nyaay by munshi premchand
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हजरत मुहम्मद को इलहाम हुए थोड़े ही दिन हुए थे। दस-पाँच पड़ोसियों तथा निकट संबंधियों के सिवा और कोई उनके दीन पर ईमान न लाया था, यहाँ तक कि उनकी लड़की जैनब और दामाद अबुलआस भी, जिनका विवाह इलहाम से पहले ही हो चुका था, अभी तक दीक्षित न हुए थे। जैनब कई बार अपने मैके गयी थी और अपने पूज्य पिता की ज्ञानमय वाणी सुन चुकी थी। वह दिल से इस्लाम पर ईमान ला चुकी थी, लेकिन अबुलआस धार्मिक मनोवृत्ति का आदमी न था। वह कुशल व्यापारी था। मक्के के खजूर, मेवे आदि जिसे लेकर बंदरगाहों को चालान किया करता था। बहुत ही ईमानदार, लेन-देन का खरा, मेहनती आदमी था, जिसे इहलोक से फुरसत न थी कि परलोक की फिक्र करे।

जैनब के सामने कठिन समस्या थी। आत्मा धर्म की ओर थी, हृदय पति की ओर। न धर्म को छोड़ सकती थी, न पति को । उसके घर के सभी आदमी मूर्तिपूजक थे। इस नये सम्प्रदाय से सारे नगर में हलचल मची हुई थी। जैनब सबसे अपनी लगन को छिपाती, यहाँ तक कि पति से भी न कह सकती थी। वे धार्मिक सहिष्णुता के दिन न थे, बात-बात पर खून की नदी बह जाती थी, खानदान-के खानदान मिट जाते थे। उन दिनों अरब की वीरता पारस्परिक कलह में प्रकट होती थी। राजनीतिक संगठन का जमाना न था। खून का बदला खून, धन-हानि का बदला खून, अपमान का बदला खून। मानव-रक्त ही से सभी झगड़ों का निबटारा होता था। ऐसी अवस्था में अपने धर्मानुराग को प्रकट करना अबुलआस के शक्तिशाली परिवार और मुहम्मद तथा उनके इने-गिने अनुयायियों में देवासुरों का संग्राम छेड़ना था। उधर प्रेम का बंधन पैरों को जकड़े हुए था। नये धर्म में दीक्षित होना अपने प्राणप्रिय पति से सदा के लिए बिछुड़ जाना था। कुरैश-जाति के लोग ऐसे मिश्रित विवाहों को परिवार के लिए कलंक समझते थे। माया और धर्म की दुविधा में पड़ी हुई जैनब कुढ़ती रहती थी।

धर्म का अनुराग एक दुर्बल वस्तु है, किन्तु जब उसका वेग होता है, तो हृदय के रोके नहीं रुकता। दोपहर का समय था, धूप इतनी तेज थी कि उसकी ओर ताकते आँखों से चिनगारियां निकलती थीं। हजरत मुहम्मद चिन्ता में डूबे हुए बैठे थे। निराशा चारों ओर अन्धकार के रूप में दिखाई देती थी। खुदैजा भी सिर झुकाए पास ही बैठी हुई एक फटा कुरता सी रही थी। धन-सम्पत्ति- सब कुछ इस लगन की भेंट हो चुकी थी। शत्रुओं का दुराग्रह दिनोंदिन बढ़ता जाता था। उनके मतानुयायियों को भांति-भांति की यंत्रणाएँ दी जा रही थी। स्वयं हजरत को घर से निकलना मुश्किल था। यह खौफ होता था कि कहीं लोग उन पर ईंट-पत्थर न फेंकने लगें। खबर आती थी, आज फलां मुस्लिम का घर लूट गया, आज फलां को लोगों ने आहत किया। हजरत ये खबरें सुन-सुनकर विकल हो जाते थे और बार-बार खुदा से धैर्य और क्षमा की याचना करते थे।

हजरत ने फरमाया- ‘मुझे ये लोग अब यहाँ न रहने देंगे। मैं खुद सब कुछ झेल सकता हूँ लेकिन अपने दोस्तों की तकलीफ नहीं देखी जाती।’

खुदैजा- ‘हमारे चले जाने से इन बेचारों की और भी कोई शरण न रहेगी। अभी कम-से-कम तुम्हारे पास आकर रो तो लेते हैं। मुसीबत में रोने का सहारा ही बहुत होता है।’

हजरत- ‘तो मैं अकेले थोड़े ही जाना चाहता हूँ। मैं सब दोस्तों को साथ लेकर जाने का इरादा रखता हूँ। अभी हम यहाँ बिखरे हुए हैं, कोई किसी की मदद को नहीं पहुँच सकता। हम सब एक ही जगह, एक कुटुम्ब की तरह रहेंगे, तो किसी को हमारे ऊपर हमला करने का साहस न होगा। हम अपनी मिली हुई शक्ति से बालू का ढेर तो हो ही सकते हैं, जिस पर चढ़ने की किसी को हिम्मत न होगी।’

सहसा जैनब घर में दाखिल हुई। उसके साथ न कोई आदमी था, न आदमजात। मालूम होता था, कहीं से भागी चली आ रही है। खुदैजा ने उसे गले लगाकर पूछा- ‘क्या हुआ जैनब, खैरियत तो है?’

जैनब ने अपने अन्तर-संग्राम की कथा कह सुनाई और पिता से दीक्षा की याचना की।

हजरत मुहम्मद आँखों में आँसू भरकर बोले- ‘बेटी, मेरे लिए इससे ज्यादा खुशी की कोई बात नहीं हो सकती, लेकिन जानता हूँ तुम्हारा क्या हाल होगा।’

जैनब- ‘या हजरत! खुदा की राह में सब कुछ त्याग देने का निश्चय कर लिया है। दुनिया के लिए अपनी नजात को नहीं खोना चाहती।’

हजरत- ‘जैनब, खुदा की राह में कांटे हैं।’

जैनब- ‘अब्बाजान, लगन को काँटों की परवाह नहीं होती।’

हजरत- ‘ससुराल से नाता टूट जाएगा।’

जैनब- ‘खुदा से तो नाता जुड़ जाएगा।’

हजरत- ‘और अबुलआस?’

जैनब की आँखों में आंसू डबडबा आए। क्षीण स्वर में बोली- ‘अब्बाजान, उन्होंने इतने दिनों मुझे बाँध रखा था, नहीं तो मैं कब की आपकी शरण आ चुकी होती। मैं जानती हूँ उनसे जुदा होकर मैं जिंदा न रहूँगी, और शायद उनसे भी मेरा वियोग न सहा जाए, पर मुझे विश्वास है कि यह किसी-न-किसी दिन जरूर खुदा पर ईमान लाएँगे और फिर मुझे उनकी सेवा का अवसर मिलेगा।’

हजरत- ‘बेटी, अबुलआस ईमानदार है, दयाशील है, सत्यवक्ता है, किन्तु उसका अहंकार शायद अंत तक उसे ईश्वर से विमुख रखे। वह तकदीर को नहीं मानता, रूह को नहीं मानता, स्वर्ग और नरक को नहीं मानता। कहता है, खुदा की जरूरत ही क्या है? हम उससे क्यों डरे। विवेक और बुद्धि की हिदायत हमारे लिए काफी है। ऐसा आदमी खुदा पर ईमान नहीं ला सकता। कुफ्र को तोड़ना आसान है, लेकिन जब यह दर्शन की सूरत पकड़ लेता है, तो उस पर किसी का जोर नहीं चलता।’

जैनब ने दृढ़ होकर कहा- ‘या हजरत, आत्मा का उपकार जिसमें हो, मुझे वही चाहिए। मैं किसी इनसान को अपने और खुदा के बीच में न आने दूँगी।’

हजरत ने कहा- ‘खुदा तुझ पर दया करे बेटी! तेरी बातों ने दिल खुश कर दिया।’

यह कहकर उन्होंने जैनब को गले लगा लिया।

दूसरे दिन जैनब को यथाविधि आम मस्जिद में कलमा पढ़ाया गया।

कुरैशियों ने जब यह खबर पायी, तो जल उठे। गजब खुदा का! इस्लाम ने तो बड़े-बड़े घरों पर भी हाथ साफ करना शुरू कर दिया। अगर यही हाल रहा, तो धीरे-धीरे उसकी शक्ति इतनी बढ़ जाएगी कि हमारे लिए उसका सामना करना कठिन हो जाएगा। अबुलआस के घर पर एक बड़ी मजलिस हुई।

अबूसिफियान ने, जो इस्लाम के दुश्मनों में सबसे प्रतिष्ठित मनुष्य था, अबुलआस से कहा- ‘तुम्हें अपनी बीवी को तलाक देना पड़ेगा।’

अबुलआस ने कहा- ‘हरगिज नहीं।’

अबूसिफियान- ‘तो क्या तुम भी मुसलमान हो जाओगे?’

अबुलआस- ‘हरगिज नहीं।’

अबूसिफियान- ‘तो उसे मुहम्मद ही के घर रहना पड़ेगा।’

अबुलआस- ‘हरगिज नहीं! आप लोग मुझे आज्ञा दीजिए कि उसे अपने घर लाऊँ।’

अबूसिफियान- ‘हरगिज नहीं।’

अबुलआस- ‘क्या यह नहीं हो सकता कि वह मेरे घर में रहकर इच्छानुसार खुदा की बंदगी करे?’

अबूसिफियान- ‘हरगिज नहीं।’

अबुलआस- ‘मेरी कौम मेरे साथ इतनी सहानुभूति भी न करेगी?’

अबूसिफियान- ‘हरगिज नहीं।’

अबुलआस- ‘तो फिर आप लोग मुझे समाज से पतित कर दीजिए। मुझे पतित होना मंजूर है। आप लोग और जो सजा चाहें दे, वह सब मंजूर है। मगर मैं अपनी बीवी को नहीं छोड़ सकता। मैं किसी की धार्मिक स्वाधीनता का अपहरण नहीं करना चाहता, और वह भी अपनी बीवी की।’

अबूसिफियान- ‘कुरैश में क्या और लड़कियाँ नहीं हैं?’