Netaji Subhash Chandra Bose Jayanti: ब्रिटिश हुकुमत से हमारे देश को आजाद कराने के स्वप्न को सच करने वाले स्वतंत्रता सेनानियों में एक हैं- नेताजी सुभाष चंद्र बोस। ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा देकर उन्होंने इस सपने का हिस्सेदार सभी भारतवासियों को बनाया। हमेशा सशक्त और स्वतंत्र भारत का सपने को साकार करने हेतु अपने जीवन का सर्वस्व न्योछावर कर दिया। महात्मा गांधी ने भी उन्हें देशभक्तों का देशभक्त कहा था।
सुभाष चंद्र बोस अपने फैसले और हिम्मत से दुनिया को बदलने का हौसला रखते थे। बचपन से ही प्रतिभा के धनी थे और ‘सिंपल लिविंग एंड हाई थिंकिंग’ विचारधारा को मानते थे। स्वामी विवेकानंद को अपना मार्गदर्शक मानते थे। स्वामी जी के समाज सेवा और देशभक्ति के आदर्शों और विचारधारा का अनुसरण करते थे। गरीबों और मित्रों की मदद के लिए सदा तत्पर रहते थे। वे आज भी युवाओं के प्रेरणास्रोत हैं। उनके विचार आज भी हमें अपने देश के लिए कुछ कर गुजरने के जज्बे से भर देते हैं।‘अगर जीवन में संघर्ष न रहे, किसी भी भय का सामना न करना पड़े, तो जीवन का आधा संवाद ही समाप्त हो जाता है’- नेताजी का यह कथन ही नहीं, उनका त्याग और बलिदान हमें राष्ट्रभक्ति के लिए प्रेरित करता रहेगा। 23 जनवरी 1897 को ओडिशा के कटक शहर में जन्मे नेताजी के जीवन के कुछ रोचक पहलुओं के बारे में जानें-
पढ़ाई में थी दिलचस्पी

5 साल की उम्र में ही वे अपने भाई-बहनों के साथं मिशनरी स्कूल जाने लगे थे और खूब मन लगाकर पढ़ते थे। चौथी क्लास में उनहें रावेंशॉ कॉलेजिएट स्कूल जाना पड़ा। बंगाली मातृभाषा न आने के कारण क्लास में शिक्षक द्वारा की गई अवहेलना का उन पर खासा असर हुआ। पूरी मेहनत कर फाइनल एग्जाम में सर्वाधिक अंक प्राप्त किए। मैट्रीकुलेशन एग्जाम में कलकत्ता में टॉप रैंक पर रहा। फिलॉस्फर में ग्रेजुएशन की। माता-पिता के सपने को पूरा करने के लिए आइसीएस यानी भारतीय सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने के लिए लंदन गए थे। जिसमें अंग्रेजी में सबसे ज्यादा नंबर अर्जित किए और ऑलओवर चौथे पायदान पर रहे, जो बड़ी उपलब्धि थी।
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देशप्रेम की खातिर छोड़ी नौकरी
नेताजी ने निजी सुख-सुविधा का जीवन त्यागकर देश की सेवा में खुद को समर्पित किया। परिवार के दवाब में वर्ष 1919 में उन्होंने भारतीय सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी करने के लिए लंदन गए थे। जिसमें उनका चयन भी हो गया। वो चाहते तो वे आराम से सिविल सेवा की नौकरी कर सकते थे, लेकिन देशप्रेम की खातिर उन्होंने नौकरी से त्यागपत्र दे दिया।
असल में आइसीएस की परीक्षा में पास होने के बाद जब वे ट्रेनिंग ले रहे थे। एक टेस्ट पेपर में अंग्रेजी से बंगला में अनुवाद करने को मिला जिसमें एक वाक्य का मतलब था-‘अधिकांश भारतीय जनता बेईमान होती है’- सुभाष भारतीयों पर झूठा कलंक लगाने के लिए वाक्य का विरोध करने लगे। टेस्ट लेने वाले अंग्रेज अफसर ने उन्हें आगाह किया कि नौकरी पाने के लिए टेस्ट में इस वाक्य का अनुवाद करना ही पड़ेगा। युवा नेताजी उन्हें करारा जवाब देकर परीक्षा छोड़कर आ गए कि अपने देश के मुंह पर कालिख पौत कर नौकरी करने के बजाय वो भूखा मरना पसंद करेंगे।
समाजसेवा से जुड़े
अंग्रेजों के बढ़ते अत्याचार और गरीबी में भूखे मरते भारतीयों की खबरों से हो रहे नेताजी से परेशान होकर नेताजी लंदन से वापस आ गए। समाजसेवा शुरू की। उस समय ओडिशा, बंगाल के साथ कई राज्यों में चेचक और हैजा का प्रकोप फैला हुआ था। डॉक्टरी सुविधाएं आम लोगों की पहुंच से दूर थीं। लोग इसे छुआछूत की बीमारी मानते थे और जानकारी के अभाव में साफ-सफाई का ध्यान नहीं रखते थे। उनका दोस्त चेचक से ग्रसित हो गया। हॉस्टल के साथी उसे अकेला छोड़ गए। नेताजी उसके पास गए और इलाज शुरू करवाया। तब से इन बीमारियों से खुद संक्रमित होने की परवाह किए बिना सुभाष ने ऐसे लोगों की मदद करनी शुरू की। अपने कुछ दोस्तों को भी इस कार्य से जोड़ा। लोगों को इनसे बचाव के लिए जागरूक किया।
स्वतंत्रता आंदोलन में भागीदारी

रवींद्रनाथ टैगोर के कहने पर बोस गांधी जी से जुलाई 1921 में मिले। गांधी जी की सलाह पर कोलकाता के महापौर दासबाबू के साथ मिलकर आजादी के लिए प्रयास करने लगे। दासबाबू ने उन्हें महापालिका का प्रमुख अधिकारी बनाया। इस पद पर रहते हुए बोस ने कोलकाता के रास्तों का अंग्रेजी नाम बदलकर भारतीय नाम दिया।
सक्रिय राजनीति में आने से पहले वे यूरोप गए। वहां जाने का उनका मकसद स्वतंत्रता हासिल करना ही था। राजनीतिक गतिविधियों के साथ कूटनीतिक और सैन्य सहयोग जुटाना था। यूरोप में हिटलर के नाजीवाद और मुसोलिनी के फासीवाद का बोलबाला था। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जर्मनी पर इंगलैंड का दवाब था। दुश्मन का दुश्मन दोस्त होता है- इस नीति पर अमल करते हुए वे हिटलर और मुसोलिनी से मिले। चूंकि वे अंग्रेजों से अपने देश को आजाद कराना चाहते थे। नेताजी ने उनके साथ मिलक ब्रिटिश हुकुमत और देश की आजादी के लिए कई काम किए। हिटलर सुभाष चंद्र बोस की देशभक्ति और पर्सनल स्टाइल ऑफ लीडरशिप से प्रभावित हुए। हिटलर ने तो उन्हें ‘नेताजी’ की उपाधि दी। इसके बाद सुभाष देश-विदेश में नेताजी के नाम से प्रसिद्ध हो गए।
सुभाष चंद्र बोस ने दूसरे विश्व युद्ध के दौरान मास लेवल पर भारतीयों के हक में लड़ने की ठानी। पूरे भारत से मिली सपोर्ट देखकर अंग्रेज घबरा गए और उन्हें जेल में बंद कर दिया। सुभाष दो सप्ताह तक भूखे रहे। उनकी जिद और तबीयत खराब होती देख अंग्रेजों ने उन्हें उनके घर पर नज़रबंद कर दिया। जनवरी 1941 में सुभाष वेष बदल कर घर से भाग निकले और जर्मनी पहुंच गए। वहां से लौटकर उन्होंने ‘इंडियन नेशनल आर्मी’ का गठन किया जो आज भी भारतीय सेना के रूप में देश की सेवा कर रही है।
देश की आजादी के लिए अंतिम सांस तक लड़ने के संकल्प के साथ आजाद हिन्द फौज का अभियान शुरू किया जिसने अंग्रेजों से जमकर लोहा लिया और कई मोर्चाे पर परास्त किया। संधर्ष से देश के लोगों को जोड़ने के लिए नेताजी ने 1942 में जर्मनी में आजाद हिंद रेडियो की शुरूआत की। ‘जन-गण-मन’ को फौज के राष्ट्रगान के रूप में अधिकृत किया। ‘कदम-कदम बढ़ाए जा, खुशी के गीत गाये जा’ इस संगठन का वह गीत था जिसे गुनगुनाकर संगठन के सेनानी जोश और उत्साह से भर उठते थे। उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में लोगों की सहभागिता के लिए कई उत्तेजक नारे भी दिए- ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’, ‘जय हिन्द’ और ‘दिल्ली चलो’।
नेताजी को स्वतंत्रता आंदोलन के क्रम में अनेक कार्रवाई, गिरफ्तारियां और यहां तक कि निर्वासन का सामना करना पड़ा। लेकिन उनके दृढ़ आत्मविश्वास ने उन्हें कभी कमजोर नहीं पड़ने दिया। महात्मा गांधी समेत कांग्रेस के कई दूसरे सदस्यों से वैचारिक मतभेद के बावजूद उन्हें स्वराज के अपने विचार पर अटूट विश्वास था। देश में गांधीजी की अहिंसा की आंधी के बावजूद आजाद हिन्द फौज केी आक्रामकता, उग्रता और साहस के कारण काफी लोकप्रिय हुई।
1943 में जर्मनी छोड़कर जापान, उसके बाद सिंगापुर गए। वहां उन्होंने आजाद हिंद फौज का पुनर्गठन किया। 1944 में बर्मा में पहुंचे। यहीं उन्होंने ‘तुम मुझे खून दो, मैं तुम्हें आजादी दूंगा’ का नारा दिया। सुभाष चंद्र बोस इतने प्रभावशाली व्यक्तित्व के धनी थे कि अंग्रेजों के मन में हमेशा उनका खौफ बना रहता था। अंग्रेजी हुकूमत उनके निधन की झूठी खबरें उड़ा देती थी ताकि देशवासियों का मनोबल टूट जाए। माना जाता है कि इसी बीच 18 अगस्त 1945 को टोक्यो जाते हुए ताइवान के पास नेताजी की मौत हवाई दुर्घटना में हो गई। हालांकि उनका शव नहीं मिल पाया। यही वजह है कि उनकी मौत और उसके कारणों पर आज भी विवाद बना हुआ है।
