arjun kee pareeksha - mahabharat story
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एक बार महर्षि व्यास पांडवों से मिलने आए। वे त्रिकालदर्शी थे। उन्होंने पांडवों से कहा- “पुत्रों ! मनुष्य के जीवन में सुख-दुःख का आना-जाना लगा रहता है। विधि का यही विधान है। मुझे स्पष्ट दिखाई दे रहा है कि तेरह वर्ष बाद जब तुम वनवास पूरा करोगे, तब कौरवों के साथ तुम्हारा भीषण युद्ध होगा। अभी तुम्हारे पास समय है, इसलिए भावी युद्ध की तैयारी अभी से प्रारंभ कर दो। अर्जुन ! तुम्हें कठोर तपस्या द्वारा दिव्यास्त्र प्राप्त करने चाहिए। युद्ध में वे तुम्हारे सहायक सिद्ध होंगे। तुम आज ही इंद्रकील पर्वत पर जाकर भगवान शिव की आराधना आरंभ कर दो।”

इसके बाद उन्होंने अर्जुन को भगवान शिव के प्रिय मंत्र की दीक्षा दी।

अर्जुन उसी समय युधिष्ठिर से आशीर्वाद लेकर इंद्रकील पर्वत पर चले गए और कठोर तप करने लगे। उनकी परीक्षा लेने के लिए इंद्र ब्राह्मण का वेष धारण कर वहां पहुंचे, परंतु अनेक प्रयत्न करने के बाद भी वे उन्हें तप से विचलित नहीं कर सके। अंत में वे अपने वास्तविक स्वरूप में प्रकट होकर बोले-“वत्स ! तुम्हारी दृढ़ भक्ति से मैं अत्यंत प्रसन्न हूं। तुम भगवान शिव से पाशुपत नामक अस्त्र प्राप्त करो। मैं वचन देता हूं कि उसके बाद मैं तुम्हें दिव्यास्त्रों का ज्ञान प्रदान कर दूंगा।” यह कहकर वे अंतर्धान हो गए।

अर्जुन पुनः तपस्या में लीन हो गए।

इधर दुर्योधन को अपने गुप्तचरों द्वारा पता चल गया कि अर्जुन तपस्या कर रहा है। उसने इस अवसर का लाभ उठाने का निश्चय कर एक शक्तिशाली दैत्य को उसका वध करने भेजा।

दैत्य ने शूकर (सूअर) का रूप धारण कर अर्जुन पर आक्रमण कर दिया। अर्जुन ने अपनी रक्षा के लिए धनुष पर बाण चढ़ाकर पूरे वेग से शूकर की ओर छोड़ा। तभी एक भील ने भी शूकर पर बाण छोड़ दिया। दोनों बाण एक साथ शूकर को लगे और उसके प्राण निकल गए।

भील का एक सेवक शूकर को उठाने लगा। यह देखकर अर्जुन बोले- “ठहरो ! यह शूकर मेरे बाण से मरा है। इसलिए यदि तुम इसे ले जाना चाहते हो तो पहले मुझसे आज्ञा लो।”

सेवक हंसते हुए बोला‒ “युवक! इसे मेरे स्वामी ने मारा है। इसके लिए मुझे किसी की आज्ञा की आवश्यकता नहीं है। तुम्हें शांतिपूर्वक अपनी तपस्या करनी चाहिए, अन्यथा मेरे स्वामी तुम्हें दंडित करेंगे।”

सेवक की बात सुनकर अर्जुन क्रोधित हो गए और गरजकर बोले‒ “ठीक है। बुलाओ अपने स्वामी को। मैं उससे युद्ध करने को तैयार हूं। मेरे बाण स्वयं ही सत्य कह देंगे।”

सेवक ने भील को अर्जुन के बारे में बताया। भील भी अर्जुन से युद्ध को तैयार हो गया। दोनों का युद्ध शुरू हो गया। फिर देखते-ही-देखते भील ने अर्जुन के सभी बाण काट दिए। अर्जुन आश्चर्यचकित रह गए।

तब अर्जुन बोले‒हे वीरवर! मैं तुमसे पुनः युद्ध करूंगा, परंतु पहले मुझे अपने आराध्यदेव की पूजा कर लेने दो।”

यह कहकर अर्जुन ने धनुष-बाण रख दिए। फिर जैसे ही भगवान शिव की पूजा-अर्चना करते हुए उन्होंने शिवलिंग पर पुष्प चढ़ाएं, वे पुष्प भील के चरणों में पहुंच गए। वास्तव में भील के रूप में वे भगवान शिव थे, जो अर्जुन की परीक्षा ले रहे थे।

अर्जुन भी उन्हें पहचान गए। तब भगवन शिव अपने वास्तविक रूप में प्रकट हो गए। उनका सेवक भी नंदी-रूप में प्रकट हो गया। अर्जुन उनके चरणों में झुककर श्रद्धाभाव से स्तुति करने लगे। तब भगवान शिव ने प्रसन्न होकर उन्हें पाशुपत अस्त्र प्रदान कर दिया।

इस प्रकार भगवान शिव ने अर्जुन को अपनी कृपा-दृष्टि से अनुगृहीत किया।