अपने वीर पुत्र को देखकर प्रसन्न होते थे।

एक बार देवव्रत घुड़सवारी करते हुए अकेले ही राजधानी से बाहर चले गए। वहां उन्हें राजा शाल्व दिखाई दिया, जो हस्तिनापुर पर आक्रमण करने के लिए अपनी विशाल सेना के साथ आ रहा था। देवव्रत को अकेला देखकर शाल्व अत्यंत प्रसन्न हुआ और उसने अपने सैनिकों को उन्हें बंदी बनाने की आज्ञा दी।

जिनके गुरु स्वयं परशुराम हों, उन्हें भला शाल्व के साधारण सैनिक कैसे बंदी बना सकते थे। देवव्रत ने देखते-ही-देखते अपने तीक्ष्ण बाणों से शाल्व की विशाल सेना को मार भगाया। तदंतर वे शाल्व को बंदी बनाकर पिता शांतनु के पास ले आए। अपने पुत्र के पराक्रम से वे अत्यंत प्रसन्न हुए। उन्हें अब अपने बाद हस्तिनापुर की चिंता करने की आवश्यकता नहीं थी।

एक दिन राजा शांतनु शिकार खेलने वन में गए। वन की सुंदरता देखकर वे मोहित से होकर वहीं विचरण करने लगे। तभी उन्हें एक तीव्र सुगंध की अनुभूति हुई। वे उसी दिशा की ओर चल पड़े, जिस दिशा से सुगंध आ रही थी।

कुछ दूर चलने पर वे एक निषाद के घर पहुंचे। वहां उन्होंने एक सुंदर युवती को देखा। वह निषाद की पुत्री सत्यवती थी। सत्यवती को देखकर राजा शांतनु उस पर आसक्त हो गए। उन्होंने सत्यवती के पिता से कहा कि वे उससे विवाह करना चाहते हैं।

निषादराज बोला‒”महाराज! मुझे आपका प्रस्ताव स्वीकार है, लेकिन मेरी इच्छा है कि विवाह के बाद सत्यवती से उत्पन्न पुत्र ही हस्तिनापुर के सिंहासन पर बैठे। इसलिए विवाह से पूर्व आपको यह वचन देना होगा कि आप सत्यवती के पुत्र को अपना युवराज बनाएंगे।”

इस पर शांतनु बिना उत्तर दिए हस्तिनापुर लौट आए।

वे सत्यवती को भुला नहीं पाए और उसकी याद में उदास रहने लगे। देवव्रत ने जब पिता को दुःखी देखा तो कारण पूछा लेकिन शांतनु अपने दिल की व्यथा उन्हें नहीं बता सके।

तब देवव्रत ने राजकीय सारथी को बुलाया और बोले‒ “सारथी! जब से महाराज वन से लौटे हैं, तभी से अत्यंत दुःखी और उदास हैं। अवश्य उनके साथ कोई घटना घटी है। तुम उनके साथ गए थे, मुझे सारी घटना सच-सच बताओ।”

सारथी ने सत्यवती से मिलने से लेकर निषाद-राज की शर्त तक की सारी घटना संक्षेप में कह सुनाई।

देवव्रत अपने पिता को दुःखी नहीं देख सकते थे। वे उसी समय निषादराज के पास गए और उनसे अपने पिता के लिए सत्यवती को मांगा। निषाद-राज ने पुनः अपनी शर्त दोहराई। तब भीष्म ने प्रतिज्ञा की‒ “मैं वचन देता हूं कि हस्तिनापुर के सिंहासन पर सत्यवती के ही पुत्र का अधिकार होगा।”

निषादराज अत्यंत चतुर था। वह बोला‒ “युवराज! मुझे आपके वचन पर बिलकुल संदेह नहीं है परंतु यदि आपके पुत्रों ने हस्तिनापुर के सिंहासन पर अधिकार करने का प्रयास किया तो सत्यवती और उसका पुत्र संकट में पड़ जाएंगे। तब आपके वचन का कोई औचित्य नहीं रह जाएगा।”

निषाद-राज की बात का मर्म समझकर देवव्रत ने उसी समय प्रतिज्ञा की कि ‘वे आजीवन अविवाहित रहते हुए हस्तिनापुर के राजा की सेवा करते रहेंगे।’ इतनी भीषण प्रतिज्ञा करने के कारण वे संसार में भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए।

देवव्रत की इस प्रतिज्ञा को सुनकर निषाद-राज भी ‘धन्य-धन्य’ कह उठा। उसने उसी समय अपनी पुत्री सत्यवती को देवव्रत के साथ विदा कर दिया।

हस्तिनापुर पहुंचकर सत्यवती और शांतनु का विवाह हो गया।

विवाह के उपरांत शांतनु को भीष्म की प्रतिज्ञा के विषय में पता चला। उन्होंने देवव्रत की पितृ-भक्ति से प्रसन्न होकर उन्हें ‘इच्छा-मृत्यु’ का वरदान दिया।

इस प्रकार भीष्म अंत तक अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहे।