मानवीय संवेदना के बहुत रूप है। मुहम्मद साहब का समूचा जीवन उसकी व्याख्या है। वह क्षमा को भी एक महत्वपूर्ण मानवीय गुण मानते थे। किसी ने उनसे पूछा था, “अपने बन्दों में आप किसे सबसे ज्यादा इज्जत देंगे।”
मुहम्मद साहब का उत्तर था, “उसे, जो कसूरवार पर काबू पाने के बाद भी उसे माफ कर दे।”
एक बार एक अबूबकर (जो बाद में इस्लाम धर्म के पहले खलीफा हुए) के पास बैठे थे। एक व्यक्ति वहाँ आया और अबूबकर को गाली देने लगा। वह शान्ति से सुनते रहे, लेकिन जब वह व्यक्ति शिष्टता की सभी सीमाओं को पार कर गया तो अबूबकर के सब्र का प्याला भी छलक पड़ा। वह जवाब में बोल उठे। उसी क्षण मुहम्मद साहब वहाँ से उठकर चले गये।
बाद में अबूबकर ने उनके चले जाने का कारण पूछा तो वे बोले, “जब तक तुम चुप थे अल्लाहताला का एक फरिश्ता तुम्हारे साथ था। जब तुम बोलने लगे तो वह चला गया।”
काश! हम इन प्रतीक कथाओं का अर्थ समझ सकें और उसे जी सकें। अन्यथा गुणगान एक व्यवसाय है, जो दोनों पक्षों को धोखा देने में ही कृतार्थ होता है।
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