अश्वत्थामा को पशु की भांति बांधकर द्रौपदी के समक्ष प्रस्तुत किया गया। भयंकर पाप के कारण उसका मुख नीचे की ओर झुका हुआ था। अपने कुल का नाश करने वाले द्रोण-पुत्र अश्वत्थामा को देखकर द्रौपदी का मन करुणा से भर आया। उसने अश्वत्थामा को प्रणाम किया और अर्जुन से बोली-“नाथ ! इन्हें बंधन-मुक्त कर दीजिए। जिनकी कृपा से आपने वेदों, शास्त्रों और धनुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया है, ये उन्हीं द्रोणाचार्य के पुत्र हैं। इस समय द्रोण ही अश्वत्थामा के रूप में आपके सामने खड़े हैं। दयानिधान ! पुत्र-शोक में मैं यह भूल गई थी कि गुरुवंश की सदा पूजा-वंदना करनी चाहिए। माता कृपी इनके लिए ही अभी तक जीवित हैं। मैं नहीं चाहती कि जैसे मैं अपनी संतान के लिए दुःखी हूं, उसी प्रकार माता कृपी भी इनके लिए दुःखी और शोकग्रस्त हो जाएं। अतः आप इनके वध का विचार त्याग दें।”
द्रौपदी की बात धर्म और न्याय के अनुकूल थी। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण, युधिष्ठिर, अर्जुन, नकुल और सहदेव भी उसी बात का समर्थन करने लगे। तब भीम क्रोधित होते हुए बोले-“भगवन्! जिसने सोते हुए निर्दोष बालकों को व्यर्थ ही मार डाला, उसे जीवित छोड़ना कहां का न्याय है। इसे आप क्षमा कर सकते हैं, किंतु मैं कदापि नहीं।”
भीम की बात सुनकर भगवान श्रीकृष्ण हंसते हुए बोले-“कुंती-पुत्र!
ब्राह्मण का वध नहीं करना चाहिए और पापी को छोड़ना नहीं चाहिए‒ये दोनों बातें शास्त्रों में वर्णित हैं। इसलिए हे अर्जुन ! तुम इन दोनों बातों का पालन करते हुए अपनी प्रतिज्ञा सत्य सिद्ध करो। साथ ही द्रौपदी, भीम और मेरी इच्छा भी पूरी करो।”
अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण का अभिप्राय समझ गया। उसने अपनी तलवार से अश्वत्थामा के मस्तक की मणि उसके बालों के साथ उतार ली। इसके बाद उसे बंधन-मुक्त कर शिविर से निकाल दिया गया। मणि छिन जाने से अश्वत्थामा का ब्रह्मतेज समाप्त हो गया और वह वहां से चला गया।
इस प्रकार क्षमाशील द्रौपदी ने अपने पुत्रों के हत्यारे को अभय प्रदान कर दिया।