Hindi Immortal Story: “हम एक महान देश की संतानें हैं। वीरों ने अपने रक्त और बलिदान से इसे सींचा है। आज मुट्ठी भर लोग बाहर से आकर इस पर कब्जा जमा बैठे हैं। पर हम यह बर्दाश्त नहीं करेंगे। हम भारत की आजादी के लिए अपनी आखिरी साँस तक संघर्ष करते रहेंगे।”
एक दुबली-पतली लेकिन वीर स्त्री मंच से ललकार रही थी और सुनने वाले हजारों लोगों की आँखों में एक नई चमक और कुछ कर गुजरने का जोश था। जिधर भी वह स्त्री जाती, लोग खुद-ब-खुद जुटने लगते। उनका उत्साह देखते ही बनता था। लोगों में सच्चा जोश भर देने वाली वह स्त्री थी सत्यवती। स्वामी श्रद्धानंद की वह पोती थी और मन में अपने दादा जैसा ही जोश और उत्साह था। इसलिए लोगों ने उसका नाम ‘एक जोशीली आँधी’ रख दिया था।
भारत की जिन निर्भीक, जोशीली और तेजतर्रार महिलाओं ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम में आगे बढ़कर हिस्सा लिया तथा अपना सारा जीवन राष्ट्रीय स्वाभिमान को जगाने में अर्पित कर दिया, उनमें सत्यवती देवी का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। सत्यवती देवी स्वामी श्रद्धानंद की पोती थीं और उन्होंने संकल्प लिया था कि अपने जीवन की आखिरी साँस तक वे देश के लिए काम करेंगी। और मातृभूमि को पैरों से रौंदने वाले आततायी अंग्रेजों को इस देश से बाहर निकालने के लिए लोगों में जोश पैदा करेंगी। और सच में उन्होंने लोगों में देशभक्ति की भावनाओं का एक भूचाल पैदा कर दिया था। दुबले-पतले शरीर, पर फौलादी संकल्प शक्ति वाली इस
बहादुर स्त्री में अपने दादा जी जैसा ही जोश, विद्रोह-भावना और संगठन-वृत्ति थी, जिसके कारण अपने छोटे से जीवन में ही वे बड़ा काम कर पाईं।
सत्यवती देवी उच्च कोटि की विचारक तो थीं ही, वे भाषण देने में भी बहुत निपुण थीं। सत्यवती देवी के भाषण बहुत जोशीले होते थे और वे खुलकर अंग्रेजी सत्ता के खिलाफ आग उगलती थीं। दुबली-पतली काया वाली सत्यवती देवी जब अपनी असाधारण वक्तृता से जनता को अन्यायी अंग्रेजी शासन की असलियत बताते हुए उन्हें इस गुलामी के जुए को उतार फेंकने का आह्वान करतीं, तो सुनने वाले हजारों लोगों में एक साथ देशभक्ति की लहर दौड़ जाती। उनके भाषणों से प्रभावित होकर पुरुष ही नहीं, महिलाएँ भी घरों से बाहर आकर देश और समाज के लिए कुछ करने की भावना से निकल पड़ीं। सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त एक संपन्न और सम्मानित परिवार की बेटी सत्यवती के देशभक्ति के इस आंदोलन में उनके परिवार के लोगों ने भी खुशी-खुशी अपनी आहुति दी। अपनी एक बेटी को तो जो अभी शिशु ही थी, वे अपने साथ लेकर जेल गई थीं, क्योंकि उनके बिना उनका रह पाना कठिन था। इस तरह पारिवारिक जिम्मेदारियाँ निभाते हुए भी देश और आजादी के लिए काम करने की उन्होंने एक मिसाल कायम की।
यही कारण था कि उनकी सच्ची बातों से प्रभावित होने वालों की संख्या बहुत बड़ी थी। कॉलेजों के हजारों छात्र-छात्राएँ उनके साथ स्वाधीनता के आंदोलन में शरीक हुए। और देखते ही देखते घरों से निकलकर आगे बढ़ने वाली महिलाओं का एक बड़ा कारवाँ नजर आने लगा।
सत्यवती शरीर से दुर्बल थीं और अपने स्वास्थ्य की लगातार उपेक्षा के कारण वे यक्ष्मा (टीबी) की शिकार हो गईं। फिर भी उनके कामों और उत्साह में कोई कमी नहीं आई। वे उसी तरह भाग-दौड़ करती रहीं और नवयुवकों को देश-सेवा के लिए प्रेरित करती रहीं। यहाँ तक कि जब उनमें उठने-बैठने तक की शक्ति नहीं थी, तब भी वे अपने कार्यकर्ताओं का मार्गदर्शन करती हुई उनमें देश-सेवा का बल भरती रहीं।
आखिर घोर अस्वस्थता के कारण केवल इकतालीस वर्ष की अवस्था में सन् 1945 में उनका देहांत हुआ। उनकी इच्छा थी कि वे मृत्यु से पहले वे अपने बेटे का विवाह देख लें। इसलिए जब वे रोग-शैया पर थीं, उनके बेटे के लिए बहू ढूँढ़कर उसका विवाह संपन्न हुआ और इसके बाद ही उन्होंने आँखें मूँद लीं। सत्यवती देवी एक ऐसी तेजस्वी महिला थीं जिन्होंने खासकर देश की महिलाओं में एक ऐसी जागृति की लहर पैदा कर दी कि वे भी पुरुषों की तरह आगे बढ़कर शिक्षा, सामाजिक कार्यों और देश के नवनिर्माण में सक्रिय भूमिका निभाने लगीं।
स्वाधीनता की लड़ाई में तन-मन-धन से हिस्सा लेने वाली सत्यवती देवी का व्यक्तित्व हजारों लोगों को प्रेरित करता था। उनके शब्दों में सच्चाई का बल और आश्चर्यजनक निर्भीकता थी। इसीलिए आज भी लोग इतने आदर से इस ओजस्वी महिला को याद करते हैं।
ये कहानी ‘शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Shaurya Aur Balidan Ki Amar Kahaniya(शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ)
