Hindi Immortal Story:“स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। उसे हम लेकर रहेंगे। हम अपनी स्वाधीनता के लिए अंग्रेजों से भीख नहीं माँगेंगे।”
हजारों लोगों की विशाल सभा में मराठा शेर गरज रहा था और उसकी दहाड़ अंग्रेजी सत्ता के बहरे कानों में पिघले हुए सीसे जैसी पड़ रही थी। लेकिन सुनने वाले लोग बार-बार वंदेमातरम् का जयघोष करके अपना जोश और देशभक्ति की भावनाएँ प्रकट कर रहे थे। उन्हें लगा कि वह बात जो लाखों-करोड़ों भारतीयों के दिल में हर वक्त उमड़ती है, उसे मंच पर यह हिम्मती शेर कह रहा है। उसकी गरज से दिशाएँ गूँज रही थीं और करोड़ों भारतीय महसूस कर रहे थे कि अब आजादी दूर नहीं है। अगर हम मिलकर अंग्रेजों के खिलाफ खड़े हो जाएँ तो ये मुट्ठी भर अंग्रेज हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। पूरे भारत में जोश की ऐसी लहर उमड़ पड़ी थी, जो इससे पहले कभी देखने में नहीं आई थी। यहाँ तक कि अंग्रेजों को लगने लगा था कि इस देश की जनता जाग गई और हमारे लिए अधिक समय तक भारत पर राज करना अब संभव नहीं है।
यह जोशीली ललकार थी भारत में स्वाधीनता संग्राम के सबसे अग्रणी राजनेता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक की, जिन्होंने पूरे भारत में मानो बिजलियों जैसी तेजी और विद्रोह पैदा कर दिया था। वे महाराष्ट्र के ऐसे सिंह थे जिनकी एक पुकार पर सारी जनता उठ खड़ी होती थी। उनका व्यक्तित्व इतना भव्य और प्रभावशाली था और उनके भाषण इतने ओजस्वीतापूर्ण होते थे कि एक ओर भारतीय जनता तो दूसरी ओर अंग्रेज भी उनसे प्रभावित होते। हालाँकि बार-बार अंग्रेजी सत्ता ने आतंकित होकर उन्हें जेलों में भी रखा। पर स्वाभिमानी तिलक को कोई पल भर अपनी राह से डिगा नहीं पाया। उन्होंने जितने कष्ट सहे, उतना ही जनता का और अधिक आदर और प्यार उन्हें मिलता गया। भारतीय जनता प्यार से उन्हें ‘लोकमान्य तिलक’ कहकर पुकारती थी।
23 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले में जन्मे बाल गंगाधर तिलक बचपन में ही बड़े निर्भीक और तेजस्वी थे। वे इतने प्रखर और बुद्धिमान थे कि कक्षा में अध्यापक जो प्रश्न पूछते, उन्हें कॉपी पर हल किए बगैर ही मौखिक उनका जबाब दे देते थे। इससे उनके साथ के विद्यार्थी ही नहीं, अध्यापक भी उनकी जी भरकर प्रशंसा करते थे।
बड़े होकर तिलक देश की वर्तमान हालत के बारे में सोचते तो बेहद दुखी हो जाते थे। अंग्रेजों ने सिर्फ भारतीयों के सिर पर गुलामी थोपी थी, बल्कि साथ ही वे भारतीयों के मन में अपने धर्म और संस्कृति के प्रति घृणा भी पैदा करने में लगे थे, ताकि लोग अंग्रेजी शासन को ही वरदान मानने लगे। अंग्रेजों ने भारत के पारंपरिक उद्योग-धंधों को चौपट कर डाला था। लोग आतंकित होकर गाँव की ओर भाग रहे थे। दूसरी ओर भारतीय जनता की हालत यह थी कि वह अब भी कूप-मंडूकता से छूट नहीं पा रही थी। तिलक के मन में यह विचार आया कि भारत के इस पतन का मूल कारण परतंत्रता है। जब तक अंग्रेजों को इस देश से नहीं निकाला जाता, भारत उन्नति नहीं कर सकता। तिलक अपने विचारों को जनता तक पहुँचाना चाहते थे, ताकि लोग अंग्रेजी शासन की असलियत जान जाएँ। पर इसका तरीका क्या था!
तभी उन्हें एक और उत्साही युवक गोपाल गणेश आगरकर मिले। दोनों ने मिलकर भारतीय जनता में फिर से स्वाभिमान की लहर पैदा करने का निश्चय किया। उन्होंने निश्चय किया कि वे सरकारी नौकरी न करके अपना जीवन देश की सेवा में लगाएँगे। उन्होंने उस समय के विद्वान, शिक्षाशास्त्री विष्णुशास्त्री चिपलूणकर से चर्चा की। आखिर एक स्कूल और आगे चलकर एक ऐसा कॉलेज खोला गया जिसमें पढ़ाई के साथ-साथ छात्रों के मन में अपनी संस्कृति के प्रति प्रेम और देशभक्ति की भावनाएँ भरने की कोशिश की जाती।
शुरू में मुश्किलें आईं, पर आगे चलकर हर ओर से मदद मिलती चली गई। शिक्षा के क्षेत्र में इस आंदोलनकारी कदम के साथ-साथ उन्होंने अपने विचारों को फैलाने के लिए ‘केशरी’ और ‘मराठा’ नाम के पत्र भी निकाले। इन पत्रों में तिलक, आगरकर जैसे विचारशील लेखक देशभक्ति की भावना से छलछलाते लेख लिखते। अंग्रेजी सत्ता के अन्याय और अत्याचारों की बखिया उधेड़ते। देखते ही देखते चारों ओर राष्ट्रीयता की लहर फैल गई।
उन्हीं दिनों महाराष्ट्र में अकाल और कुछ समय बाद प्लेग फैला, तो तिलक ने अंग्रेज अधिकारियों को चेताया कि वे जनता की मदद करें। जनता को भी अपने अधिकारों के लिए निर्भीक होकर लड़ने की प्रेरणा दी। उस समय एक घमंडी अंग्रेज अधिकारी के अत्याचारों से लोग इतने दुखी हुए कि उसकी हत्या कर दी गई। अंग्रेजों ने बेकसूर जनता पर जुल्म ढहाना शुरू कर दिया। उन दिनों तिलक ने अपने लेखों में आग उगलते हुए कहा, “अंग्रेज सरकार चेत जाए, वरना अच्छा नहीं होगा।” बौखलाई अंग्रेज सरकार तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा कर दिया। पर तिलक तब भी उतने ही धीरज और निर्भीकता से अपना काम करते रहे।
जिस समय अंग्रेजों ने बंगाल के विभाजन की नीति बनाई, तिलक गरज उठे, “यह अन्याय हम बर्दाश्त नहीं करेंगे।” उन्होंने जनता को चेताया कि अगर इस अन्याय का हमने मिलकर विरोध नहीं करेंगे तो जो आज बंगाल में हुआ है, वह कल देश के दूसरे प्रांतों में होगा। लिहाजा पूरे देश में गुस्से की लहर फैल गई। तिलक पर फिर से राजद्रोह का मुकदमा चला कि वे लोगों को हिंसा के लिए भड़का रहे हैं, पर तिलक झुके नहीं। उनका कहना था कि “स्वराज्य हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। उसे हम लेकर रहेंगे। हम अपनी स्वाधीनता के लिए अंग्रेजों से भीख नहीं माँगेंगे।”
कांग्रेस उस समय जिस नरम नीति पर चल रही थी, तिलक को उससे दुख होता था। उन्होंने होमरूल आंदोलन शुरू किया, जिसका नारा था कि भारत के लोगों को अपने देश पर खुद शासन करने का हक मिलना चाहिए। कांग्रेस में कुछ लोग उनके गरम विचारों के विरोधी थे, पर भारतीय जनता का उन्हें पुरजोर समर्थन मिल रहा था। जहाँ भी वे जाते, वहाँ जनता उनके दर्शन करने और उनकी वाणी सुनने के लिए उमड़ पड़ती। उन्हें गर्व से ‘महाराष्ट्र केसरी’ कहकर पुकारा जाता।
अंग्रेज सरकार ने तिलक को गिरफ्तार करके बरमा की मांडले जेल में डाल दिया। पर यहाँ भी तिलक को चैन नहीं था। उन्होंने जेल में रहकर ‘गीता रहस्य’ ग्रंथ की रचना की, जिसमें गीता का सच्चा अर्थ यह बताया गया कि अपने कर्त्तव्य से मुँह न मोड़ना ही सच्चा धर्म है। आगे चलकर उनकी यह पुस्तक क्रांतिकारियों और स्वाधीनता सेनानियों की सबसे प्रिय और प्रेरणादायक पुस्तक बनी। इसी तरह उन्होंने ‘औरियन’ तथा ‘आर्कटिक होम इन वेदाज’ किताबें लिखीं, जिनमें वेदों और आर्य सभ्यता के बारे में बहुत सी नई बातें थीं। उनकी ये पुस्तकें देखते ही देखते बेहद लोकप्रिय हो गईं। जनता के मन में अपनी संस्कृति के प्रति गौरव का भाव पैदा करने में उन्होंने बड़ी भूमिका निभाई।
मांडले जेल से छूटकर आने के बाद तिलक कई दिनों तक शांत बैठे, क्योंकि अंग्रेजों ने उन्हें ‘ब्रिटिश साम्राज्य का शत्रु’ कहकर उनके घर के चारों ओर पहरा बैठा दिया था। पर जैसे ही प्रथम विश्व युद्ध शुरू हुआ, अंग्रेजों को भारतीयों का साथ लेने की जरूरत पड़ी। तिलक पर भी बंधन शिथिल कर दिए गए। वे स्वराज्य के पक्ष में जोर-शोर से प्रचार करने लगे।
पूना में उनका 61वाँ जन्म दिन मनाया जा रहा था, तभी देशद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। मुकदमा चला, पर इस बार तिलक जीत गए। न्यायाधीश थे मोहम्मद अली जिन्ना। उन्होंने फैसला सुनाया कि “स्वराज्य की माँग करना गैरकानूनी नहीं है।”
अब तो सारे देश में लोकमान्य तिलक का जय-जयकार होने लगा। कांग्रेस ने अपने संविधान में ‘स्वराज्य’ शब्द को शामिल किया। यह तिलक और भारतीय स्वाधीनता संग्राम की एक बहुत बड़ी जीत थी।
इस मराठा शेर ने देश के लिए लड़ते-लड़ते ही आखिरी साँस ली। उन्होंने अंग्रेजों को इस कदर कँपा दिया था कि तिलक का नाम लेते ही, अंग्रेज अधिकारियों में सिहरन पैदा हो जाती थी।
ये कहानी ‘शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Shaurya Aur Balidan Ki Amar Kahaniya(शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ)
