Hindi Katha: महर्षि विश्रवा के पुत्र कुबेर लंका के राजा थे। रावण, कुम्भकर्ण और विभीषण उनके सौतेले भाई थे। दैत्यराज सुमाली की पुत्री कैकसी के गर्भ से उत्पन्न होने के कारण वे तीनों दैत्य कहलाते थे। उन्होंने अनेक वर्षों तक कठोर तपस्या कर ब्रह्माजी से वर प्राप्त किए। इसके बाद उन्होंने माता कैकसी के कहने पर अपने बड़े भाई कुबेर पर आक्रमण कर दिया।
शीघ्र ही कुबेर और उनमें भीषण युद्ध छिड़ गया । यह युद्ध अनेक वर्षों तक चला। अंत में रावण ने कुबेर को पराजित कर उनके पुष्पक विमान और लंका पर अधिकार कर लिया। कुबेर प्राण बचा कर भाग निकले, किंतु रावण के भय से उन्हें कहीं भी आश्रय नहीं मिला। तब वे अपने पितामह महर्षि पुलस्त्य की शरण में गए और उनसे सहायता की प्रार्थना की।
महर्षि पुलस्त्य बोले- ‘वत्स ! तुम मेरे साथ गौतमी गंगा के तट पर चलकर भगवान् महादेव की वंदना करो। वे प्रसन्न होकर तुम्हें कल्याणमयी सिद्धि प्रदान करेंगे। वत्स ! गंगा में रावण का प्रवेश वर्जित है, इसलिए वहाँ तुम्हें उसका भी भय नहीं रहेगा।”
कुबेर ने उनकी आज्ञा स्वीकार कर ली। फिर शीघ्र ही वे पत्नी, माता, पिता तथा पितामह के साथ गौतमी के तट पर आ गए और वहाँ स्नान कर भगवान् शिव की स्तुति करने लगे। उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान् शिव वहाँ साक्षात् प्रकट हुए और उनसे वर माँगने को कहा। किंतु भगवान् के दर्शन कर वे अत्यंत भाव- विभोर होकर एकटक उन्हें निहारने लगे।
उसी समय आकाशवाणी हुई – ” दयानिधान ! कुबेर धन का प्रभुत्व प्राप्त करना चाहते हैं। इनके लिए भविष्य भूत के समान बन जाए। जिस वस्तु को ये किसी को देना चाहें, वह दी हुई के समान हो जाए तथा जिस वस्तु की इन्हें अभिलाषा हो, वह पहले ही इनके सामने प्रस्तुत हो जाए। प्रभु ! इनकी अभिलाषा है कि इनके शत्रु परास्त हों और इनके सभी दुःख दूर हो जाएँ। इन्हें दिक्पाल का पद प्राप्त हो और धन का प्रभुत्व मिले। साथ ही स्त्री तथा पुत्र का सुख भी सदा बना रहे । ”’
आकाशवाणी सुनकर कुबेर श्रद्धापूर्वक बोले – “प्रभु ! आप परम दयालु हैं। आपके दर्शनमात्र से भक्तजन के समस्त दु:ख नष्ट हो जाते हैं और उनकी समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण हो जाती हैं। दयानिधान ! इस दिव्य वाणी ने सत्य ही कहा है। आप मुझे यही वर प्रदान करें। “
“तथास्तु, वत्स ! तुम्हारी समस्त मनोकामनाएँ पूर्ण हों । तुम्हारे शत्रु तुम्हारा अहित न कर सकें। तुम्हारे समान ऐश्वर्य और वैभवशाली तीनों लोकों में कोई नहीं होगा।” यह कहकर भगवान् शिव वहाँ से अंतर्धान हो गए।
तभी से वह स्थान पौलस्त्य तीर्थ, धनद तीर्थ और वैश्रवस तीर्थ – इन तीन नामों से प्रसिद्ध हुआ। यह तीर्थ समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाला है।
