Hindi Kahani: अरे कोसी! आज तो बहुत जल्दी आ गई”? “बस दीदी घर में कुछ मन नहीं लग रहा था तो सोचा जल्दी चली जाऊं काम भी हो जाएगा आपका और बस ऐसे ही…” कोसी ने धीरे से जवाब दिया। “अच्छा चल तू आ गई है तो कर ले फटाफट।” कोसी बहुत अच्छे से घर की सफ़ाई करती है और फिर सब सामान पोंछकर जगह पर रख देती है। यह उसकी आदत थी। उसकी मालकिन अंजलि बड़े ध्यान से देखती थी कि और कामवालियों की तरह उल्टा सीधा काम नहीं करती। ऐसा लगता था कि कोसी को खुद बड़े करीने से साफ़ सफ़ाई का शौक था। जब तक कोसी बर्तन मांज कर निपटती तब तक बहुत तेज़ बारिश शुरू हो गई थी। अंजलि ने कहा, “तू अब कहां जाएगी। यहीं बैठ जा थोड़ी देर, बारिश बहुत तेज़ है।” कोसी वहीं बैठ जाती है कमरे में। “मैं एक काम करती हूं गरमा गरम चाय बनाकर लाती हूं।” अंजलि रसोई की तरफ़ जाते हुए कहती है। तभी कोसी उठते उठते बोलती है, “नहीं दीदी मैं बना दूंगी”। अंजलि बोली, “ अरे बैठ। आज मैं तेरे को गरमा गरम चाय पिलाती हूं”। दोनों बैठकर चाय पी रही थीं तो अंजलि पूछती है, “ एक बात बता कोसी, देखने से बोलने से तेरी बातों से तो तू अच्छे घर की लगती है।” कोसी कुछ नहीं कहती और चुप होकर बैठ जाती है। “ऐसा लगता है बहुत कुछ है तेरे मन में। तू कभी किसी बात के लिए कुछ कहती भी नहीं है। क्या बात है?” तभी पीछे से अंजलि की सास बड़बड़ाती हुई निकलती है, “तुम तो ऐसे पूछ रही हो जैसे पता नहीं बड़े राजा महाराजाओं के, गाड़ी बंगले वाले घर की है ये कोसी। कौन से बड़े घर की बेटी है यह।” अंजलि कुछ नहीं बोलती और कोसी की तरफ देखकर कहती है, “बुरा मत मानना कोसी।”
कोसी कुछ नहीं कहती और दोनों चुपचाप चाय पीने लगते हैं।
थोड़ी देर बाद बारिश रूकती है और कोसी अंजलि के घर से निकलकर अपने घर जाने लगती है। जब वह घर की तरफ़ जा रही थी तो चलते-चलते उसे ऐसा लग रहा था जैसे वह किसी पुराने शहर की गलियों में चल रही है। गली के दूसरी तरफ़ उसको एक बड़ा सा आलीशान बंगला दिखता है जिसके बाहर दो गाड़ियां खड़ी हैं। दो दरबान खड़े हैं, अंदर नौकरों की फौज है; खाना बनाने वाली, सफ़ाई करने वाले और माली। बंगले के दरवाज़े पर एक पन्द्रह साल की लड़की भी दिखती है उसे।
कोसी अपने घर तक पहुंचते पहुंचते उन गलियों के रास्ते अपने बीते दिन में पहुंच जाती है ..…
बंगले की ऊंची सीढ़ियों से उतरती कोसी खुद को देखती है। उसने महंगी फ़्रॉक पहन रखी थी। नीचे ऊंची हील की महंगी सैंडल थी। कानों और हाथों में हीरे के ज़ेवर चमक रहे थे। “बलराम भैया बड़ी वाली कार निकालिए”। “जी छोटी मेमसाब” बलराम अदब से बोलता है। तभी पीछे से मां की आवाज़ आती है, “कौशल अब कहां चल दी?” कौशल उत्साह में जवाब देती है, “अरे मां! मैंने कहा था ना मेरी सहेली के घर में उसके जन्मदिन की पार्टी है मैं वही जा रही हूं।” “अच्छा ठीक है लेकिन उसका तोहफ़ा तो ले जा”…. उसकी मम्मी मुस्कुराते हुए अपने हाथ में बड़ा सा तोहफ़ा लेकर उसको देती है। कौशल गाड़ी में बैठने लगती है और दरबान उसके लिए दरवाज़ा खोलता है।
शाम को उसके पिताजी बड़े भाई के साथ मिल से वापस आते हैं। कौशल के पिता की बहुत बड़ी कपड़ों की मिल है। उनके आने के बाद पूरा परिवार एक साथ खाने की मेज़ पर बैठता है। दो नौकर सबको गरमा गरम खाना परोसते हैं। खाना खाने के बाद कौशल अपने कमरे में जाती है। उसका बहुत बड़ा आलीशान कमरा है जिसमें बहुत बड़ा पलंग है। कपड़ों और जूते चप्पलों के लिए अलग एक कमरे में अलमारी है। तभी कौशल की मां को उसके चिल्लाने की आवाज़ जाती है, “ क्या हुआ क्यों चिल्ला रही हो?” “मेरी फूलों वाली चप्पल कहां गई?” उसकी मां कामवाली को कमरे में बुलाती हैं। उनके पूछने पर वो बताती है कि उसने चप्पल धो कर छत पर रख दी है। कौशल की मां हंसते हुए कहती है, “अपनी छोटी मेमसाब से पूछ कर काम किया करो। पूरा घर सर पर उठा लेती है ज़रा सी बात पर।”
एक दिन उसकी मां उससे कहती है, “पिताजी ने एक बड़ा जश्न रखा है जिसमें शहर के बड़े-बड़े लोग आएंगे। मैंने तुम्हारे लिए ज़री के काम का कपड़ा खरीद लिया है। मास्टर जी आएंगे उनसे अपने नाप का अच्छा सा लहंगा चुनरी बनवा लेना और हां आज शाम को उसके साथ पहनने के लिए तुम्हारे लिए ज़ेवरात खरीदने चलना है तैयार रहना।”
शाम को कौशल अपनी मां के साथ जौहरी की दुकान पर जाती है। दुकानदार हाथ जोड़कर उसकी मां को नमस्कार करता है और अपनी दुकान के नौकर से कहता है, “ अरे शंकर देखो कुमार साहब के घर से आए हैं। इनको ज़ेवर दिखाओ। मैं आपके लिए चाय पानी भेजता हूं।” कौशल अपनी मां के साथ दुनिया भर के सेट देखती है और तब आखिरकार उसको सबसे महंगा सेट पसंद आता है। जश्न में पूरे शहर को देख कौशल अपनी शान में थी यह सोचकर कि वह इतने बड़े घर की बेटी है।
कौशल के परिवार की संपन्न खुशियों को उस दिन नज़र लग गई जिस दिन बंटवारे की खबर सुनने में आई। उसके पिता अपने जानकार लोगों से बात करते हैं और अगले दिन बाद वहां से निकलने का कार्यक्रम बनाते हैं। कौशल के पिता उसकी मां से कहते हैं, “तुम तैयारी करो।” उसकी मां बेचैन होती है और उनकी आंखों में आंसू आ जाते हैं। पिता उन्हें समझाते हैं, “ अरे ये तो एक खबर सी उड़ी है और बस ऐतिहात के तौर से हमें बस कुछ दिन बार्डर के पास अपने दोस्त के घर रहना होगा और फ़िर वापस आ जाएंगे।”
उसकी मां आंखों में आंसू भर के जो सामान ज़रूरी था वह रख लेती है। कौशल भी अपना पसंदीदा सामान रखती है लेकिन उसके लिए मानो तो वह किसी छुट्टी पर अपने चाचा की यहां रहने जा रही थी। सब लोग गाड़ी में बैठकर पापा के दोस्त के घर चले जाते हैं। अगले दिन खबर मिलती है के आतंकियों ने उनके घर में आग लगा दी और कौशल की पसंदीदा बड़ी गाड़ी भी काफ़ी हद तक जल गई है। उसके मां पिता बहुत परेशान होते हैं लेकिन वह बच्चों से कुछ नहीं बताते।
एक दिन कौशल चाचा के साथ दूसरी गली में सामान लेने गए थी। तभी चाचा देखते हैं कि आतंकी सामने वाली गली से आ रहे हैं। बचने के डर से वह वहां पर खड़ी बस में यह सोचकर छिप जाते हैं कि जब आतंकी चले जाएंगे तब वो लोग घर चले जाएंगे। इससे पहले कि वह कुछ सोचें, बस चल देती है। आतंकियों के डर से वह कुछ कह नहीं पाते और बस चलती चली जाती है। बस दूसरे शहर में पहुंच जाती है। चाचा बहुत कोशिश करते हैं कि वापस घर पहुंच जाएं लेकिन हर जगह रास्ते बंद थे। उस समय हर घर में फ़ोन भी नहीं था कि वह किसी तरह से बात कर पाते।
इसी तरह से एक शहर से दूसरे शहर में कभी काम की तलाश में कभी किसी खतरे से बचने के लिए वह भागते रहते। जो काम मिलता वह करते, जो खाना मिलता वह खाते। यूं ही कब वक्त गुज़रता चला गया पता ही नहीं चला।
जब हालात थोड़े संभालने में आए और चाचा ने घर वालों को ढूंढने की कोशिश करी तो पता लगता है कि वहां कोई भी नहीं है। उनके घर में उन लोगों के साथ क्या हुआ किसी को भी नहीं पता, मार दिए गए या ज़िंदा है, और हैं तो कहां हैं। इसी तरह भटकते हुए वो लोग रामपुर शहर में आ जाते हैं। यहां कौशल के चाचा को एक कारखाने में नौकरी मिल जाती है। कौशल भी कोशिश करती कि उसे कोई काम मिल जाए जो घर चलाने में मदद हो सके लेकिन बुरा वक्त और लिखा था शायद। उसे या तो काम नहीं मिलता या लोग अच्छे नहीं मिलते। एक दिन किस्मत से उसे एक घर में बच्चों को पढ़ाने की नौकरी मिल जाती है। शरीफ़ लोग अच्छा घर और ठीक-ठाक पैसे। वह बच्चों को पढ़ाने लगती है और चाचा कारखाने में काम। किसी तरह उनका जीवन चल रहा था।
इसी तरह कईं साल गुज़र जाते हैं। वो लोग अब परिवार को ढूंढने की हिम्मत हार चुके थे। इधर चाचा की तबीयत कारखाने की घुटन और सीलन भरे माहौल में खराब होने लगती है और उधर जिन लोगों के बच्चों को कौशल पढ़ाती थी वह लोग सब बेचकर विदेश जाने लगते हैं। कौशल को परेशान देखकर मालकिन कहती हैं, “मेरी एक बहन के घर सफ़ाई, बर्तन और खाना बनाने वाली की ज़रूरत है। शरीफ़ लोग हैं, अगर तू चाहे तो वहां काम कर सकती है। ठीक-ठाक पैसे भी देंगे।” चाचा की बिगड़ती तबीयत की वजह से कौशल बात मान जाती है। कुछ दिनों बाद बीमारी के चलते चाचा गुज़र जाते हैं। कौशल उन्हीं मालकिन के घर के पास रहने लगती है और सारे घर का काम संभालने लगती है। अब वही घर उसका सब कुछ था।
जब कौशल अपने बीते दिनों से आज में वापिस आती है तब तक आसमान में चांद चमकने लगा था। आंखों के आंसू तो कब के सूख चुके थे। वह चुपचाप अपने घर की सीढ़ियों से उठती है और अंदर चली जाती है…. अगले दिन सुबह फिर से कोसी बनकर जाने की तैयारी करने।
