kachruram
kachruram

भारत कथा माला

उन अनाम वैरागी-मिरासी व भांड नाम से जाने जाने वाले लोक गायकों, घुमक्कड़  साधुओं  और हमारे समाज परिवार के अनेक पुरखों को जिनकी बदौलत ये अनमोल कथाएँ पीढ़ी दर पीढ़ी होती हुई हम तक पहुँची हैं

कचरू की कनपटी गरम हो रही थी। यह क्या बातें कर रहे थे अंदर ‘लोगमन’ कि पार्टी करेंगे दो दिन बाद, कचरू को रुपया लूंस देंगे, उसकी गाय भी अच्छी है!

‘बालमती’ को क्या करेंगे ये साहब लोग? रोज उसका दूध उनके घर देकर तो आता है वह, फिर साहब का ‘पिला मन’ (बच्चे) भी उसी दूध को पीकर जाता है। कहने को तो कचरू के घर में भी ‘पिला’ है पर उसको दूध कहाँ मिलेगा! जंगल में घूम-घूम कर कुसुम फल बीनता है, तो कभी जामुन, कभी साल पत्ता बटोरता है। सात साल का ‘जुगधर’ न जाने कहाँ-कहाँ भटकता है, ये ‘पिला’ भी न! इसकी माई छुटपन में खतम हो गई, नहीं तो साथ में कुछ सीखता स माई का आंचल पकड़े-पकड़े आदमी तो बनता। हाड गलाने से तो नहीं होगा न! ‘दीमाक’ भी चलाना पडता है आजकल पेट भरने के लिए। बालमती का काम करना जुगधर को अच्छा लगता है, लेकिन साहब के घर जाकर दूध देना पसंद नहीं करता।

‘आ रे मोचो पिला’- कचरु पुकारता है और जुगधर बालमती को सहलाता है, तरह-तरह से उसके साथ खेलता है। बालमती जुगधर की माई का नाम था। उसके गुजरने के बाद उत्पन्न शन्य को भरने के लिए कचरु गाय ले आया और उसका नाम रख दिया ‘बालमती’। अब बालमती, कचरु और जुगधर का परिवार था, हँसता-खेलता जुगधर तो बालमती के सामने साथ-साथ ही नहाता, दोनों साथ-साथ खाते। बालमती के रूप में मानों दोनों के जीवन की बन्द पड़ गई घड़ी फिर चल पड़ी थी- टिक.. टिक.. टिक..।

उसकी औरत बालमती जुझारू थी, सड़क किनारे बास्ता हसिया लेकर बैठती रही थी जाने कब से। बचपन से अपनी माँ के साथ ‘बास्ता’ लाने जंगल जाती और उसे छीलने, टुकड़े-टुकड़े करने में मदद करती, बास्ता हाथों-हाथ बिक जाता। फुटू, बोड़ा बेचने भी माँ के साथ बैठती। जंगल से सीताफल, जामुन, आम, कुसुम फल, छींद् आदि लाकर बेचने के लिये साल भर माँ के साथ बैठती। बचपन ही से बालमती चतुर हो गई। माँ डोकरी हुई और बालमती ने आँखों ही आँखो में कचरु जैसे बाँके जवान को पसंद कर लिया, फिर कचरु मेले से भगा लाया बालमती को। ‘घोटुल’ ने दोनों को एक-दूसरे से बांध दिया। बालमती और कचरु का संसार ऐसा था कि लोग जलने लगे। फिर पैदा हुआ जुगधर। गोल-मटोल, गहरा रंग लिए, तेल-चुपड़ा सिर, काला टीका माथे पर। जब बालमती चटख लाल, नारंगी कपड़े पहनाकर उसे बाहर लाती, तो लोग देखते रह जाते। वहाँ आसपास के घरों में सबके परिवार थे, बच्चे थे; लेकिन बालमती जैसी चट्ट-पट्ट किसी में नहीं थी। साफ-सफाई की समझ की वजह से कचरु का घर दमकता रहता। गोबर की लिपाई, उस पर चूने की ढीग से बाहर की दीवार पर हाथी-घोड़े उकेर देती बालमती। ‘जय दंतेसुरी माई’ लिखी हुई झोपड़ी केवल कचरुराम की थी।

बाहर मुर्गा लड़ाई हो रहा है, चलेगा रे कचरू! सुकलू झोपड़ी के बाहर बैठे कचरू को ले जाने आया था। कचरू ने अपनी गाय बालमती को देखा, फिर चिंतित माथे की सलवटों को ढीला किया और मुर्गा लड़ाई देखने चला गया।

मुर्गे ऐसी खूनी निगाहों से देखते थे एक-दूसरे को, जैसे मौका मिलते ही निगल जाएंगे या कच्चा चबा जाएंगे। उनकी आँखों में लड़ने का फितूर सवार था। वे लड़ रहे थे, सारा गाँव ताली बजा-बजा कर देख रहा था उनको।

मुर्गों को मालूम नहीं था कि जीत हो या हार, बाद में दोनों का मालिक एक ही होगा। इस सच्चाई से अनभिज्ञ दोनों अपनी-अपनी जान देने को तैयार थे। आदमी भी ऐसा ही होता है, मालिक के लिए कुछ भी कर बैठता है। वहाँ भी कचरू का मन नहीं लगा। वह वापस अपने ठिकाने लौट आया। देखा तो जुगधर खटिया में पड़ा-पड़ा सो गया था।

‘उठ रे….’

‘ले, खाना खा।’

कचरुराम के घर चूल्हे में दिप-दिपकर अंगार जल रहे थे। चावल पक चुका था। कचरु ने देसी प्याज, हरी मिर्ची की चटनी बनाई थी और पूरा कमरा लोकटिमाची चावल और चटनी की उस खुशबू से भर उठा था, जो भोजन के ऐश्वर्य का भान कराता है। इसमें अमीरी-गरीबी नहीं होती, ऐसे कुछ क्षणों में वे सभी अमीर होते हैं, जहाँ चूल्हे से सुनहरे कण छिटकते हों घर में।

सच तो यह है कि देह जो देखती है, वो आत्मा नहीं देखती और आत्मा का देखना, तृप्त होना जंगल के इन घास-फूसवाले झोपड़ीनुमा बंगलों में ज्यादा होता है।

जुगधर आँखें मलता हुआ उठा और बोला- ‘चलो बालमती के साथ खाएंगे।’

दोनों बाहर आ गए रात के आठ बज रहे थे। बालमती खिल उठी। उसने रंभा कर दोनों का स्वागत किया मानो जुगधर को पुचकारा।

ये तो जगधर की माँ है सचमच। इसके बिना तो जगधर मर ही जाएगा और वह खुद, खुद भी नहीं रह सकता पल भर बालमती के बिना।

बरसों पहले का चित्र दर्द के बहाव में उसकी आँखों के सामने फिर आ गया।

‘यहाँ कोई नहीं बैठेगा, यहाँ से सब हटेगा चलो उठो सब और ये दुकान सब हटाओ। कलेक्टर साहब ने कहा है, अतिक्रमण हटा रहे हैं, अतिक्रमण सरकारी जमीन है सब….. एक महीने का टाइम है।’

सब वहाँ से तितर-बितर हो गए, पल भर में।

बालमती ने बचपन से बस्तरिया सब्जियाँ बेचने का लंबा सफर किया था। अच्छे-अच्छे अफसर लोग उसके पास खरीदने आते थे। उसे समझ ही नहीं आया क्षण-भर को कि कैसे-क्या हो गया! पीछे एक दुकान थी, जिसमें मटन, चिकन भूने जाते थे, आमलेट बनता था। उसी के आगे किनारे में एक पेड़ था नीम का। उसी के नीचे बालमती कई वर्षों से बैठती आ रही थी। वहां बास्ता का और अन्य सभी सब्जियों का, चिंगरी मछली एवं अन्य मछलियों का बाजार लगता था। एल्युमिनियम की देगची में पानी और उसमें तैरती मछलियाँ सब्जी का हिस्सा थीं।

सब्जी वालियाँ बीच-बीच में उठतीं और देगची का पानी बदल देतीं और इसी कारण जगह-जगह हुए कीचड़ ने नाली का रूप ले लिया था। वहाँ से गुजरते वक्त एक अजीब सी दुर्गंध नाक में घुस जाती, लेकिन बालमती जहाँ बैठती थी, काफी साफ-सुथरी जगह थी। उसके साथ तीन-चार औरतें भी बास्ता लेकर बैठती थीं। फिर भी बालमती के बात करने के तरीके और कुशल व्यवहार के चलते उसी का बास्ता सबसे पहले बिकता। वहाँ अक्सर अफसर आया करते, एक वृद्धा ना जाने कब से देसी अंडे लेकर बैठती आ रही थी। चिथड़ें में लिपटे छ:-सात अंडे हाथों-हाथ बिक जाते। उससे मिलने वाले पैसों से ना जाने कैसे, मगर पेट की आग बुझती तो होगी।

ये सब तहस-नहस होने वाला था।

अतिक्रमण कर जमीन हड़पने वाले दुकानदार होते हैं। पीढ़ियों से सरकारी जमीन पर कब्जा कर इस तरह अपना अधिकार जताते हैं जैसे कि वह उनकी पुश्तैनी जमीन हो। पान के खोमचे, सिगरेट-गुटखा, तंबाकू का आकर्षण लिए प्रशासन की नजरों से बचे रहते हैं या कहिए प्रशासन वहीं से गुटखा खाता है, पर जब-जब अतिक्रमण के लिए मुहिम छिड़ती है, तब बात नाक की आ जाती है, प्रशासन की सारी इंद्रियाँ जाग जाती हैं नाक बचाने के लिए। मारा जाता है वह तबका, जिसने सड़क किनारे तो दूर, कभी वनों पर भी अपना अधिकार नहीं जताया, बल्कि वनों को घर की तरह संभाला है। कभी नष्ट नहीं किया। दंडकारण्य के आदिवासियों का जीवन वनों से जडा है. वे वक्षों को पूजते हैं और वहीं कहीं छोटी सी झोपड़ी बनाकर रह लेते हैं। दिन-भर चलते रहते हैं। भटकते हैं वनों में गाँव से गाँव। सड़कों पर हाथ में भाला या तीर-कमान या फिर तुम्बे में सल्फी या फिर किसी के हाथों में और सिर में झोला, जिसमें जीने का जरूरी सामान होता है- शायद अनाज या सब्जी, बस।

थके माँदे घर आकर शाम को वे इन्हीं पलों को जी लेते हैं। सड़क किनारे या दुकानों के सामने बैठकर, शहरियों तक वनोपज पहुँचाने का कार्य ये वनवासी ही करते हैं। घने जंगलों में न जाने कितने जीव जंतुओं से पाला पड़ता है; कितने ही काँटे चुभते हैं; कितने ही जहरीले पत्तों के संपर्क में आकर या फिर चोट पर पानी, कीचड की वजह से सेप्टिक या गैंगरिन हो जाता है, कभी पानी या भोजन की कमी से मलेरिया, सिर का बुखार – समय पर इलाज न मिल पाने से, उपेक्षा आदि। अनगिनत कारणों से ये अपनी जान गवाँ बैठते हैं। इन भोले निश्चल आदिवासियों को पता ही नहीं चल पाता किसने उसकी जान ले ली, कौन उनका फायदा उठा रहा है। पेट की आग बुझाने में बेखबर, सड़क के किनारे बैठ जाते हैं। इन्हें समझ नहीं आता कि जंगली जानवरों से ज्यादा खतरनाक शहरों का इंसान होता है, ना जाने कब लूट ले, कब मार दे।

पर बालमती ने अफसरों को चिल्ला-चिल्ला कर खूब लताड़ लगाई ‘तू कएसे हटाएगा रे यहाँ से, हम पएले से बएठते हैं यहाँ, जब तुम पएदा नई हुए थे, मेरी मां भी बइठती ती, वो किसी का जगा नई ली। वो बोली तेरा जगा है।’

बालमती जैसे एक-दो लोगों को छोड़कर अफसरों ने दुकानों के लिए बुलडोजर मँगाया। अतिक्रमण हटाने का आखिरी दिन- किनारे गांव वाले खड़े देख रहे थे, दुकानों पर बुलडोजर चलता देख कर सबका मन खराब हो गया। फिर वही हुआ, जो किसी ने नहीं सोचा था। अचानक जैसे पीछे से बालमती को किसी ने धक्का दिया और फिर बुलडोजर के नीचे…..शहरी जानवरों ने अपना शिकार चालाकी से कर दिया था।

कचरू स्तब्ध था बालमती उसको छोड़कर क्यों चली गई? रो-रोकर उसने कई रातें कांटी, दिन-भर जुगधर को लेकर यहाँ-वहाँ भटकता, फिर रात के सन्नाटे में लौट आता। बालमती के प्रति उसका प्रेम झरने की तरह था, कहीं रुकता ही नहीं था और अब……वह झरना आँखों से बहता था।

जुगधर बड़ा होने लगा था। एक गहरी साँस ली कचरू ने। जुगधर और बड़ा होगा, तब कचरू डोकरा हो जाएगा। कचरू की आँखों से नींद गायब थी। वह रात भर बालमती के पास ही बैठे-बैठे सो गया।

अगली सुबह ने बता दिया कि साहब की नीयत में क्या था।

‘अरे साहब आप?’ कचरू ने आश्चर्य से आंखें मिचमिच की।

साहब के साथ उनका खादिम दोस्त अफसर भी था। दोनों मुस्कुराये, फिर बोले- ‘तेरी गाय के बारे में बात करना है, बात न फैले इधर-उधर, अंदर आएँ?’

दोनों अंदर आने के आमंत्रण का इंतजार करते रहे, लेकिन ‘गाय के बारे में’ सुनकर कचरू मूर्ति बन गया। ठीक वैसे ही, जैसे चौराहे पर लगी है उन जैसे लोग मन की।

दोस्त अफसर थोड़ा अंदर की तरफ हो आया…….

कचरू से सीधे बात नहीं की। गोल-गोल घुमाता रहा। देख कचरु राम ……तेरी गाय ठीक रहेगी। बीफ पार्टी है कल साहब के बंगले में। रहने को तो गायें बहुत है यहाँ गाँव में, पर वो क्या है कि साहब नए हैं न इसलिए वो चाहते हैं कि तेरी तंदुरुस्त गाय……मतलब तू जितने रुपए रखना चाहे रख ले, वैसे अच्छी रकम देंगे साहब या तेरे को काम दिला देंगे, तू निश्चिंत रह……

……तो फिर तय हो गया न……चल…….फिर मैं बताता हूँ साहब को। तेरे लिए अलग खाना बनवा देंगे…..अरे भाजी बनेगा, खाना बनेगा, समझा…. और लोग भी हैं।

देख कचरू….। साहब के दोस्त की समझाइश खत्म नहीं हो रही थी। देख कचरू, पैसा बहुत जरूरी है, अब तू अपने बेटे की जिंदगी सुधारना चाहता है कि नहीं, लड़के के बारे में सोच कचरू, लड़के के बारे में सोच…..

साहब का दोस्त अपना पूरा जोर लगा चुका था। कचरूराम का शरीर जैसे वज्र का हो गया था। उसकी आँखें खुली थीं, बस। अचानक उसने पास में पड़ा भाला उठाया और खूनी आँखें टिका दीं। टूटी-फूटी हिंदी……अंगारों की तरह और फिर लपटों की तरह साहब और उसके दोस्त पर हमला कर चुकी थीं।

‘ऐ….., हात नइ लगाना बालमती को। गाय नइ है काली (खाली)….. माई है, जुगधर की माई तू काटेगा……! काटेगा…….? भाला उठाकर छाती तक ले आया था कचरू…….

ऐसा रूप कचरू का कभी नहीं हुआ, मानो सारा खून सतह पर आ गया हो पूरे शरीर में, लाल हो गई देह में, जैसे हनुमान जी का कोप उतर आया था।

साहब का दोस्त – ‘अरे गुस्सा क्यों…….।

‘भाग…..चल……..नहीं भागेगा। नइ? जा……..चले जा। बालमती को खाएगा! खाना नइ है! अरे, वो बालमती है मेरी……. अरे रे……. मोचो बालमती रे…….कचरू फूट पड़ा। भाला पकड़े कचरू की आँखों से झरझर आँसू बह चले। साहब के इरादों के कई भाले उसके दिल के आर-पार हो गए थे, जहाँ से लहू नहीं, आग बह रही थी…….आग। उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करें। बैठा रहा भाला लेकर बालमती के पास जड़…….. स्तब्ध……चौकन्ना…….हैरान-सा कि आदमी की जात इतना भी नीचे जा सकती है…….जितना कि उसके गांव में खाई है!

साहब भौचक से खड़े रह गए थे और उल्टे पाँव लौट पड़े।

…………………………………………………

अगले दिन टीकम, जीनबंधु-सब बोरों में भर-भर कर कद्दू ला रहे थे आज मातर पूजा है। गाँव में मंदिर के पास चबूतरे में उसकी गाय बालमती भी कद्दू खूदेगी। कोने पर, बड़े से बर्तन में खिचड़ी बन रही थी। इस खिचड़ी में गाय का खूदा कद्दू मिलाया जाएगा और मातर पूजा के प्रसाद के रूप में बाँटा जाएगा। हर साल की तरह अपनी गाय के पास खड़ा कचरू गर्व से फूला नहीं समा रहा था। लेकिन किसी ना किसी की गाय तो कटी ही होगी। कचरू की आँखों में दुःख तैर गया।

आजकल कचरू, टीकम, जीनबंधु, सुकलू, पनकू-सब रात में गायों पर पहरा देते हैं। उनके गांव में सिर्फ मातर पूजा होती थी, इसलिए वे चैन से सोते थे। अब ना जाने कहां से ‘बीप’ भी घुस आया है न।

रातों को लेकिन कचरू राम की आँखों में पल-भर भी नींद नहीं आती है, चौबीसों घंटे बालमती की रखवाली करता रहता है।

भारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा मालाभारत की आजादी के 75 वर्ष (अमृत महोत्सव) पूर्ण होने पर डायमंड बुक्स द्वारा ‘भारत कथा माला’ का अद्भुत प्रकाशन।’