Hindi Immortal Story: “देश बंधुओं! अपने देश में अपनी स्थिति का खयाल करो। रूस में देशभक्ति करने वाले वीर माने जाते हैं। अंग्रेज भी उन्हें देशभक्त मानते हैं। और वही अंग्रेज हमें देशद्रोही और गुनहगार समझकर सजा देते हैं। यह किसलिए? ऐसा भेदभाव क्यों? जुल्म-जुल्म ही है। विदेशी शासन को उखाड़ फेंकना ही सच्ची देशभक्ति है। गुलाम जीवन निरर्थक है।…”
“स्वाधीनता की कीमत हमें चुकानी ही होगी। कीमत चुकाए बगैर कौन-सा देश आजाद हुआ है? ईश्वर की कृपा है कि हममें जागृति आ चुकी है। जुल्म सह लेना तो एक पाप है। हमें अत्याचारियों का सामना करना ही होगा।”
“अंग्रेज न्याय की बात करते हैं। पर किस न्याय की? उनका न्याय तो क्रूर मजाक है। सच बोलने वाले देशभक्तों को पकड़कर वे जेल में बंद कर देते हैं। हमें हमारा देश वापस चाहिए। अंग्रेज द्वारा बनाई गई कोई भी चीज हमें नहीं चाहिए।…”
ये उन भाषणों के कुछ टुकड़े हैं जिनमें आजादी की तड़प और विद्रोह उबल रहा है। ये ही वे भाषण थे जिन्हें प्रसिद्ध स्वतंत्रता-सेनानी मादाम भीखाजी कामा के मुख से सुनकर मानो पत्थर भी पिघल जाते थे। वे मार्मिक ढंग से अपने देश के लोगों तथा विदेशियों को भी भारत की स्थिति से अवगत कराती। साथ ही उनमें अन्याय से लड़ने का जोश भरती। अपने इन भाषणों में मानो वे आग उगलती थीं। उनके शब्द सीधे हृदय से निकलते थे और सुनने वालों के हृदय में गहरे उतर जाते।
मादाम भीखाजी कामा ने लाखों लोगों के मन में भारत को आजाद कराने की ललक पैदा की। उन्हें गुलामी का अहसास कराया और देश की आजादी के लिए मर मिटने का जज़्बा पैदा किया। भारत ही नहीं, विदेशों में जाकर भी उन्होंने भारत के लोगों पर अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे अत्याचारों के प्रति सचेत किया। उनके सामने भारत की गुलामी की मार्मिक तसवीर पेश की और भारत की आजादी की लड़ाई के लिए समूचे विश्व का ठोस समर्थन जुटाया। आजादी की लड़ाई की इस निर्भीक योद्धा और महान क्रांतिकारी महिला मादाम भीखाजी का जन्म मुंबई के एक पारसी परिवार में हुआ था। उस समय लड़कियों की शिक्षा की ओर कोई ध्यान नहीं देता था, पर भीखाजी ने पारसी गर्ल्स हाईस्कूल से मैट्रिक तक शिक्षा पाई थी। बचपन से वे विलक्षण बुद्धि की बालिका थीं और दूसरी लड़कियों के मुकाबले बड़ी सक्रिय और तेजतर्रार थीं। कोई भी काम बड़े जोश के साथ करती थीं। उन्हें आलसी और सिर्फ लंबी-चौड़ी बातें करने वाले लोग पसंद नहीं थे। जो काम सोचती, तुरंत करने को तैयार हो जातीं, पूरे जोश-खरोश के साथ।
सन् 1885 में कांग्रेस पार्टी बनी और उसका पहला अधिवेशन मुंबई में ही होना था। मादाम भीखा जी भी उस सम्मेलन में गईं। बस, तभी से उनके मन में भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष में सक्रिय रूप से भाग लेने की इच्छा जाग उठी। अपनी बेटी को इस तरह से राजनीति में कूद पड़ते देख, माता-पिता ने उन्हें गृहस्थ जीवन में बाँधने का प्रयास किया। इसी के फलस्वरूप मुंबई के एक समृद्ध वकील रुस्तम जी कामा से उनका विवाह कर दिया गया। पर भीखा जी कामा तो किसी दूसरी ही मिट्टी की बनी थीं। उनमें जो क्रांतिकारी विचारों की ज्वाला थी, वह भला कैसे उन्हें गृहस्थ की गाड़ी चलाने देती! भीखाजी कामा किसी छोटी चहारदीवारी के भीतर कहाँ रुकने वाली थीं। फलतः यह विवाह टिका नहीं और मादाम भीखाजी कामा ने जल्दी ही अपनी अलग राह पकड़ ली। वे जी-जान से देश की आजादी की लड़ाई में कूद पड़ी। सन् 1901 के आसपास लगभग 40 वर्ष की उम्र में भीखाजी गंभीर रूप से बीमार पड़ीं, तो इलाज के लिए लंदन चली गईं। वहाँ महीने भर चले इलाज और आराम से वे पुनः स्वस्थ हो गईं। स्वस्थ होते ही वे फिर से क्रांति की राह पर चल पड़ीं। यहीं लंदन में रहते हुए उनकी भेंट भारत के आजादी के क्रांतिकारी योद्धा श्यामजी कृष्ण वर्मा से हुई, जो स्वयं एक अच्छे बैरिस्टर थे और लंदन में रहते थे। वहाँ उन्होंने ‘इंडिया हाउस’ नाम का एक भवन ले रखा था और ‘अभिनव भारत’ नाम से एक संस्था बनाई थी। भारत से जितने भी नवयुवक या विद्यार्थी इंग्लैंड पढ़ने जाते थे, श्याम जी कृष्ण वर्मा की यह भरसक कोशिश होती थी कि वे सभी कम से कम एक बार तो जरूर इंडिया हाउस आएँ और ‘अभिनव भारत’ के सदस्य बने। इंडिया हाउस में समय-समय पर जोशीले भाषण दिए जाते, ताकि नवयुवकों के हृदय में क्रांति की लौ पैदा की जाए और फिर वे आजादी की लड़ाई के जांबाज सिपाही बनें।
इस संस्था में रहकर कुछ समय तक मादाम भीखा जी कामा ने इस काम को बड़े सराहनीय ढंग से पूरा किया। उनके आग उगलते भाषणों ने कितने ही नवयुवकों को स्वतंत्रता की बलिवेदी पर खुशी-खुशी अपना शीश चढ़ाने के लिए तैयार किया। जोश से भरकर वे देश की आजादी के लिए प्राणों की आहुति देने को आतुर हो उठे। लंदन के हाइड पार्क में मादाम भीखाजी कामा ने कई बार ऐसे आग उगलते, उत्तेजक भाषण दिए कि अंग्रेज सरकार के भी छक्के छूट गए। मादाम भीखाजी कामा को जैसे ही खबर मिली कि उन्हें गिरफ्तार किया जा सकता है, तो वे पेरिस चली गईं। वे चाहती थीं कि वे फ्रांस के लोगों के सामने भी भारत की सही तस्वीर रखें, कि अंग्रेज कितने अत्याचारी हैं। वे निरंतर सक्रिय रहना चाहती थीं और लोगों के बीच भी, इसीलिए गिरफ्तारी से बचने की भरसक कोशिश करती थीं। पेरिस में ही उनकी भेंट लाला हरदयाल, विनायक दामोदर सावरकर, मुकुंद सरदेसाई और वीरेंद्र चट्टोपाध्याय जैसे देशभक्त क्रांतिकारियों से हुई, तो उन्हें यह सोचकर बहुत बल मिला कि आजादी की लड़ाई में हजारों लोग एक साथ चल रहे हैं। निश्चय ही अब भारत ज्यादा दिन तक पराधीन नहीं रहेगा। उन्होंने ‘वंदेमातरम्’ नाम का एक साप्ताहिक पत्र भी शुरू किया, ताकि जहाँ उनके भाषणों की पहुँच न हो, वहाँ लोग ‘वंदेमातरम्’ को पढ़कर भारत की सही तसवीर देख सकें। इसी तरह भारत की आजादी की लड़ाई के लिए लाखों लोगों का समर्थन जुटाने के लिए वे अमेरिका, जर्मनी, स्कॉटलैंड आदि देशों में भी गईं। जहाँ भी जाती, वे उनकी भारतीयों के प्रति बरती गई अंग्रेज सरकार की क्रूरता के कच्चे चिट्ठे खोलती। मानो वे भारत की स्वतंत्रता के लिए विश्व भर का जनमत जुटा रही हों! सन् 1908 में जर्मनी में अलग-अलग देशों के लगभग एक हजार समाजवादियों का सम्मेलन हुआ। उस सम्मेलन में हर देश का अपना झंडा फहरा रहा था। मादाम भीखाजी कामा भी भारत की प्रतिनिधि के रूप में उस सम्मेलन में शामिल हुईं। भारत की आजादी से लगभग 40 साल पहले ही, उन्होंने आजाद भारत के झंडे की बड़ी सुंदर कल्पना कर ली थी। इस सम्मेलन में उन्होंने अपने हाथ से बनाया हुआ लाल सफेद और हरे रंग का तिरंगा झंडा, जिसकी सफेद पट्टी पर ‘वंदेमातरम्’ लिखा था, वहीं फहरा दिया, जहाँ दूसरे देशों के झंडे फहरा रहे थे। इससे पता चलता है कि उनके मन में भारत को एक स्वतंत्र देश के रूप में देखने की कितनी गहरी उत्कंठा थी।
इस सम्मेलन के बाद तो उन्हें अपने ही बनाए इस झंडे से इतना लगाव हो गया कि वे इसे अपने से कभी अलग न करती थीं। जहाँ भी जातीं, पहले वह झंडा गाड़ती और फिर उनका जोशीला भाषण शुरू हो जाता। झंडा उनके लिए आजाद भारत का प्रतीक बन गया। उसे वे किसी तरह भी अपने से अलग नहीं करती थीं। सन् 1914 में प्रथम विश्वयुद्ध शुरू होने पर उन्होंने अपने पत्र ‘वंदेमातरम्’ में बड़ा ही विचारोत्तेजक लेख लिखा, जिसका आशय था कि भारत इस युद्ध में अंग्रेजों का साथ नहीं देगा। ऐसे कठिन समय में जब अंग्रेजों पर विश्वयुद्ध के काले बादल मँडरा रहे थे, अंग्रेज सरकार ऐसे उत्तेजक लेख को भला कैसे बर्दाश्त करती। फ्रांस इस विश्व युद्ध में अंग्रेजों के साथ था, इसलिए फ्रांस की सरकार ने भीखाजी कामा को जेल में डाल दिया। 1918 में जब विश्वयुद्ध खत्म हुआ, तभी उन्हें रिहा किया गया।
इतने वर्षों से देश से बाहर रहते-रहते भीखाजी कामा अब थकने लगी थीं। बीमारी ने भी आकर घेर लिया था। उन्हें लगता था, उनकी मातृभूमि उन्हें पुकार रही है। वे फिर मातृभूमि की गोद में शांति पाना चाहती थीं। वे भारत लौटने के लिए आकुल हो उठीं।
अंग्रेज सरकार ने बहुत कड़ी शर्तों पर उन्हें भारत लौटने की अनुमति दी। इस तरह जीवन भर आजादी का अलख जगाने वाली इस बहादुर स्त्री की अपने अंतिम समय में अपनी जमीन, यानी मातृभूमि को छू लेने की आकांक्षा तो पूरी हुई। पर यहाँ वे अधिक समय तक जीवित नहीं रह सकीं। कुछ ही समय बाद वे अपनी निष्प्राण देह त्यागकर, अनंत की ओर उड़ चलीं।
ये कहानी ‘शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Shaurya Aur Balidan Ki Amar Kahaniya(शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ)
