वर्कशाप में सम्पूर्ण भारत के विभिन्न क्षेत्रीय कार्यालयों से प्रतिनिधि चित्रकार पधारे हुए थे। भोपाल रीजन की तरफ से केन्द्रीय विद्यालय- 3 झांसी से डॉ. वर्मा को उक्त प्रशिक्षण हेतु भेजा गया था, उनकी क्षमताओं और योग्यता को ध्यान में रखकर उन्हें इस दस दिवसीय प्रशिक्षण की कमान सौंपी गयी थी। प्रशिक्षण का आज आठवां दिन था।

कार्यशाला डायरेक्टर से मैसेज मिलते ही वर्मा जी समाचार जानने के लिए एस.टी.डी. बूथ ही तरफ बढ़ गए। उन्होंने अपने परिवार से सम्पर्क किया… ‘‘हैलो …क्या हुआ ? सब ठीक तो हैं, कैसे फोन किया?” उधर से उनकी पत्नी फोन पर थीं। ……. वह बहुत घबराहट में फोन कर रही थीं। बात करते-करते रोने लगीं।………

‘‘अरे रो क्यों रही हो? बात तो बताओ, क्या हुआ ? मेरी मम्मी की तबियत बहुत सीरियस है अभी इलाहाबाद से भैया का फोन आया था, कह रहे थे, मां की तबीयत बहुत खराब है। वह आखिर सांसे ले रही है। अगर अंतिम दर्शन करना चाहती हो तो चली आओ।” अब बताओ मैं क्या करूं?” यहां बिटिया को चेचक निकली हुई हैं, बेटा शहर से बाहर ही है।

‘‘तुम्हीं बताओ मैं क्या करूं? वैसे एक दिन बाद मुझे आना ही है, अगर आज ही आना पड़े तो इन दस दिनों के एवज में अर्जित अवकाश भी नहीं मिलेगा।”

तुम छुट्टियों के चक्कर में नहीं पड़ो, वहां पर समस्या को बताकर फौरन वापस चले आओ। मैं आज ही इलाहाबाद जा रही हूं, बिटिया को अकेली छोड़ना पड़ रहा है, तुम सुबह तक हर हालत में घर पहुंच जाना।

‘‘अच्छा ठीक है तुम मां को देखने के लिए जाओ, शाम के समय ही गाड़ी एक मात्र ट्रेन है, रात का सफर है, जरा होशियारी से जाना, मैं भी आज ही रात की से निकलता हूं, सुबह तक नेहा बिटिया के पास पहुंच जाउंगा, उससे कहा चिन्ता न करे, डरे नहीं, मैं उसके पास पहुंच रहा हूं।”

फोन रख कर मैं भी अपने अधिकारियों से वस्तुस्थिति बताकर घर वापस लौटने की तैयारी करने लगा।…..शाम की ट्रेन से मैं अपने घर के लिए चल पड़ा। 

नीलिमा की मां की उम्र तो काफी थी, लेकिन छोटी कद काठी, और सधी हुई सात्विक दिनचर्या के कारण वह हमेशा स्वस्थ रहती थीं। फिर अचानक ऐसा क्या हुआ कि वह इस हालात में पहुंच गयीं। .. मन अतीत के पन्ने पलटने लगा।

उनके चार बेटे हैं, चारों स्वस्थ, सही सलामत। तीन बेटे वेल सेटेल्ड हैं। दो सरकारी उच्च पदों पर, एक इंजीनियर तथा एक गांव में रहकर खेती बारी संभालता है । नीलिमा बेटी है, जो अपनी मां के ही स्वभाव की है। 

घर गृहस्थी संभालने का पूरा बोझ अकेले दम उठाना इन मां- बेटी का शौक है। सुबह से शाम तक काम काज में  खटते रहना इन दोनों की ही आदत है। मां कौशल्या अपने चारों बेटों एवं इकलौती बेटी नीलिमा की परवरिश एवं पढ़ाई लिखाई के प्रति बचपन से ही सजग रही हैं। वह खुद अनपढ़ थीं तो क्या हुआ, उनके अनपढ़ पतिदेव पृथ्वी सिंह जो उनके साथ इस मुद्दे पर कंधा से कंधा मिला कर जो चले हैं।

चार बेटों में बड़े बेटे की शादी काफी पहले हो चुकी थी, उनके दो छोटी-छोटी बेटियां थी। संयुक्त परिवार में सारी जिम्मेदारी मां के कंधों पर ही थी। अपनी जिम्मेदारियाें के प्रति पूरी निष्ठा से लगे रहने के कारण कमर और पीठ के दर्द ने उन्हें परेशान करना शुरू कर दिया था।

धीरे-धीरे शेष तीनों बेटों एवं बेटी की शादियां हो गयीं । बेटी नीलिमा मेरे घर चली आयी और सर्विस वाले दो बेटे अपनी-अपनी पत्नियों को अपने साथ शहर ले गए। बड़े बेटे ने भी अपने बच्चों के भविष्य को देखते हुए अपना परिवार इलाहाबाद में शिफ्ट कर लिया।

जो बेटा गांव में रहता था, उसकी भी शादी हो गयी। वह पत्नी सहित मां के साथ गांव में ही रहते हैं। उनके भी छोटे-छोटे तीन बच्चे हो गए। मां की उम्र बढ़ रही थी। लेकिन बहुओं के आ जाने के बाद भी उनके कार्यों का बोझ कम नहीं हुआ था।

उनकी पीठ और कमर का दर्द बढ़ता गया। जब तकलीफ ज्यादा बढ़ जाती तो डा. के यहां से दर्द निवारक दवा दिला दी जाती जिससे उन्हें क्षणिक आराम जरूर मिल जाता।

त्योहारों में बेटे जब कभी गांव आते तो मां की इस तकलीफ पर अफसोस जाहिर करते, उन्हें कुछ और तरह की दवा दिला देते, हिदायतें देते, दो चार दिन साथ-साथ राजी खुशी से रहते और अपने परिवर समेत वापस चले जाते।

गांव में रहने वाला बेटा खेती के काम में इतना व्यस्त रहता कि कभी मां को किसी बड़े डाक्टर को दिखाने का समय नही निकाल पाता। हालांकि वह समय तो जरूर निकालते लेकिन चूंकि उन्हें बीमारी की गम्भीरता का अंदाजा नहीं था इसलिए वह आस-पास के डाक्टरों की दर्द निवारक दवाओं के सहारे गाड़ी खींचते रहे।

धीरे-धीरे दर्द असहनीय होता गया।……..कुछ समय बाद उनका मंझला बेटा जो डिग्री कालेज में लेक्चरार हैं, गांव आया। कुछ दिन रूकने पर मां की बीमारी पर थोड़ा गौर कर मां को अपने साथ इलाज के लिए ले जाने का फैसला करते हुए बोला……

‘‘मां चलो, कुछ दिन के लिए मेरे साथ चलो। तुम्हारा मन भी बहल जायेगा और वहां तुम्हारा चेकअप भी ठीक से हो जायेगा। बीमारी का पता लग जाने पर इलाज आसान हो जायेगा।”

‘‘अरे! बेटा तुम लोग भी बेवजह परेशान हाेंगे। मेरा क्या है, बुढ़ापे का शरीर है, एक न दिन तो दुनिया छोड़नी ही है, ये बीमारी भी साथ ही चली जायेगी, धीरे-धीरे सब कट जायेगा। वहां तुम्हारे बाल बच्चे भी परेशान होंगे, अभी तो उनके खेलने खाने के दिन हैं। ….मैं यहीं ठीक हूं, मेरा इलाज तो चल ही रहा है, तू मुझे बुढ़ापे के समय, यहीं अपनी चौखट पर ही रहने दे।”

‘‘वो सब तो ठीक है मां, लेकिन कुछ मेरा फर्ज भी तो बनता है फिर कौन सा सदैव के लिए जा रहा हूं? वहां चलकर अच्छे अस्पताल में तुम्हारा चेकअप हो जायेगा, अच्छी दवा दारू शुरू हो जायेगी। फिर जब तक तुम्हारा मन करे, वहां रहना फिर तुम्हें तुम्हारी इस प्यारी चौखट पर छोड़ जाउंगा।” ‘‘लेकिन बेटा”, यहां सब कैसे संभालेगा ? बहू के बच्चे भी छोटे-छोटे हैं, ये लोग परेशान हो जायेंगे।

‘‘मां तुम यहां की चिन्ता मत करो, हम सब संभाल लेंगे। आप निश्चिंत होकर साथ चली जाओ।” छोटी बहू ने निर्णय में मदद की।

अंततः सभी के आग्रह पर मां जी ने मंझले बेटे के साथ जाने के लिए हांमी भर ली। ‘‘ठीक है, जब सभी की यही मर्जी है तो जाना ही है।”

अपने कुछ कपड़ों को एक पॉलीथीन में रख, छोटे-छोटे नातियों को बड़े स्नेह और दुलार से चूमते, बहू को आशीर्वाद दे उसकी पीठ पर हाथ फेरते ठीक से रहने की हिदायत देते, कार मे बैठने के लिए चल दीं।

वह मुड़-मुड़ कर बार-बार अपने घर की ओर निहारतीं। उनकी आंखों में आंसू भरे हुए थे। अंततः कार के पास खड़े होकर फूट-फूट कर रोने लगीं। ……..उनके अन्तर्मन की व्यथा चेहरे पर झलक आयी थी। शायद उन्हें आभास हो रहा था, कि अब उन्हें यह चौखट देखने को नहीं मिलेगी। आज से 45 साल पहले इस घर में प्रवेश किया था। पूरी जिन्दगी इसको बनाने एवं बसाने में लगा दी। मेरी हर सांस में, हर धड़कन में इस आंगन की खूशबू समायी है। ये आज मुझसे छूटा जा रहा है। मैं अब इसे कभी नहीं देख पाऊंगी। …..बेटे की तरफ चेहरा करके बोली, ‘‘बेटा मैं ठीक हो जाऊंगी न? 

‘‘हां मां, तुम बिल्कुल ठीक हो जाओगी, मुझसे भरोसा रखो न यहां लोगोें की लापरवाही से तुम्हारी ऐसी दशा हो गयी है, अब देखो मैं कैसे तुम्हारी बीमारी को चुटकियों में ठीक करवाता हूं।” बेटे का आश्वासन सुन चेहरे पर फीकी सी मुस्कान तैर गयी ।‘‘ठीक है बेटा, इस बुढ़ापे में तुम बेटों का ही तो भरोसा है”, कहती हुई, आखिरी बार अपने घर को बूढ़ी नजरों से निहारती हुई वह कार में बैठ गयीं। सबको हाथ के इशारे से जल्दी ही लौट आने का भरोसा दिलाती हुई, सबकी दुलारी दादी मां, अपने प्रकाश बेटे के साथ धीरे-धीरे नजरों से ओझल हो गयी।

उनका 300 किलोमीटर लम्बा सफर, पहला-पहला था। वह भी कार से, स्पीड ब्रेकरों से लैस, कहीं चिकनी और कहीं उबड़-खाबड़ सड़कों को नापती हुई मारुति अपनी गति से आगे बढ़ती जा रही थी। लम्बे समय तक हिचकोले खाती कार से मां जी का दर्द और बढ़ गया।……कई बार बेटे को इशारा किया कि गाड़ी जरा धीरे से चलाए, लेकिन समय से पहुंच जाने की मजबूरी के चलते यह अधिक सम्भव नहीं हो पा रहा था। 

‘‘बेटा पेट में बहुत अधिक दर्द हो रहा है, अब बर्दाश्त नहीं होता”, वह कराहती हुई बोली।

‘‘लेकिन मां, थोड़ा बर्दाश्त, तो करना ही पड़ेगा, धीरज रखो, हम पहुंचने ही वाले हैं। ” थोड़ा हिम्मत रखो, घर पहुंचते ही सब ठीक हो जायेगा।”

मरती क्या न करती, किसी तरह आंखें मीचे असहनीय दर्द को बर्दाश्त करती रही बेचारी, कर भी क्या सकती थी?

घर पहुंचते ही उन्हें बिस्तर पर लिटा दिया गया। रात हो चुकी थी, बिना कुछ खाए, वह रात भर दर्द से तड़पती रहीं। दर्द निवारक दवाओं ने भी कुछ असर नहीं किया। ….बहू सुधा पास आकर थोड़ा बहुत हाल-चाल पूछपाछ कर वापस अपने कमरे में चली गयी…..शायद उन्हें मां के इस तरह आ जाने से अपेक्षित खुशी नहीं हुई थी। सुधा ने प्रकाश से पूछा…..

‘‘क्यों जी, माता जी को यहां क्यों ले आए? यहां इनकी देखभाल कौन करेगा? हम दोनों तो ड्यूटी चले जाते हैं, इनके पास कौन रहेगा? फालतू का सिर दर्द पाल लिया। अरे गांव में रहकर भी तो इलाज हो सकता था, अभी तक हो भी रहा था, आपको तो उल्टे सीधे काम करने में पता नहीं क्या मजा आता है?

‘‘सुधा! तुम भी खाम खां परेशान होती हो। मां को पीठ और कमर में काफी दर्द रहता है, कल चेकअप करवा देंगे, अच्छी दवाएं शुरू हो जायेगी तो कुछ दिनों में स्वस्थ हो जायेंगी फिर गांव छोड़ आयेंगे। तुम बेवजह परेशान हो रही हो।” सुधा बिना बोले सोने के लिए चली गयी। सुबह हास्पिटल ले जाकर मां का चेकअप कराया गया।……..रिर्पोट में मां के लीवर में कैंसर निकला। डाक्टरों का कहना था कि लम्बे समय के उबड़-खाबड़ सफर के कारण पेट के अन्दर अनेक घाव हो गए हैं। इसी कारण तेज दर्द हो रहा है। 

कुछ सावधानियों एवं हिदायतों के साथ डा. ने इलाज शुरू कर दिया। दो चार दिन अपने पास कमरे में रखने के बाद मां को बहुत ही एकान्त में एक छोटे से बदबू भरे कमरे में शिफ्ट कर दिया और उनके पास पानी का एक घड़ा, एक गिलास, कटोरी आदि कुछ जरूरी सामान रख दिया।

मां एकान्त में पड़ी शून्य में घूरती रहती, जब प्यास लगती धीरे से उठकर किसी तरह पानी निकालकर पी लेती। सुबह शाम दवा देने के लिए प्रकाश आता और हालचाल पूछ जाता। बहू तो कभी कभार पल भर को आती और झलक दिखाकर चली जाती।

दवाओं का असर कुछ समझ नहीं आ रहा था। मां अकेले पड़े-पड़े बेचैन होती, सूनापन उसे काटने को दौड़ता। कमरे की दीवारों को ताकते -ताकते वह अपनी बेचैन होती, सूनापन उसे काटने को दौड़ता। कमरे की दीवाराें को ताकते-ताकते वह अपनी विवशता पर सिसकती अपनी किस्मत पर रोती, पर कोई उसके दर्द को समझने वाला नहीं था। चार-चार बेटों, चार-चार बहुओं, और दस-दस पोता-पोतियों के होते हुए भी, इस अंतिम अवस्था में कोई एक गिलास पानी देने के लिए भी नहीं है। ऐसी अवस्था में कोई आस-पास होता, दो मीठे बोल बोलता तो मेरा दर्द आधा रह जाता। कई बार सोच-सोच कर वह फूट-फूट कर रोने लगती। लेकिन यहां इन दीवारों के सिवा कोई भी उसकी व्यथा को समझने वाला नहीं। 

इससे अच्छी तो मैं अपने घर में थी, सबकी नजरों के सामने तो थी। मरना तो है ही एक दिन। वहीं मरती अपनी चौखट पर, तो कितना अच्छा होता। लेकिन यहां मुंह उठाये चली आयी। मां अन्दर ही अन्दर अपने को ही कोसती।

अरी! भला क्या जरूरत थी यहां आने की? वहां पर भी तो इलाज हो रहा था, लेकिन तुझे तो कार में घूमने की जो पड़ी थी। तेरा लाडला जो तुझे अपने साथ अपने महल में ले जा रहा था? अब तो कलेजे के ठण्डक पड़ गयी होगी? अब काहे को आंसू बहा रही है? तरह-तरह के अन्तर्द्वन्द्व मन में तूफान पैदा करते रहते। है! भगवान मेरी मति मारी गयी थी, जो इसकी चिकनी चुपड़ी बातों में आ गयी। इसकी मुई कार ने तो मुझे मौत के कगार पर ही ला कर खड़ा कर दिया।

एक-एक दिन युगों जैसा बीत रहा था। धीरे-धीरे पन्द्रह-बीस दिन गुजर गए, मां धीरे-धीरे सूखकर कांटा हो गयी। बहू तो अब पास ही नहीं फटकती, मेरे पोते को भी मेरे पास आने नहीं देती। बेटा सुबह शाम थोड़ी देर के लिए आता है और हिदायतें देकर चला जाता है। हे! भगवान यहां से कैसे मुक्ति मिले? दिन मेरी हालत खराब होती जा रही है। पता नहीं कौन सी बीमारी है? कोई बताते भी नहीं। 

जिन्दगी से उब चुकी बूढ़ी मां ने एक हिम्मत करके प्रकाश से कह ही दिया, बेटा तुम लोग बहुत परेशान हो रहे हो, अब मुझे मेरे बड़े बेटे के पास इलाहाबाद छोड़ आओ। उन सब लोगों को देखने का मन कर रहा है । अब पता नहीं फिर मिला हो या न हो, चल बेटा, मुझे इलाहाबाद छोड़ आ।”

मां ने जैसे इन लोगों के मन की ही बात कह दी थी। थोड़ा बहुत न नुकुर के बाद वे राजी हो गए। प्रकाश मां को इलाहाबाद अपने बड़े भाई के पास छोड़ आया। बड़े भाइया द्वारा बीमारी के बारे में जानकारी चाहने पर कह दिया, ‘‘अरे कुछ खास बीमारी नहीं है, ये दवाएं खिलाते रहना, जल्दी ही अच्छी हो जाएगी। ”

लीवर में कैंसर जैसी खतरनाक बीमारी के बारें में किसी को न बताने के पीछेे क्या कारण था। आज तक पता नहीं चल पाया। इलाहाबाद में इलाज शुरू हो गया जब कुछ दिन तक कुछ फायदा नहीं हुआ हालत और भी बिगड़ गए तो बड़े भइया ने किसी और डा. से अच्छी तरह इलाज करवाया। कैंसर अंतिम स्टेज पर पहुंच चुका था। अब मां को किसी भी हालत में बचाया नहीं जा सकता था।

बड़े भैया ने घर आकर प्रकाश को फोन लगाया। फोन पर मां की गंभीरता के बारे में बात करते हुए कहा, ‘‘अरे बेहया, बेशर्म, तू ने तो मां को मार ही मार डाला। अरे इलाज नहीं करा पा रहा था, तो मेरे यहां पहले छोड़ जाता। अरे नालायक अगर पहले नहीं ला पाया था। तो मेरे पास छोड़ने लाया था तब तो बता देता उनके लीवर में कैंसर है। समय से इलाज तो हो जाता।

अरे हत्यारे। तूने किस जन्म की दुश्मनी निकाली है। ? कमबख्त मां के साथ कोई ऐसा सूलूक करता है। और वह भी अपनी मां के साथ। जिसने तुझे नौ महीने अपने पेट में रखा, उसे तू अपने साथ एक महीने भी नहीं रख सका? कुछ दिन रखा भी, तो ऐसे जैसे वह कोई जानवर हो, कोई लावारिस भिखारिन हो! अरे बुजदिल, लोग तो संक्रामक रोगों में भी अपने लोगों का पलकों की छांव में बिठाकर रखते हैं, और तूने, कैंसर जैसी लाइलाज लेकिन असंक्रामक बीमारी में अपनी सगी मां को घर के पिछवाड़े कबाड़ खाने की तरह पटक दिया। क्या लोग इसी लिए अपनी संतान को पढ़ा लिखाकर काबिल बनाते हैं? बातें करते-करते क्रोध और दुःख के अतिरेक से भइया का दिल भर आया और उन्होंने फोन पटक दिया।

कैंसर वाली बात मां को अभी भी पता नहीं थी, कई बार तो दर्द से कराहते हुए पूछती, ‘‘बेटे मुझे क्या हो गया है? मैं कब तक ठीक हो पाउंगी? ” भैया मां का मन बहलाने के लिए कह देते ‘‘अब दवा बदल कर दी है डा.साहब ने, वह कह रहे थे बहुत जल्दी आप चलने फिरने लगोगी।”

‘‘घर के सारे लोग बहुत दुखी थे, मां की हालात देखकर भैया छुप छिपकर आंसू बहाते रहते, कि उसकी आंखों के सामने उसकी मां तड़प-तड़प कर मर रही है और वह कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। धीरे-धीरे मां जी का खाना पीना भी बंद हो गया, बिस्तर पर लेटे-लेटे उनकी पीठ में घाव हो गए थे, जिससे उन्हें खास तरह के मेडिकेटेड बेड पर लिटाया गया था।

उनकी हालात को सुनकर नीलिमा कुछ दिन पहले इलाहाबाद गयी थी। वह 15 दिन से मां के पास थी। एक बार प्रकाश भी अकेले उन्हें देखने पहुंचा था। मां को बेटे के आने की जानकारी हुई तो नीलिमा से बोली थी ‘‘बिटिया , मैं उस धूर्त का मुंह भी नहीं देखना चाहती, मैं लाख कोशिशों के बाद उन लोेगों का व्यवहार भूला नहीं पाती। मेरा रोम-रोम उसे बददुआ दे रहा है। इतना कह कर वह आंख बन्द कर सोने का बहाना कर के चुपचाप लेटी रहीं थी। 

नीलिमा को आश्चर्य हो रहा था कि एक मां के दिल में अपने सगे बहू-बेटे के प्रति इस कदर नफरत भर चुकी है, कि विश्वास नहीं होता।……..इसी से सिद्ध हो रहा है कि उनका व्यवहार किस तरह का रहा होगा? प्रकाश एक दिन रुक कर वापस चला गया। नफरत की पराकाष्ठा थी, उसके चले जाने तक मां ने अपनी आंखें तक नहीं खोली और न ही किसी से बात की। उन्हें डर था कि कहीं मुझे उससे बात न करनी पड़ जाय।

प्रकाश के जाते ही मां ने नीलिमा से पूछा ‘‘बिटिया, कूपूत चला गया क्या?” उसके चले जाने की खबर सुनकर उन्होंने चैन की गहरी सांस ली। फिर बोली, बिटिया वहां तेरे बच्चे भी परेशान हो रहे होगें, उनके पापा को भी दिक्कत हो रही होगी अब तुम अपने घर लौट जाओ, मेरी बहुत तो सेवा कर ली, अब मैं ठीक हो जाउंगी, बड़ा बेटा अच्छा सा इलाज करा रहा है।….और हां दामाद जी को जरूर भेज देना उन्हें देखने का मन कर रहा है ।

मां की जिद पर आखिर नीलिमा को झांसी वापस लौटना पड़ा। एक दो दिन बाद मैं भी मां को देखने पहुंच गया था। मुझे देखकर वह बहुत खुश हुई। आंखों में चमक सी आ गयी थी। फिर रोने लगीं, और कहने लगी, बेटा मुझे बचा लो, मैं अभी मरना नहीं चाहती।” इतना कह कर मेरा हाथ अपने कांपते हाथों से थाम लिया। मैंने पूरा आश्वासन दिया था, ‘‘मां जी आप बिल्कुल ठीक हो जायेंगी, परमात्मा को याद करो, भगवान सब ठीक कर देंगे।

लेकिन हकीकत सब समझ रहे थे कि मां जी कुछ दिनों की ही मेहमान हैं। अब उन्हें बोलने में भी दिक्कत होने लगी थी, जब भी कभी बोलती बहुत धीरे से दो-चार शब्द ही बोल पाती थीं, आंखों से अब किसी को पहचान नहीं पाती थी। सारे लोग अपनी-अपनी तरहसे उनके लिए दुआएं दे रहे थे, और यथा सम्भव सेवा में लगे थे।…. दो दिन रुक कर मैं भी वापस चला आया था। वापस लौटते ही मुझे इस ट्रेनिंग पर भेज दिया गया था।…अतीत में विचरण करते करते मैं कब झांसी आ गया पता ही नहीं चला? 

अब शायद नीलिमा भी इलाहाबाद पहुंच गयी होगी ।…….देखो शायद मां जी से अंतिम मुलाकात हो जाए………।

घर पहुंचकर इलाहाबाद फोन मिलाया। नीलिमा समय से पहुंच गयी थी घर पहुंचते ही बेटी मां से लिपट कर फफक कर रो पड़ी। आ गयी, तुझे देखने की बड़ी इच्छा थी, ‘‘मां ने एक बार धीरे से आंखें खोली, ‘‘अच्छा बिटिया अब जा रही हूं……तू सबका ख्याल रखना। ” कहते-कहते एक हिचकी के साथ, सांसों की डोर टूट गयी। सारे लोग रोने लगे, घर भर में शोक छा गया, नाते रिश्तेदारों तथा सभी बेटों को सूचना दे दी गयी। लोग सभी के आने की प्रतीक्षा करने लगे।….. सभी के पहुंच जाने पर उनकी अंतिम विदाई की तैयारी होने लगी।

अब हम सबकी प्यारी मां इस दुनिया में नहीं हैं, उनकी खट्टी मीठी यादें ही पास रह गयी हैं। जिन्हें कभी भुलाया नहीं जा सकता। 

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