प्राचीनकाल में वेदमुनि नामक एक परम विद्वान ऋषि हुए। वे राजा जनमेजय और पौष्य के राजगुरु थे। उनके अनेक शिष्य थे। उनमें उतंक बहुत बुद्धिमान और आज्ञाकारी था। वे उसे सबसे अधिक चाहते थे। जब भी किसी कार्य से वे बाहर जाते तो आश्रम का सारा भार उसे सौंप देते थे।
एक बार किसी कार्यवश उन्हें कहीं बाहर जाना पड़ा। जाने से पूर्व वे उतंक को आश्रम के सभी कार्य करने को कह गए।
कुछ दिन बाद गुरु की पत्नी निमित्त ने उतंक के पास संदेश भेजा‒”मेरा ऋतुकाल आरंभ हो चुका है। वह नष्ट न हो, उसके लिए आज रात्रि तुम मेरे साथ विश्राम करो, क्योंकि गुरुदेव ने तुम्हें सभी कार्य करने की आज्ञा दी है।” प्रत्युत्तर में उतंक ने कहलवाया‒ “गुरुजी ने मुझे उचित कार्य करने की आज्ञा दी है। अनुचित कार्य मैं नहीं करूंगा। यह गुरु के प्रति अपराध है।”
वापस आने पर वेदमुनि को इस बात का पता चला तो वे अत्यंत प्रसन्न हुए और उतंक को आशीर्वाद दिया कि वह सभी शास्त्रों का विद्वान बने।
जब उतंक की शिक्षा समाप्त हुई तो उसने वेदमुनि से गुरु दक्षिणा लेने के लिए कहा। उन्होंने गुरु दक्षिणा लेने से इंकार कर दिया, किंतु उतंक नहीं माना। तब उन्होंने उसे अपनी पत्नी के पास भेजा कि ‘गुरु दक्षिणा में तुम उसे इच्छित वस्तु दे दो।’
उतंक ने गुरु-पत्नी से उनकी प्रिय वस्तु के बारे में पूछा तो वह बोली‒”आज से चौथे दिन पुण्यक नामक व्रत है। उस अवसर पर मुझे वे दिव्य कुंडल चाहिए, जो राजा पौष्य की रानी ने पहन रखे हैं।”
उतंक उसी समय वह कुंडल लेने चल दिया।
मार्ग में उतंक को बैल पर सवार देवराज इंद्र मिले। उन्होंने कल्याण के लिए उसे बैल का गोबर खिलाया।
उतंक राजा पौष्य के महल में पहुंचा। पौष्य ने उसका सत्कार किया और वहां आने का उद्देश्य पूछा। उतंक बोला‒ “राजन्! मुझे गुरु दक्षिणा देनी है। गुरु दक्षिणा में गुरु-पत्नी ने आपकी रानी के कुंडल मांगे हैं। अतः आप वे कुंडल मुझे देने की कृपा करें।”
पौष्य बोले‒ “ब्राह्मणदेव! आप स्वयं रानी से उनके कुंडल मांग लें।”
उतंक ने रानी से कुंडल देने की प्रार्थना की। तब रानी कुंडल देते हुए बोली‒”ब्राह्मणदेव! इन्हें ले जाते समय सावधानी बरतें, क्योंकि तक्षक नाग सदैव इनकी फिराक में रहता है। असावधानी होने पर वह इन्हें ले जा सकता है।”
कुंडल लेकर उतंक आश्रम की ओर चल दिया।
मार्ग में एक सरोवर देखकर उतंक के मन में स्नान करने का विचार उत्पन्न हुआ। वह वस्त्र और कुंडल तट पर रखकर स्नान करने लगा। तभी मनुष्य वेष में तक्षक नाग आया और उसके सामने ही कुंडल चुराकर भागा। उसने उसका पीछा किया, किंतु तक्षक अपने वास्तविक रूप में आकर नागलोक में भाग गया। उतंक ने देवराज इंद्र से सहायता की प्रार्थना की। इंद्र उसी समय नागलोक गए और तक्षक से कुंडल लेकर उतंक मुनि को लौटा दिए।
इधर चौथे दिन पुण्यक व्रत पर गुरु-पत्नी उतंक के लौटने की प्रतीक्षा कर रही थी। तभी वह वहां पहुंचा और कुंडल दे दिए। गुरु-पत्नी बोली‒”उतंक। यदि तुम थोड़ा और विलंब करते तो मैं तुम्हें शाप दे देती, लेकिन अब मैं तुमसे प्रसन्न हूं और तुम्हें आशीर्वाद देती हूं कि तुम सर्वसिद्धि के ज्ञाता बनो।”
गुरु-पत्नी से आशीर्वाद प्राप्त कर उतंक गुरु के पास पहुंचा और सारी घटना विस्तार से बताई। उतंक ने इंद्र द्वारा गोबर दिए जाने वाली बात भी बताई। तब गुरु बोले‒”वत्स! इंद्र से मेरी मित्रता है। उन्होंने तुम्हें जो गोबर खिलाया था, वास्तव में वह अमृत था। उसी के प्रताप से तुम कुंडल ला सके।”
फिर गुरु से आशीर्वाद लेकर उतंक अपने घर लौट गया। बाद में अपनी कठोर तपस्या से उतंक मुनि ब्रह्मर्षि बने।
