satyanishtha
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एक शिकारी जंगल में गया। धनुष और बाण उसके पास थे। वह शिकार की खोज में घूम रहा था। वृक्षों के झुरमुट से निकलती हुई एक हरिणी पर उसकी नजर टिकी। उसने धनुष चढ़ाया। वह तीर छोड़ने ही वाला था कि उसे हरिणी के दो बोल सुनाई दिए- “शिकारी! ठहरो।” शिकारी के हाथ वहीं रुक गए। वह बोला- “ठहरने का कोई कारण नहीं है। मैं भूखा हूँ। तू मेरा शिकार है। मैं तुझे मारूंगा।” हरिणी ने प्रार्थना के स्वरों में कहा- “शिकारी! मैं जानती हूँ कि तुम भूखे हो। पर एक बात सुनो। मेरे दो छोटे-छोटे बच्चे हैं वे अभी तक घास नहीं खाते। दूध पीते हैं। उनको दूध पीए हुए काफी समय हो गया। अब उन्हें गहरी भूख लगी हुई है। वे मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं। मैं उन्हें दूध पिलाकर लौट आऊंगी।”

शिकारी हरिणी के इस निवेदन पर हंसता हुआ बोला- “यह कहने की बात है। मौत के मुंह से निकलकर पुनः मौत के मुंह में आने की मूखर्ता कौन करेगा?” हरिणी शिकारी के सन्देह से यथित होकर कहने लगी- “कही गई जबान का भी तो कोई मूल्य होता है। जब तक इस शरीर में प्राण हैं, मैं अपना वादा पूरा करूंगी। मुझे मरना पसन्द है। केवल माँ की ममता मुझे बाधित कर रही है। तुम मुझे एक बार जाने दो। मैं बच्चों को दूध पिलाते ही वापस आ जाऊंगी।”

हरिणी की ममता देख शिकारी का मन भी पिघल गया। उसने सोचा- लौटकर आएगी तो ठीक, नहीं आएगी तो नहीं आएगी। इसे एक बार जाने दो। हरिणी की आंखों में कृतज्ञता झलक उठी। वह जाते-जाते बोली- “भाई! तुम यहीं खड़े रहना। मैं अभी आ रही हूँ।” हरिणी कुलांचे भरती हुई अपने दोनों बच्चों के पास पहुँची और बोली- “बच्चों! जल्दी करो, दूध पी लो। आज मैं आखिरी बार तुमको दूध पिला रही हूँ। अब तुम घास खाना सीख लेना।”

हरिणी के बच्चे यह बात सुन बोले- “माँ! यह तुम क्या कह रही हो? आज तुम्हें ऐसी क्या जल्दी हो गई? तुमने आखिरी बार दूध पीने की बात कैसे कही।” बच्चों के आग्रह पर हरिणी ने शिकारी के साथ वचनबद्ध होने का पूरा वृतान्त सुना दिया। हरिण पास ही खड़ा था। वह बोला- “शिकारी के पास मैं जाता हूँ। तुम्हारा वचन पूरा हो जाएगा। तुम अभी बच्चों का पालन करो।” हरिणी इस बात पर राजी नहीं हुई। इधर बच्चों ने दूध नहीं पिया। वे बोले-“तुम मौत के मुंह में जाओ और हम जीवित रहें, ऐसा जीना हमें पसन्द नहीं है। हम भी तुम्हारे साथ चलेंगे।”

शिकारी अपने स्थान पर खड़ा था। हरिण, हरिणी और दो बच्चे चारों उछलते-कूदते उसके पास पहुँच गए। शिकारी को अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। पर जो प्रत्यक्ष था, उसे झुठलाया कैसे जा सकता था? हरिणी बोली- “मैं तैयार हँू तीर चलाओ।” हरिण बोला- “मैं भी तैयार हूँ।” दोनों बच्चों ने कहा- “पहले हम पर तीर चलाओ।” शिकारी एक को ही मारना चाहता था। उधर चार और इधर एक। शिकारी ने तीर चलाना चाहा, पर उसके हाथ जड़ हो गये। तीर चला नहीं। सब स्तब्ध हो गये।

चार सदस्यों का हरिण परिवार और एक शिकारी। पांचों की प्रामाणिकता और सत्यनिष्ठा ने प्रकृति को अभिभूत कर लिया।

ये कहानी ‘इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानियां पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएंIndradhanushi Prerak Prasang (इंद्रधनुषी प्रेरक प्रसंग)