Ramleela Manchan: शारदीय-नवरात्रि में घर-घर में दुर्गा मां केे पूजन के साथ-साथ शुरू होता है- नौ दिन चलने वाले रामलीला-मंचन का सिलसिला जो बुराई पर अच्छाई की विजय के प्रतीक दशहरा पर्व पर आकर थमता है। क्या आप जानते हैं कि रामलीला-मंचन की परंपरा कब और कैसे शुरू हुई और आज देश-विदेश में इस परंपरा का आयोजन कहां-कहां किया जाता है, जानेंगे इस आर्टिकल में-
रामलीला का प्रचलन

रामलीला लोक-नाटक का एक रूप है जिसका विकास मूलतः उत्तर भारत में हुआ था। इसके प्रमाण लगभग ग्यारहवीं शताब्दी में मिलते हैं। पहले यह महर्षि बाल्मिकी के हिन्दू महाकाव्य ‘रामायण‘ की पौराणिक कथा पर आधारित थी। लेकिन आज जिस रामलीला का मंचन किया जाता है, उसकी पटकथा गोस्वामी तुलसीदास रचित महाकाव्य ‘रामचरितमानस‘ की कहानी और संवादों पर आधारित है। रामलीला का मंचन तुलसीदास के शिष्यों ने 16वीं सदी में सबसे पहले किया था। कहा जाता है कि उस समय के काशी नरेश ने गोस्वामी तुलसीदास को रामचरितमानस को पूरा करने के बाद रामनगर में रामलीला कराने का संकल्प लिया था। महाकाव्य पूरा होने पर तुलसीदास श्रीराम का मुकुट, धनुष-बाण, खड़ाऊं, कमंडल जैसे दिव्य वस्तुएं लेकर वहां गए और रामलीला के रूप में रामचरितमानस का विमोचन किया। काशी नरेश ने वहां रामलीला का मंचन किया जो 22 दिन चली और दशहरे पर अंतिम दिन लंका नरेश रावण का पुतला जलाया गया। तभी से देश भर में रामलीला का प्रचलन शुरू हुआ।
लोक-नाटक का एक प्रकार
हमारे देश में लोक-नाटकों की विभिन्न शैलियां प्रचलित हैं जिनमें रामलीला एक है। लोक-नाटक की सबसे प्राचीन शैली ‘कुट्टीयाट्टम‘ है जो तीसरी शताब्दी ई.पू. में संस्कृत रंगमंच में प्रयोग की जाती थी। रामलीला में भवाई (गुजरात), यक्षगान (कर्नाटक) और शास्त्रीय नृत्य की कई शैलियों को शामिल किया गया है। इसमें संगीत और नृत्य को संवादों के साथ बड़ी सुंदरता के साथ मिला कर मंचित किया जाता है। इसके अलावा रामलीला में कलाकारों की पोशाकें, गहने, मुखौटे, मेकअप और मंच की सजावट विशेष महत्व रखते हैं।
रामलीला की शैलियां

रामलीला को प्रभावी ढंग से पेश करने के लिए विभिन्न नाट्य-शैलियों का सहारा लिया गया-
मूक अभिनय: मूक अभिनय संगीतबद्ध हास्य थियेटर है जिसे रामलीला में भी अपनाया गया। इसमें रामलीला का सूत्रधार रामचरितमानस की चौपाइयां और दोहे गाकर सुनाता है और दूसरे कलाकार बिना कुछ बोले रामायण की प्रमुख घटनाओं का मंचन करते हैं। रामलीला की इस शैली में महाभारत की झांकियां भी दिखाई जाती हैं, बाद में पूरे शहर में जुलूस निकाला जाता है। इलाहाबाद, ग्वालियर जैसे शहरों में मूक अभिनय शैली में रामलीला का मंचन होता है।
ओपेरा या संगीतबद्ध गायन शैली: रामलीला की यह शैली उत्तराखंड के अल्मोड़ा और कुमायूं जिले में विकसित हुई। इस रामलीला खासियत है कि इसके संवाद क्षेत्रीय भाषा में न होकर ब्रज और खड़ी बोली में ही गाए जाते हैं जिसके लिए संगीत की विभिन्न शैलियों का बहुत अच्छा प्रयोग किया जाता है। यही नहीं इस शैली में गायन के लिए ठुमरी, दादरा, भजन, गज़ल ही नहीं शास्त्रीय रागों को भी मिला-जुलाकर बड़े सुंदर ढंग से प्रदर्शित किया जाता है।
रामलीला मंडलियां: इसमें पेशेवर कलाकार होते हैं जो रामलीला का मंचन करते हैं। स्टेज पर रामचरितमानस की स्थापना करके भगवान की वंदना करते हैं। इसमें सूत्रधार जिसे व्यास भी कहा जाता है, रामलीला के पहले दिन की कथा सुनाता है और आगे होने वाली रामलीला का सार गाकर सुनाता है। ये कलाकार-मंडलियां भारत के कई राज्यों में रामलीला का मंचन करती हैं।
रामलीला का मंचन
आमतौर पर रामलीला खुले आकाश के नीचे स्टेज पर या एम्फीथियेटर में की जाती है। लेकिन अब कई जगह हॉल के अंदर भी रामलीला का मंचन होने का प्रचलन बढ़ गया है। रामलीला का स्टेज पटकथा के दृश्यों के मुताबिक रोजाना बदला जाता है। इसी तरह रामलीला पहले जहां रात भर चलती थी, आज इसका मंचन रात को 4-5 घंटे से ज्यादा नहीं किया जाता। आज रामलीला स्थल पर मेले का सा माहौल होता है जहां खाने-पीने के स्टॉल, झूले और कई अन्य आकर्षण भी होते हैं।
भारत में प्रसिद्ध रामलीलाएं

मर्यादापुरुषोत्तम राम की लीला भारत के अनेक क्षेत्रों में होती है। भारत के रामनगर या काशी, अयोध्या, रामनगर, वाराणसी, वृंदावन, अल्मोड़ा और सतना जैसे शहरों में यह बहुत प्रसिद्ध है।
हिन्दुओं के तीर्थस्थान वाराणसी से 20 किमी दूर रामनगर की रामलीला का तो अपना ऐतिहासिक महत्व है। 1830 में पहली बार रामलीला का मंचन किया गया था। यह मंचन रामनगर में बनारस के राजा उदित नारायण सिंह की अध्यक्षता में किया गया था। रामनगर में रामलीला 31 दिन तक चलती है। यहां स्टेज के सेट देखने योग्य हैं जिनमें अधिकतर स्थायी हैं, लेकिन दृश्य के मुताबिक कई अस्थायी सेट जरूरत पड़ने पर जोड़े भी जाते हैं। इस रामलीला की खासियत होती है कि इसके प्रधान पात्र एक ही परिवार के होते हैं। उनके परिवार के सदस्य पीढ़ी दर पीढ़ी रामलीला में शिरकस्त करते हैं। रामनगर की रामलीला तो दुनिया भर में प्रसिद्ध है। आज भी भगवान राम की दिव्य वस्तुएं काशी नरेश के संरक्षण में प्राचीन बृहस्पति मंदिर में मौजूद हैं जिन्हें भरत मिलाप के दिन रामलीला में इस्तेमाल किया जाता है।
चित्रकूट की रामलीला फरवरी महीने में होती है। यहां की रामलीला की खासियत होती है कि यह केवल तीन दिन के लिए आयोजित की जाती है जिसमें केवल राम-भरत मिलाप के प्रसंग का ही मंचन किया जाता है। लेकिन यहां हर साल रामलीला के लिए अलग स्टेज बनाया जाता है।
उत्तर प्रदेश के आगरा शहर में रामलीला की अपनी अलग परंपरा है जो करीब 120 सालों से चली आ रही है। यहां रामलीला के साथ-साथ राम-भरत मिलाप को एक त्योहार के रूप में तीन दिन तक मनाया जाता है। सीता-राम के स्वयंवर को भी बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। राम की बारात पूरे
शहर में घूमती है।
राजधानी दिल्ली में रामलीला का इतिहास बहुत पुराना हैै। यूं तो दिल्ली में जगह-जगह रामलीला होती है लेकिन यहां पांच स्थानों पर होने वाली रामलीला काफी मशहूर है। इनमें श्री राम लीला समिति दिल्ली की सबसे पुरानी और पारंपरिक रामलीला है। इसे लगभग 180 साल पहले मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर के समय में उसकी सेना और लोगों के लिए शुरू किया गया था। यह पुरानी दिल्ली के रामलीला मैदान में आयोजित की जाती है। दिल्ली के लाल किले के मैदान में आयोजित होने वाली श्री धार्मिक लीला समिति, लवकुश रामलीला समिति और श्री नव धार्मिक लीला समिति की रामलीला में अच्छा नाटकीय प्रदर्शन किया जाता है। इनके अलावा श्रीराम भारतीय कला केन्द्र मे दिखाने जाने वाली रामलीला के मंचन में लोकनृत्यों और भारतीय शास्त्रीय नृत्यों का अच्छा प्रदर्शन किया जाता है। इस केन्द्र मेें रामलीला का मंचन केवल तीन घंटे के लिए किया जाता है।
दुनिया भर में रामलीला
लोकनायक राम की लीला भारत ही नहीं, बाली, जावा श्रीलंका जैसे देशों में प्राचीन काल से ही किसी न किसी रूप में प्रचलित रही है। आधुनिक सभ्यता के विस्तार से हिन्दू धर्म के लोग दुनिया भर के कई देशों में फैल गए जिनके साथ हिन्दू संस्कृति का विस्तार भी हुआ। इसीलिए आज रामलीला का मंचन नेपाल, पाकिस्तान के अलावा थाईलैंड, लाओस, फिजी, दक्षिण अफ्रीका, कनाडा, सूरीनाम, मॉरीशस जैसे कई देशों में भी किया जाता है। थाईलैंड में रामायण को रामाकिआन कहते हैं। वहां रामलीला का मूक-अभिनय लोक-नाटक के तौर पर किया जाता है। ‘फरा लाक फरा लाम‘ लाओस का प्रसिद्ध महाकाव्य है जिसमें लाक और लाम क्रमशः लक्ष्मण और राम के नाम हैं। यह मूलतः रामायण की कहानी पर आधारित है। फर्क इतना है कि इसमें बौद्ध धर्म की मान्यताओं को कहानी में उतारा गया है। लाओस में 14वीं शताब्दी से लोक-नाटक के तौर पर इसका मंचन किया जाता है।