Hindi Katha: एक बार भगवती लक्ष्मी और दरिद्रा में श्रेष्ठता को लेकर विवाद छिड़ गया। लक्ष्मी अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करते हुए बोलीं- ” हे दरिद्रा ! देहदारियों का कुल, शील और जीवन मैं ही हूँ। मेरे बिना वे जीवित भी मृतक के समान होते हैं। मुझसे अलंकृत होने पर ही समस्त प्राणी सुशोभित होते हैं । निर्धन मनुष्य शिव के समान भी क्यों न हो, सबके द्वारा तिरस्कृत होता है । ‘मुझे कुछ दीजिए’, मुख से ये शब्द निकलते ही श्री, बुद्धि, लज्जा, शांति और कीर्ति – ये पाँच देवगण शीघ्र ही शरीर को त्याग देते हैं। गुण और गौरव भी तभी तक स्थिर रहते हैं, जब तक मनुष्य किसी के आगे हाथ नहीं फैलाता। किंतु जब वह याचक बन जाता है तो ये भी उसका साथ छोड़ देते हैं। जीव तभी तक सबसे श्रेष्ठ, गुणों का भण्डार और लोगों के लिए वंदनीय रहता है, जब तक वह दूसरों से याचना नहीं करता । प्राणियों के लिए निर्धनता सबसे बड़ा पाप है, क्योंकि निर्धन मनुष्य को न तो कोई आदर देता है, न ही उससे आदरपूर्वक बात करता है और न ही उसकी संगति करता है । अतः हे दरिद्रे ! मैं ही सब में श्रेष्ठ हूँ।’
दरिद्रा अपना तर्क देती हुई बोली ” लक्ष्मी ! मैं ही सबसे श्रेष्ठ हूँ, क्योंकि मुक्ति सदा मेरे अधीन रहती है । जहाँ मैं हूँ, वहाँ काम, क्रोध, मद, लोभ, ईर्ष्या, भय और उद्दण्डता का सर्वदा अभाव रहता है। तुम श्रेष्ठ पुरुषों का त्याग कर सदा पापियों में निवास करती हो। जो तुम्हारा विश्वास करता है, उसके साथ तुम सदा छल करती हो। तुम्हारे मिलने पर प्राणी को प्राप्त होने वाला सुख वास्तव में एक प्रकार का दुःख है, क्योंकि उसमें फँसकर वह नरक का भागी बनता है । मदिरापान से भी मनुष्य ऐसा नशा नहीं होता, जैसा तुम्हारे निकट रहने मात्र से हो जाता है। हे लक्ष्मी ! तुम्हें सदा पापियों का साथ प्रिय होता है, जबकि मैं योग्य और धर्मशील पुरुषों में निवास करती हूँ। भगवान् शिव और विष्णु के भक्तजन, शांत, गुरु-सेवा परायण, . सदाचारी और विद्वान मनुष्यों में ही मेरा निवास है । अतः केवल मैं ही श्रेष्ठ हूँ। “
जब किसी भी प्रकार से उनकी श्रेष्ठता का निर्णय नहीं हुआ और विवाद बढ़ने लगा, तब ब्रह्माजी ने उन्हें गौतमी गंगा के पास जाने का परामर्श दिया। वे दोनों गौतमी गंगा के पास गईं और उन्हें सारा वृत्तांत सुनाया। उनकी बात सुनकर गौतम गंगा दरिद्रा से बोलीं- ” हे दरिद्रा ! ब्रह्मश्री, तपः श्री, यज्ञ श्री, कीर्ति, क्षमा, विद्या, मुक्ति, धनश्री, भोगश्री, लज्जा, स्मृति, सिद्धि, शांति, पुष्टि, पृथ्वी, अहंशक्ति, औषधि, जल, रात्रि, माया, उषा, शिवा आदि जो कुछ भी इस संसार में विद्यमान है, वह सब लक्ष्मी द्वारा ही व्याप्त है। ब्राह्मण, क्षमावान, धीर, साधु, विद्वान, भोग परायण तथा मोक्ष परायण पुरुषों में जो-जो श्रेष्ठ हैं, वे सब लक्ष्मी का ही विस्तार हैं। वास्तव में सारा जगत् लक्ष्मीमय है। दरिद्रे ! तुम्हें लक्ष्मी के साथ स्पर्द्धा करते हुए लज्जा आनी चाहिए। जाओ, इसी क्षण मेरी दृष्टि से ओझल हो जाओ ।”
तभी से गौतमी गंगा का जल दरिद्रा का शत्रु हो गया। वह स्थान लक्ष्मी तीर्थ के नाम से विख्यात हुआ । वहाँ स्नान-दान करने से मनुष्यों की दरिद्रता समाप्त हो जाती है। वे समृद्धि-सम्पन्न और पुण्यवान होकर समस्त ऐश्वर्य भोगते हैं।
