kriya karm
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भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

आज मौसम कुछ ठीक है। हवा भले ही धीमे चल रही है पर कुछ तो सुकून है, कल तो मौसम कुछ ज्यादा ही गरम था, उसने मन ही मन में सोचा । आज सुबह वो जल्दी ही टहलने पार्क में आ गया था। उम्र के इस दौर में अब टहलना एक अनिवार्य दिनचर्या बन गई थी। अभी सुबह के टहलिए कम ही आए थे उसके अपने साथियों में भी कोई दिखाई नहीं दे रहा था।

अक्सर ही सुबह टहलते समय जो एक घंटा वह निकालता है उसका अपना व्यक्तिगत होता है, वह अपने कुछ पुराने साथियों के साथ फिर से अपने पुराने दिनों में चला जाता है। सच कहूँ तो उसे पार्क से वापस लौट कर दिन भर के लिए ऊर्जा मिल जाती है। पर इधर तीन चार दिनों से वह अकेला ही टहलने आ रहा है न तो यादव दिखाई दे रहा है और न ही शर्मा और वर्माजी तो एकाध हफ्ते से ही लापता हैं।

अचानक उसे अपने ऊपर बहुत गुस्सा आया, हो सकता है कि इन तीनों की तबीयत खराब हो और एक वह है जो उनके घर न जा पाया, जबकि यादव और वो तो एक ही सोसाइटी में रहते हैं माना कि शर्मा की सोसाइटी थोड़ा दूर है पर इतना दूर भी नहीं कि जाया न जा सके, वर्मा जी से चलो एक दूसरा सम्बंध था सुबह के सैलानी वाला। सबकी छोड़ो यादव के घर भी नहीं गया जबकि एक ही सोसाइटी में फ्लैट लेने का मकसद ही यही था कि जरूरत पड़ने पर एक दूसरे के पास आया-जाया जा सके। क्या किया जाए महानगरीय जिंदगी की यही त्रासदी है, हम सोचते बहत हैं पर कर कितना पाते हैं। और फिर जिंदगी में पाने की हवस इतनी ज्यादा है कि आप सब कुछ तो पा जाते हैं भौतिक रूप में, पर उसको सच्चे मायनों मे भोगता कौन है? इतना सब सोचते सोचते उसने पार्क का लगभग एक चक्कर तो पूरा कर लिया पर उसकी निगाहें हर आने वाले लोगों पर थी।

यादव और शर्मा उसके कॉलेज के दिनों के दोस्त थे और किस्मत से सब इस शहर में एक-एक कर टकराए थे और अब तो लगभग पड़ोसी भी। शर्मा एक बैंक में मैनेजर था और यादव तो उसकी ही सेवा में था, उससे एक साल बाद ज्वाइन किया था और जब मिले तो कसम खाई थी कि अब साथ-साथ ही रहना है, स्टूडेन्ट लाइफ की तरह । वर्मा जी उसके सोसाइटी से थोड़ा दूर अपनी कोठी में रहते हैं। अच्छे खाते पीते घर से हैं, अभिजात्य वर्ग की बनावट उनके चाल-ढाल में झलकती रहती है। उनसे जान-पहचान इसी पार्क में टहलते समय हुई और अब वो भी उनके गैंग के नियमित सदस्य हैं।

अचानक उसे लगा कि यादव आ रहा है (दरअसल सुबह टहलने जाते समय वह चश्मा नहीं लगाता इसलिए दूर का साफ-साफ नहीं दिखता)। हाँ हाँ वही तो है चाल तो यादव जैसी ही है, वह लपक कर उसी दिशा में बढ़ गया। ऐसे लगा बहुत साल हो गए हों जैसे एक दूसरे को देखे, यही होता है शायद… जो आपकी जिंदगी का हिस्सा होता है वह आदत भी बन जाता है… जैसे अलसुबह यदि बीवी चाय की प्याली के साथ न दिखाई दे तो लगता है सुबह हुई ही नहीं। वो और उसके साथ चाय की प्याली भी तो एक आदत ही बन गए हैं अब…. |

कहाँ गायब हो गए थे यार, लगभग चिल्लाते हुए उसने यादव की तरफ सवाल उछाल दिया। जानते हो मैं कल तुम्हारे घर आने वाला था पर… वो चुप हो गया अब झूठ भी बोलने लगा है… वह उसने मन ही मन सोचा। फिर यादव के हाथ को हल्के से दबाते हुये बोला सच कहूँ आज ही तुम्हारे घर जाने का विचार आया डर लगा कहीं तुम बीमार तो नही। खैर! तुमने बताया नहीं अचानक बिना सूचना के कहाँ गायब हो गए थे..?

आदतन मसखरी करने वाला यदि संजीदा दिखे तो बात अखरने वाली लगती है। यादव का पार्क में आना मतलब चिड़ियों का पेड़ से उड़ जाना। सचमुच! इतना लाउड है वह। कई बार तो वह कह ही देता था यार कुछ बचपना छोड़ दो आने वाली पीढ़ियों के लिए | तो हर बार हंस कर कहता कि हमारे बुजुर्गों ने हमारे लिए क्या छोड़ा? और हाँ यार अरुण! तुमने छोड़ी तो थी न सीट उन दोनों के लिए (और यह पहली बार नहीं था हर बार का उसका डायलॉग था, उसका अपना अलग ही फलसफा था किसी ने मेरे लिये कुछ छोड़ा है क्या? कि मुझसे कोई उम्मीद रखता है… | सब अपनी जिंदगी जी लिये और चले आते हैं हमें समझाने हुँह!)… फिर ठठा कर हंस पड़ता था वह… सचमुच आस पास कि चिड़ियाँ, जो गलती से आलस कर बैठी रहती थीं घोसले मे चिंहुक कर उड़ पड़ती थी आसमान में दाना-पानी की तलाश में…|

वो भी क्या दिन थे…!

बात उन दिनों की है जब दोनों नौकरी पाने की योग्यता की पढ़ाई खत्म कर चुके थे और नौकरी की तलाश में भटकना चालू हो चुका था। बस मन को बहलाने के लिए रिसर्च में दाखिला ले रखा था। चूंकि दोनों ही अरुण थे एक अरुण उपाध्याय और दूजा अरुण यादव इसलिए फॉर्म भी साथ-साथ भरते थे और परीक्षाएँ भी साथ साथ । तो साहब! ऐसे ही एक दिन बेरोजगार लड़कों के झुंड के साथ वो और यादव भी चल पड़े इम्तहान के लिए लखनऊ। लौटते समय यादव ने किसी तरह ट्रेन में जगह बना ली। वो बैठे ही थे कि हांफते हुए दो बुजुर्ग राम-राम करते चढ़े। उसे दया आ गयी (या फिर परलोक सुधारने की इच्छा, या फिर ये कि कुछ पुण्य करने से नौकरी मिल जाय) वह खड़ा हो गया और यादव को भी लगभग खींचते हुए खड़ा कर दिया उन बुजुर्गों के लिए | वो दोनों बैठते ही लगे लड़कों की बुराई करने।

क्या जमाना आ गया है भाई, इन लड़कों मे तो जरा भी तमीज नहीं, बड़े बुजुर्ग खड़े हैं कोई फर्क ही नहीं।

हाँ पता नहीं कहाँ से आ गये भरभरा के इतने सारे, भिनभिना रहे हैं मक्खियों की तरह। दूसरे बुढ़ऊ ने अपनी राय जाहिर की।

यादव तमतमा गया, एक तो सीट दी ऊपर से ये जुल्म | पता नहीं क्या उसके दिमाग में आया कि अचानक बोल पड़ा, चचा एक मिनट जरा उठिये।

क्या हुआ बेटा? पहिले वाले बुजुर्ग बोले

कुछ नहीं बस रुमाल ढूँढ़ना है

वो जैसे खड़े हुए वह लपक कर बैठ गया और इधर-उधर कुछ ढूँढ़ने की नौटंकी करने लगा। लगता है चचा आपकी तरफ गिरा है दूसरे वाले को लगभग धक्का देते हुए उठा दिया। आ बे अरुण बैठ। उसे सीट पर खींच लिया यादव ने!

अरे ये क्या यार?

कुछ नहीं, सीट पाने के बाद ज्यादा ज्ञान आ ही जाता है यार। हां तो चचा अब बताये असली बत्तमीज कौन है? जानते हैं? नहीं न! तो आज बताता हूँ, आप की जनरेशन के लोग। धकापेल पैदा कर दिये और फिर जब नहीं संभला तो भेज दिया दुनिया में जाओ मरो…. | जब हम मर रहे हैं अपने तरीके से तो ये आराम से रह भी नहीं सकते … उंगली करने की आदत जो ठहरी।

बूढ़ों की दशा देखने लायक थी उस समय। पूरे बोगी में ठहाका गूंजा सो अलग।

तब से जब भी विरासत की बात छिड़ती, यादव इसी किस्से को छेड़ देता। शायद इन्हीं यादों के सहारे ही हँस लिया जाए वरना बाकी तो सब बेमानी है। पर आज यादव कुछ अजीब सा लग रहा था, इस तरह देखने की आदत जो न थी उसे।

कुछ नहीं यार, दो दिन के लिये गांव चला गया था…

सब खैरियत? उसने पूछा

हूँ! एक संक्षिप्त सा उत्तर दिया

जब आप साथ-साथ हों और साथ-साथ न भी हो तो बड़ा अजीब सा लगता है…. | दोनों थोड़ी दूर साथ-साथ चलते रहे, साया की तरह।

अरे यारों, दोनों बिलकुल चुप हैं क्या बात है? कुछ हुआ क्या? उसने पलट कर देखा वर्माजी और शर्मा तेजी-तेजी से कदम बढ़ाते चले आ रहे थे।

पता नहीं, आज अपना शेर चुप-चुप है। उसने यादव की तरफ देखते हुए कहा- और तुम दोनों भी तो तीन दिन से गायब थे कहाँ थे भाई।

मैं ऑफिस के काम से शहर के बाहर चला गया था। शर्मा ने कहा।

मैं भी जरा घूमने निकल गया था जयपुर की तरफ । वर्मा जी बोले।

वो देख रहा था कि यादव की रुचि न तो वर्माजी में है, न तो शर्मा में.. पता नहीं कहाँ और क्या सोच रहा है।

चलो आज बैठा जाए, इतने दिनों बाद मिले हैं कुछ दुखः-सुख हो जाए।

अरे यादव कुछ बोलो भी यार, इस तरह तुम्हारी चुप्पी अजीब सी लगती है।

यार बात ही कछ ऐसी है। याद है वो जो खबर आई थी न पिछले हप्ते, बुजुर्ग की लाश सड़ गई घर में और पड़ोसियों को खबर ही नहीं।

हाँ तो? ऐसा तो होता ही रहता है, बड़े-बड़े शहरों में, किसके पास फुर्सत है इतनी? तुम यही देखो न तीन दिन से तुम सब नहीं आ रहे किससे मिलने गया मैं बताओ? उसने पलट कर पूछ लिया।

पर मैं तो परेशान हो गया कि मेरा क्या होगा?

तो इसलिये तुम नहीं आ रहे थे अरे घर ही आ गये होते गांव जाने की क्या जरूरत थी, मिल कर सोचते इस समस्या का हल।

तुम क्या सोचोगे अरुण तुम्हारे तो दो दो बेटे हैं, तुम्हें किस बात की चिंता भाई… मेरे तो आद औलाद के नाम पे ले दे के एक बेटी। वो अपने घर, फिर हम बूढ़े बुढ़िया का क्या होगा, इसलिये सोचा कि गांव चला जाए और रिश्तों पर जमीं काई को साफ कर लिया जाए। कौन जाने कब कौन साथ दे जाय…. एक सांस में यादव बोल गया।

उसके तो समझ में ही नहीं आया कि तुरंत क्या जवाब दे। पर शर्मा खिलखिला के हँस पड़ा । न जाने क्यों उसका हँसना उसे कुछ-कुछ भला सा लगा (शायद इसलिये कि माहौल अनावश्यक बोझिल हो चला था और इससे कुछ राहत मिलती..) । और कुछ असर हुआ भी पर यादव खीज गया…

…मैं भविष्य की चिंता में मरा जा रहा हूं और तुम्हें मसखरी चढ़ी है शर्मा, यादव बोला कुछ ठहर कर आगे बोला ये मजाक नहीं है शर्मा…

नही यार, ऐसा कुछ नहीं। बस कुछ याद आ गया था इसलिये हँसी आ गई .. शर्मा बोला

ऐसी भी कौन सी बात? वर्मा जी को भी रस आने लगा

वही क्रिया करम वाली बात….

क्रिया करम? अबकी वो चौंका

हां यार! शर्मा बोला।

दरअसल मेरे बाबू जी भी यादव की तरह भविष्य को लेके चिंतित रहते थे। कहने को तो हम तीन भाई हैं पर सब अलग-अलग शहरों में बसे हुए हैं। उनकों यही चिंता खाये जाती थी कि उनके जाने के बाद उनका क्रिया करम ठीक ढंग से हो पायेगा कि नहीं। जब मां चली गई तो हम भाइयों ने उनके संस्कार विधिवत किये पर पता नहीं क्या बाबू जी को हमेशा खटकता रहा…।

क्या खटक रहा फिर अबकी वर्मा जी बोले। दरअसल वो चाहते थे कि विधिवत वृषोत्सर्ग उनका हो और उस पर निश्चिंत होना चाहते थे….

ये वृषोत्सर्ग? अब ये क्या है भाई…. | वर्मा जी के लिये ये एक नई जानकारी थी।

अरे एक तरह का कर्मकांड है, बाबूजी अक्सर अपने पुराने दिनों को याद कर सुनाते थे कि पूरे इलाके में उन्होंने ही अपने पिता का ये संस्कार किया था जिससे उनकी माता जी का भी तर्पण हो गया और हमसे यही उम्मीद थी… शर्मा बोला

दरअसल महाभारत के अनुशासन पर्व में वृषोत्सर्ग की चर्चा की गई है ऐसी मान्यता बताई गयी है कि कुल और वंश परम्परा की वृद्धि श्राद्ध का ही फल है। पिण्डदान करने वाले को यह फल सलभ होता है। और जो श्रद्धापूर्वक पितरों का श्राद्ध करता है, वह उनके ऋण से छुटकारा पा जाता है। उसने वर्मा जी को स्पष्ट किया।

फिर समस्या क्या थी… यादव बोला

कुछ खास नहीं यार बस इस बात का विश्वास न दिला पाये अपने पिता को हम सारे भाई कि वह निश्चिंत रहें… सोचो अपने जीवित पिता को हम कैसे कह सकते हैं कि उनके न रहने पर हम धूमधाम से वृषोत्सर्ग करेंगे। कितना क्रूर लगता है यह….. शर्मा की आवाज भर्रा गई थी।

माँ के जाने के चार साल बाद तक बाबूजी रहे पर माफ न कर पाये हम सबको खासकर मुझे। उनके चले जाने के बाद काफी धूमधाम से हमने उनका संस्कार किया और वृषोत्सर्ग भी किया लम्बा चौड़ा खर्च भी… | आसपास के कई गावों में जय-जय हुई पर एक हुक सी तो अब भी है कि बाबूजी तो नहीं हैं न… देखने के लिये अब? मैंने क्या किया क्या नहीं किया, उन्हें क्या पता… बस मन को है कि कर दिया… | इसीलिये जब यादव बोल रहा था तो हँसी आ गई कि जब हम देखने के लिये रहेंगे ही नहीं तो परेशान हूँ क्योंकर? शर्मा हँस रहा था कि रो रहा था निर्णय करना जरा मुश्किल था अब …..

अरे यादव जी आप भी, इतनी छोटी बात को इतना लंबा खींच दिये क्या नहीं सम्भव है इस शहर में अब? वर्माजी बोले… अभी देखियेगा इंश्योरेंस की तरह अंतिम संस्कार का भी कोई जुगाड़ निकल ही आयेगा। प्रिमियम जमा करते रहिये और चिंता मुक्त… |

वो तो वैसे भी रहा जा सकता है भाई, बिना गाँव गये और बच्चो माफ करना बेटों का मुँह देखे … उसने कहा

यादव ने अब उसकी तरफ प्रश्न वाचक दृष्टि डाली।

उसने अपनी बात आगे बढ़ायी… सच है कि मेरे दो बेटे हैं… पर वो अपनी दुनिया में मस्त हैं। कभी बीवी का बहुत मन करता है तो स्काइप पे बातें हो जाती हैं और उसके पहले फोन पर मिन्नत करनी पड़ती है अकेले में, जबकि दोनों साहेबजादे इतने व्यस्त रहते हैं कि… अपनी माँ से मिलने और बात करने की फुरसत नहीं, उसका दर्द छलक गया । और फिर हम दोनों एक दूसरे के लिये…. एक आदत की तरह लड़ेंगे भी और चाहेंगे भी… अब एक सांस ली उसने।

…और यादव तुम्हें तो पता ही है गांव से तो कोई रिश्ता नाता रहा नहीं. .. जब तब नहीं गये तो अब इस उम्र में क्या जाना । शर्मा ने बहुत वाजिब बात कही जिस चीज़ को हम देखने के लिये रहेंगे ही नहीं उसके लिये इतना हकलान क्यों भाई?

और वर्मा जी आपकी बात में दम तो है… यकीनन खुल सकती हैं ऐसी कंपनियां या फिर कौन जाने खुली ही हों जब से पैदा हुए तब से कोई न कोई डर या तो हमें थमा दिया जाता है या फिर हम खुद ही ओढ़ लेते हैं और उसी डर को ढोते रहते हैं ताउम्र…. | सवाल सुरक्षा के नाम पर होने वाले डर का ही तो है और सारे के सारे इंश्योरेंस उसी की देन हैं। पर शर्मा तुम्हारी बात में वजन ज्यादा है यार! जब हम रहेंगे ही नहीं उस क्षण तो उसको बारे में सोचें ही क्यों?

उसने फिर एक गहरी साँस ली…. फिर धीरे से कहा सच बताऊँ मैंने कभी इतने दूर की सोची ही नहीं जब तक हम दोनों है और फिर यदि अकेले ही रह गये तो क्या होगा अधिक से अधिक सड़ ही जायेंगे न अपने फ्लैट में। अरे जब शरीर ही नहीं रहा तो उसके बारे में क्या परेशान होना…. मस्त रहिये यादव जी… | और हाँ क्रिया करम के लिये परेशान मत होना लाख नालायक हो हमारी पुलिस पर वो ये काम तो कर ही देती है….

कह कर जोरदार ठहाका लगाया उसने… चिहुंक कर दो तीन चिड़ियों ने अपने नीड से उडान भर दी खले आसमान में… उसकी आँखों के किसी कोने में दो बूंद टपक पड़े थे शर्मा और वर्माजी भी हँस पड़े… यादव का मुँह खुला हुआ था…. वो कभी उसके चेहरे की तरफ देखता तो कभी उन बूंदों की तरफ जो बाकी दोनों को नजर नहीं आये…

यादव का मुँह अब भी खुला हुआ था…. ।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’