अगले दिन प्रातः पांडवों को रात की घटना के बारे में पता चला तो वे शोकमग्न हो गए। द्रौपदी अत्यंत दुःखी होकर विलाप करने लगी। उसे रोते देख अर्जुन बोले-“धैर्य रखो पांचाली ! अश्वत्थामा को उसके पाप का दंड अवश्य मिलेगा। मैं अभी अपने गांडीव से उसका सिर काटकर लाता हूं। पुत्रों का अंतिम संस्कार करने के बाद तुम उस पर पैर रखकर स्नान करोगी, जिससे तुम्हारा व्यथित मन शांत हो सके।”
तत्पश्चात् अर्जुन ने कवच पहनकर गांडीव धारण किया और श्रीकृष्ण को सारथी बनाकर अश्वत्थामा का वध करने चल पड़े।
इधर बच्चों की हत्या कर अश्वत्थामा का मन भयभीत हो गया। जब उसने अर्जुन को गांडीव लिए आते देखा तो वह प्राणों की भीख लिए घर-घर भटका, किंतु उसे कहीं भी शरण नहीं मिली। तब अंतिम उपाय के रूप में उसने ब्रह्मास्त्र का स्मरण कर उसे अर्जुन पर चला दिया। ब्रह्मास्त्र के प्रयोग से चारों ओर प्रचंड तेज फैल गया। तीनों लोकों में हाहाकार मच गया। देवता, ऋषि, मुनि, गंधर्व, यक्ष, मनुष्य‒सभी के सिर पर मृत्यु ताण्डव करने लगी।
सृष्टि को संकट में देख अर्जुन श्रीकृष्ण से बोले-“भगवन् ! आप ही साक्षात् परब्रह्म परमात्मा हैं। आपकी शक्ति अनंत है। इस समय संपूर्ण सृष्टि भयंकर अग्नि में जल रही है। सभी के प्राण संकट में हैं। यह भयंकर तेज मेरी ओर आ रहा है। यह क्या है और कहां से उत्पन्न हुआ है‒मुझे इसका कोई ज्ञान नहीं है। आप सर्वत्र विद्यमान हैं। अतः मेरी शंका का निवारण कीजिए।”
तब भगवान श्रीकृष्ण बोले-“पार्थ! यह अश्वत्थामा द्वारा चलाए गए ब्रह्मास्त्र का तेज है। यद्यपि प्राण संकट में देखकर उसने इसका प्रयोग तो कर लिया है, किंतु वह इसे लौटाना नहीं जानता। किसी दूसरे अस्त्र में भी लौटाने की शक्ति नहीं है। अर्जुन ! तुम शस्त्र-विद्या के ज्ञाता हो, अतः ब्रह्मास्त्र के तेज से इस ब्रह्मास्त्र की इस प्रचंड अग्नि को बुझा दो।”
अर्जुन ने श्रीकृष्ण की परिक्रमा की और ब्रह्मास्त्र चला दिया। उन दोनों ब्रह्मास्त्र का तेज आपस में टकराकर तीनों लोकों में फैल गया। तत्पश्चात् भगवान श्रीकृष्ण ने दोनों ब्रह्मास्त्रों को लौटा दिया। ब्रह्मास्त्र का तेज शांत होते ही सभी लोग भगवान श्रीकृष्ण की जय-जयकार कर उठे।
इसके बाद अर्जुन ने अश्वत्थामा को पकड़कर रस्सियों से बांध दिया। जब वे उसे शिविर की ओर ले जाने लगे, तब श्रीकृष्ण बोले-“पार्थ ! इस दुष्ट ने निरपराध बालकों का वध किया है, इसलिए इसे जीवित छोड़ना उचित नहीं है। यदि यह जीवित रहा तो न जाने कितने पाप और करेगा। तुम इसका सिर काटकर अपनी प्रतिज्ञा पूरी करो।”
भगवान श्रीकृष्ण ने अर्जुन के धर्म की परीक्षा लेने के लिए ही यह बात कही थी, किंतु अर्जुन उन्हीं के शिष्य थे और उन पर श्रीकृष्ण की विशेष कृपा थी, फिर उनमें अधर्म का उदय कैसे होता। वे अश्वत्थामा को लेकर शिविर में लौट आए।