भारत कथा माला
उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़ साधुओं और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं
Long Hindi Story: शहर के प्रसिद्ध नाट्य संस्था ‘आईना’ के प्रमुख रत्नाकर इन दिनों बड़ी ही परेशानियों के दौर से गुजर रहे थे। रत्नाकर स्वयं एक मझे हुए रंगकर्मी, नाट्य निर्देशक, पटकथा लेखक थे। उनकी नाट्य संस्था ‘आईना’ अपने नाटकों के मंचन के द्वारा समाज को आईना दिखाने का कार्य करती थी। समाज में जो कुरीतियाँ, रुढ़िवादी | परम्पराएं हैं, अव्यवस्था फैली हुई है, उन पर सीधा प्रहार करते हुए नाटक ‘आईना’ संस्था द्वारा खेला जाता रहा है। शहर क्या सम्पूर्ण प्रदेश में रत्नाकर की संस्था ‘आईना’ के द्वारा मंचित नाटकों की बडी प्रसिद्धि थी।
रत्नाकर आजकल बड़े बेचैन से रहते थे। उनके पास कन्या भ्रूण हत्या तथा घरेलू हिंसा पर एक जबरदस्त पटकथा थी, जिसका बेहतरीन नाट्य रूपांतरण तैयार किया जा चुका था। नारी पात्र पर केन्द्रित इस नाटक में सभी पात्रों का चयन भी किया जा चुका था, सिवाय मुख्य पात्र अर्थात नायिका के। इस बार रत्नाकर की यही इच्छा है कि एक ऐसे नारी पात्र को लिया जाए जो इस क्षेत्र में एकदम नया हो तथा उसके चेहरे पर अप्रतिम सुंदरता लिए हुए एक मासूमियत भी हो। इस नाटक की कहानी में मुख्य नारी पात्र का अत्यंत ही संवेदनशील एवं भावुक अभिनय का समावेश है। उनकी ऐसी धारणा है कि यदि नायिका अत्यंत सुंदर है और एक सच्चाई लिए हुए भोलापन उसके चेहरे पर दिख रहा है तो जो भी अत्याचार उस पर होता दिखाया जायेगा, वह दर्शकों की सहानुभूति को सहज ही पा लेगा और यही तत्व/फैक्टर उस नाटक की सफलता की कसौटी सिद्ध होगी। पर परेशानी यही है कि रत्नाकर को ऐसा कोई मनमाफिक कलाकार नहीं मिल रहा था जो इस मापदंड पर खरा उतरे। हालांकि उनकी तलाश जारी थी।
उनकी पत्नी रागिनी शहर के संगीत महाविद्यालय की प्राचार्या थी। शहर के एक प्रसिद्ध शैक्षणिक संस्था द्वारा अंतर्विद्यालय स्तर के संगीत प्रतियोगिता में मुख्य अतिथि एवं मुख्य निर्णायक के रूप में उन्हें आमंत्रित किया गया था। उस संस्था के प्राचार्य श्री कमलेन्दु जी, रत्नाकर के अच्छे मित्र थे। संयोगवश आज इस संगीत प्रतियोगिता में कमलेन्दु जी ने अपने मित्र रत्नाकर को भी साथ में लेकर आने के लिए रागिनी से आग्रह किया। रत्नाकर को वैसे भी अपने आगामी नाटक के लिए नायिका की तलाश थी। अतः यह एक अवसर भी मिल गया कि अपनी तलाश को क्रियान्वित किया जाए।
महाविद्यालय के प्रांगण में रत्नाकर अपनी पत्नी रागिनी के साथ पहुंचे। वे संगीत प्रतियोगिता के आयोजन स्थल की ओर चल दिए, जहां प्राचार्य कमलेन्दु भी उपस्थित थे।
संगीत प्रतियोगिता प्रारम्भ हुई। एक के बाद एक प्रतियोगी आते रहे और अपने गीतों की प्रस्तुति देते रहे। लगभग सभी प्रतियोगी अपनी बेहतरीन प्रस्तुति दे रहे थे। वहां संगीत की गंगा बह रही थी। तभी एक प्रतियोगी अपूर्वा का नाम पुकारा गया। कमलेन्दु ने बताया कि यह प्रतियोगी इसी महाविद्यालय की ही होनहार छात्रा है। जब अपूर्वा मंच पर अपने साजकारों के साथ आई तो रत्नाकर उसे देखते ही रह गए। वह प्रतियोगी अपने नाम के अनुरूप ही अपूर्व सौन्दर्य को समेटे हुए थी। रत्नाकर उसमें अपनी नायिका को तलाश करने लगे। अपूर्वा आहिस्ते से पूर्ण कमनीयता के साथ मंच पर आई। पर इन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण और चुम्बकीय था, उसका सादगी से भरा हुआ व्यक्तित्व और एक मासूमियत जो चेहरे पर बिखरी हुई थी। अपूर्वा ने जब अपना गीत गाना प्रारम्भ किया तो वहाँ पर सम्मोहन-सा छा गया। उस आवाज में मधुरता और सधापन तो था ही साथ में गीत में भावों का जबर्दस्त समावेश था। प्रतियोगिता की समाप्ति पर निर्णय निर्णायकों द्वारा घोषित किये गए। जैसे कि सभी को अनुमान था, निर्णय अपूर्वा के ही पक्ष में रहा। अपूर्वा को उस संगीत प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त हुआ।
कार्यक्रम के पश्चात रत्नाकर ने अपने मित्र कमलेन्दु से कहा- “मुझे इस लड़की अपूर्वा से मिलना है। मैं उसे अपने अगले नाटक में मुख्य पात्र के रूप में लेना चाहता हूँ। वह किस विभाग की छात्रा है?”
“अपूर्वा तो हमारे कॉलेज की शान है। फाइन आर्टस स्नातक की अंतिम वर्ष की छात्रा है। वह एक अच्छी चित्रकार है। मूर्तिकला में भी उसका जवाब नहीं। वह एक ऐसी कलाकार है, जिसे ईश्वर ने सभी कलाओं से नवाजा है, साथ में अपूर्व सुंदरता भी प्रदान की है। मैं अभी थोड़ी देर में उसे बुलाता हूँ। उसने अभी तक किसी नाटक में अभिनय तो नहीं किया है पर मेरा विचार है कि वह मान जायेगी। ऐसा करते हैं अब मेरे कक्ष में चलते हैं।”
कुछ समय बाद अपूर्वा ने प्राचार्य के कक्ष में प्रवेश किया। रत्नाकर उनके नाटक की नायिका को अपूर्वा में देख रहे थे। कमलेन्दु ने कहा- “आओ, अपूर्वा, बैठो। इनसे मिलो, ये हैं रत्नाकर, हमारे शहर के प्रसिद्ध नाट्य संस्था ‘आईना’ के संस्थापक। ये माने हुए नाटककार हैं। तुमसे मिलना चाहते हैं। इनकी पत्नी रागिनी देवी हैं, जो संगीत प्रतियोगिता में मुख्य अतिथि तथा निर्णायक भी थीं।”
अपूर्वा ने दोनों हाथ जोड़कर रत्नाकर को नमस्कार किया। रत्नाकर ने मुस्कुराहट के साथ देखा। अपूर्वा के मन में संशय छिपा था, जो उसकी आँखों से भी झलक रहा था। उसे अचानक यहाँ बुलाना उसके संशय का कारण था। रत्नाकर को अपूर्वा की दुविधा उसके चेहरे पर स्पष्ट दृष्टिगत हो रही थी और शायद यही उसके मंचीय कलाकार होने का मापदंड भी था। उन्होंने अपूर्वा को कहा- “सर्वप्रथम तो संगीत प्रतियोगिता में विजयी होने की बहुत बधाई। तुमने बहुत ही सुंदर गाया। गीत की प्रस्तुति अद्भुत थी। तुम्हारी आवाज भी बहुत प्यारी और मधुर है।”
“धन्यवाद सर। आपको पसंद आया यह मेरे लिए गर्व का विषय है। मैं आपकी नाट्य संस्था ‘आईना’ के द्वारा मंचित नाटकों को देखती रहती हूँ। आप अपने नाटकों के माध्यम से समाज में व्याप्त कुरीतियों एवं ज्वलंत समस्याओं को उठाते हैं। मैं आपसे अत्यंत ही प्रभावित हूँ।” अपूर्वा ने बड़ी ही विनम्रता से कहा। उसकी आवाज अत्यंत ही मधुर थी तथा उच्चारण भी स्पष्ट था। भाषा की अदायगी अत्यंत ही सहज थी। रत्नाकर अपने भावी कलाकार को परख रहे थे। प्राचार्य कमलेन्दु ने कहा- “अपूर्वा, अब ये एक और ज्वलंत विषय को लेकर नाटक का मंचन करने जा रहे हैं। इन्हें अपने उस नाटक के लिए मुख्य नायिका की तलाश है। वह एक नायिका प्रधान नाटक होगा। इसी संदर्भ में आप यहाँ आये हैं। ये तुम्हें अपने नाटक की मुख्य नायिका बनाना चाहते हैं।”
मुझे मुख्य नायिका के रूप में लेना चाहते हैं, पर मैंने तो अभिनय कभी भी नहीं किया है।” अपूर्वा ने आश्चर्य के साथ कहा।
“मुझे पूर्ण विश्वास है, तुम बहुत अच्छा अभिनय कर सकती हो। मेरे उस नाटक में जिस नारी पात्र की आवश्यकता है उसके सभी गुण, सभी तत्व मुझे तुममें नजर आ रहे हैं। तुम एक बोर्न आर्टिस्ट हो। एक नैसर्गिक कलाकार। तुम सहजता के साथ अभिनय कर सकती हो।” रत्नाकर ने अपूर्वा के समक्ष अपनी बात रखी।
अपूर्वा अत्यंत ही असहज नजर आ रही थी। जब उसने अभिनय के क्षेत्र में अपनी अनभिज्ञता प्रकट की तो रत्नाकर ने कहा-
“तुम अवश्य कर पाओगी। भावों एवं संवेदनाओं को तुम अच्छी तरह समझती हो तथा इसे बखूबी प्रयोग भी अपने चित्रों में करती होगी। इन्हीं भावों और संवेदनाओं को ही तो हम अभिनय के द्वारा प्रदर्शित करते हैं। तुम जिस प्रकार एक अच्छी चित्रकार हो, अच्छी गायिका हो वैसे ही अवश्य एक अच्छी अभिनेत्री भी हो। मुझे अपने उस नाटक में मुख्य नायिका के रूप में तुम्हारी जरूरत है।” रत्नाकर ने पूर्ण विश्लेषण करते हुए अपूर्वा से कहा।
अंत में अपूर्वा ने रत्नाकर का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया पर वह भ्रमित थी। अपूर्वा के घर में जब इस विषय की चर्चा हुई तो उसके पिता अति प्रसन्न हुए। माँ तो हर बात पर साथ थी। उसके भैया अम्बर ने अचरज के साथ हंसते हुए कहा- “अरे मेरी लाडो बहना अब एक्ट्रेस हो जाएगी। पर यह तो बता उसमें इमोशनल कैसे हो पाएगी। देख, कहीं रोने के सीन में खिलखिलाकर हंस मत देना। तेरे को रोना तो आता ही नहीं है, पर तू अवश्य यह कर पाएगी। तेरी प्रतिभा को हम सब जानते हैं। सब कुछ श्रेष्ठ होगा।” ऐसा कहते हुए अपूर्वा के भाई अम्बर ने उसे अपने गले से लगा लिया और उसकी पीठ थपथपाने लगा।
शीघ्र ही नाटक की रिहर्सल प्रारम्भ हो गयी। यह नाटक कन्या भ्रूण हत्या एवं घरेलू हिंसा पर आधारित था। नाटक के अंत में नायिका को रुदन करते हुए अपनी पीड़ा को सशक्त संवाद के माध्यम से कहना था तथा अपने आंसुओं से भीगे संवाद के द्वारा इस कन्या भ्रूण हत्या एवं घरेलू हिंसा के विरोध में एक सन्देश भी देना था, जिससे एक जागरूकता की पहल हो तथा समाज को इस घृणित सोच का आईना दिखाया जा सके। सब कुछ ठीक चल रहा था पर अपूर्वा के द्वारा भावुक दृश्यों में सहज अभिनय नहीं हो पा रहा था। अपूर्वा लाख चाहकर भी दु:ख एवं वेदना के भावों को अपने चेहरे पर ला नहीं पा रही थी। नाटक में कहानी के अनुसार कई बार रोने का दृश्य आता है। बस यहीं पर अपूर्वा से गड़बड़ हो जाती। वह हृदय की पीड़ा को अभिव्यक्त करने की जगह घबरा जाती, नर्वस हो जाती और अंत का पीडायुक्त सन्देश में तो पूरी तरह से ही लड़खड़ा जाती। हालांकि अपूर्वा के अभिनय में सुधार भी आया पर वह बात न बन पाई, जो रत्नाकर की परिकल्पना थी। समय गुजरता रहा यहाँ तक कि अंतिम रिहर्सल का दिन भी आ गया। उसके एक दिन बाद ही इस नाटक की प्रस्तुति शहर में होने वाली थी, जिसमें प्रदेश के संस्कृति मंत्री भी आने वाले थे। अपूर्वा पर विश्वास कर के ही रत्नाकर ने इस नाटक के प्रीमियर की तारीख पक्की की थी तथा विशिष्ट जनों को आमंत्रित किया था।
अंतिम रिहर्सल के दिन जब अपूर्वा घर से एक्टिवा स्कूटर लेकर निकली तो उसकी माँ ने कहा- “सुन अपूर्वा, आज शाम को जब तू अपने रिहर्सल से वापिस लौटे तो मुझे अपनी राधा मौसी के घर से लेती आना। दिव्या अपने ससुराल से आई हुई है। अपनी भांजी से मिल आऊँगी तथा अपनी राधा दीदी से बातें भी कर लूंगी। मुझे अभी अम्बर वहां छोड़ देगा।”
“ठीक है माँ। मैं भी दिव्या दी और मौसी से इस बहाने मिल लूंगी।”
अंतिम रिहर्सल में कुछ और सुधार हुआ पर न तो रत्नाकर को और न ही नाट्य संस्था के अन्य सदस्यों को संतुष्टि मिल रही थी। रत्नाकर को अभी भी विश्वास था कि अपूर्वा अवश्य अच्छा कर लेगी। अपूर्वा के आत्मविश्वास को बढ़ाने हेतु उसे पास बुलाकर कहा, “अपूर्वा, तुमने अपने अभिनय में काफी अच्छा सुधार किया है। देखना परसों जब इस नाटक की प्रस्तुति होगी, तो तुम गजब का अभिनय कर जाओगी। मेरी नजर धोखा नहीं खा सकती है। तुम एक अच्छी कलाकार हो। मेरे इस नाटक की श्रेष्ठ अभिनेत्री।” ऐसा कहते हुए रत्नाकर ने अपूर्वा के सर पर हाथ रखा। अपूर्वा असमंजस में थी।
रिहर्सल पूर्ण कर अपूर्वा अपनी राधा मौसी के घर एक्टिवा से पहुँची, जहाँ से उसे अपनी माँ को लेना था। दिव्या उससे तीन वर्ष बड़ी है। वह उसकी बड़ी मौसी की बेटी है, जिसका दो वर्ष पूर्व ही विवाह हुआ था। दिव्या दी कुछ दिनों पूर्व ही अपने ससुराल जबलपुर से आई है। अपूर्वा अपनी राधा मौसी से मिली। फिर दिव्या दी के कमरे में मिलने उसके कमरे में दौड़ती हुई गयी। जब उसने कमरे में प्रवेश किया तो अपनी दिव्या दी को देखकर आश्चर्य में पड़ गयी। शुरू में तो वह अपनी दी को पहचान ही नहीं पाई। गौरी-चिट्टी सुंदर-सी उसकी दीदी सूख के कांटा हो गयी थी। उसके आँखों के नीचे भी काला घेरा अपना अड्डा बना चुका था। दीदी बोल कर वह उससे लिपट गयी।
“दी, आपने ये क्या अपना हाल बना लिया है? आपको क्या हो गया है? क्या आपकी तबियत ठीक नहीं है?” ऐसा कहते हुए अपूर्वा की आँखों में आंसू आ गए।
“बस ठीक ही हूँ अपूर्वा। तू परेशान मत हो। मेरा भाग्य ही मुझे धोखा दे जाए तो कोई क्या कर सकता है?” ऐसा कहते हुए दिव्या की आवाज लड़खड़ा गयी। उसकी आँखों में आंसू तैर गए।
“ओह दी, ऐसा मत कहो। तुम मेरी कितनी प्यारी दीदी हो। तुम्हारी आँखों में आंसू मैं नहीं देख सकती। मेरी हमेशा ही हँसते मुस्कुराने वाली दीदी की आँखों में आंसू प्रलय ला देंगे। यह सब क्या हुआ दी? मुझे कुछ बताओ भी।” अपूर्वा ने परेशान होकर पूछा।
“कुछ नहीं होगा अपूर्वा। किसी को कोई फर्क भी नहीं पड़ेगा। हम औरतों का जीवन आज भी महत्त्वहीन है। हम कितना भी पढ़-लिख लें, आर्थिक स्वंत्रता पा लें पर आज भी हम अपना कुछ न तो सोच सकते हैं, न ही हमारी कोई हैसियत रह जाती है। पुरुष प्रधान समाज में हमारा कोई अस्तित्व ही नहीं है।” दिव्या ने अत्यंत पीड़ा में भरकर यह बात कही।
अपूर्वा ने जब दिव्या दी का हाथ अपने सर पर रख उनके दुःख का राज पूछा तो दिव्या कहती ही चली गई। यहाँ तक कि उसकी आँखें आंसुओं में डूब गयी।
दिव्या ने बताया कि उसके साथ कितना अन्याय हुआ है। उसकी ममता का गला घोंट दिया गया। उसके कोख में पल रहे कन्या का गर्भपात धोखे से करा दिया गया। पैसे और ताकत के बल पर सारी व्यवस्था ही बिक जाती है। कहने को लिंग परीक्षण तथा भ्रूण हत्या के विरुद्ध सब कानून बने हुए हैं, पर इसकी अनदेखी खुलेआम हो रही है। उसके परिवार को बेटी की आवश्यकता नहीं थी। उन्हें अपने घर के चिराग की चाह बेटे के रूप में थी। दिव्या ने पहली बार ममत्व को जानना, समझना प्रारम्भ करा ही था कि उसकी कोख में पल रहे बेटी की हत्या हो गयी। उसने जब अपने परिवार में इसका प्रतिकार किया, विरोध किया तो वही पति जिसे समाज तथा परिवार बहुत ही अच्छा और सज्जन समझता है, दिव्या पर हाथ उठा बैठा। अपनी बेटी के खोने का दुःख क्या कम था, जो पति की निर्दयता भी झेलनी पड़ी। इन सबसे दिव्या टूट गयी। यह उसके लिए अत्यंत ही गंभीर मानसिक आघात था। इस सदमे ने उसे तोड़ कर रख दिया। वह बिखर कर रह गयी। इसका प्रभाव उसके स्वास्थ्य पर अत्यंत ही गंभीर रूप से पड़ा। परिणामस्वरूप वह एक हड्डी का ढांचा बन कर रह गयी। अपनी व्यथा कहते हुए दिव्या की आँखों में अश्रु धारा बहती रही। उन आंसुओं की वेदनायुक्त आद्रता में अपूर्वा भी भीग गयी।
अपूर्वा जब अपनी माँ को लेकर घर वापिस लौटी तो वह एक प्रकार सदमे में थी। दिव्या दी के ऊपर हुए अत्याचार ने उसे झकझोर कर रख दिया था। सारी रात वह इन्हीं विचारों में डूबी रही। बड़ी मुश्किल से देर रात उसे नींद आई। सुबह वह देर से उठी। रात की उस मानसिक थकान का असर अभी भी उस पर बना हआ था।
नाटक का आज मंचन था। शहर के टाउन हाल में बड़ी गहमा-गहमी थी। संस्कृति मंत्री के आने के बाद दीप प्रज्ज्वलन के पश्चात नाटक का मंचन प्रारम्भ हुआ। रत्नाकर का मन नाटक को लेकर शंकाओं एवं संशय में घिरा हुआ था।
नाटक की कहानी अपना रंग जमाने लगी थी। दर्शक गण कहानी में खोते जा रहे थे। नाटक की नायिका का अभिनय और उस पर उसका अपूर्व सौन्दर्य दर्शकों के दिलोदिमाग पर गहरे तक छाप छोड़ रहा था। नाटक की कहानी में कई बार मार्मिक दृश्य आये जो जीवंत से लगे। नाटक के अंत में वह भावुक दृश्य भी आया जिसमें नायिका को रोते हुए अपने मन की पीड़ा को तथा उस पर हुए अत्याचार को दर्शकों के सामने रखना था जो अभी तक अपूर्वा को सबसे कठिन लगा था। पर जब यह दृश्य आया तो नायिका भूल गयी कि वह अपूर्वा है। वह अनायास ही दिव्या दी बन कर अपने आँखों में बहते हुए आंसुओं के साथ अपनी वेदना को कहती और जोर-जोर रोते हुए अपने पर हए अत्याचार की दर्दभरी दास्ताँ सनाने लगती। उसके दर्द में भरे आंसुओं से भीगे मार्मिक संवादों ने वहाँ पर उपस्थित दर्शकों की आँखें नम कर दी। नायिका के द्वारा रुदन से भरा हुआ नारी अत्याचार, कन्या भ्रूण हत्या और घरेलू हिंसा के विरुद्ध सन्देश ने सभी उपस्थित दर्शकों को गंभीरता से सोचने पर विवश कर दिया। सन्देश के संवाद समाप्त हो चुके थे पर नायिका की आँखों से आंसू निरंतर बहते जा रहे थे। रोते हुए उसकी हिचकियाँ बंध गयी थी। वह गहन वेदना में डूब चुकी थी। ओह, उसकी दिव्या दी की क्या गत हो गयी है? दिव्या दी का सदा हंसता-मुस्कुराते रहने वाला चेहरा रोये जा रहा था। वह अपने को दिव्या दी समझती तो हृदय चीत्कार कर उठता। अपूर्वा का रोना जारी था और लोग अपनी जगह पर खड़े होकर इस जीवंत अद्भुत अभिनय का दिल खोलकर तालियाँ बजाकर अभिवादन कर रहे थे।
रत्नाकर भी आश्चर्य से भरे हुए थे। अपूर्वा के अभिनय के प्रति जो शंका उत्पन्न हो गयी थी, वह पूरी तरह से निर्मूल सिद्ध हुई। उनके कल्पना से भी अधिक जीवंत और मार्मिक अभिनय अपूर्वा ने किया था। दर्शकों की सहानुभूति अपूर्वा के उस अभिनय और उसके अपूर्व सौन्दर्य के परिणाम स्वरूप उस सभा गृह में जन्म ले चुकी थी। रत्नाकर को अपूर्वा में अपनी वह नायिका मिल गयी थी जिसकी तलाश थी।
पर अपूर्वा अभी भी आंसुओं में पूरी तरह से भीगी हुई, स्तब्ध-सी खड़ी हुई, दर्शकों की ओर निहार रही थी।
भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’
