Hundred Dates
Hundred Dates

Hindi Love Story: शहर का मरीन ड्राइव। बड़े तालाब को चारों ओर से घेरे हुए साफ़ फुटपाथ; मॉर्निंग, इवनिंग वॉक और चटर-पटर खाने के लिए आदर्श। चौड़े फुटपाथ के किनारे बेंच, जिन पर गर्मी की शाम अच्छा समय बिताया जा सकता है। उसने जब मुझे यहाँ आने के लिए कहा तभी उसकी आवाज़ में उदासी मैंने पहचान ली थी।

“मुझे लगता है मैं एक घर की तलाश में भटक रही हूँ। मेरा घर जो मेरा था ही नहीं, वहाँ मेरा समय पूरा हो चुका है और मेरे घर वाले मुझे घर से निकाल देने की जल्दी में हैं।” उसने अपने हैंडबैग से पानी की बॉटल निकाली और मेरी ओर बढ़ाई,जिसे मैंने सर हिलाकर मना कर दिया।

“अरे डियर! यह तो सामाजिकता का नियम है; सब के ऊपर ज़िम्मेदारियाँ होती हैं।” पता नहीं क्यों पर कहा मैंने बहुत बेपरवाही से था।

शायद यह बात वह बहुत बार सुन चुकी थी। उसने चिढ़ते हुए कहा-“तो मैं ख़ुद मेरी ज़िम्मेदारी हूँ किसी और की नहीं। जिस घर में अब तक थी,उनकी मर्यादाओं पर चल कर वहाँ की क़ीमत चुकानी होगी और जिस घर में जाऊँगी उसकी क़ीमत मर्यादाओं के साथ-साथ किसी आदमी के साथ सोकर, उसके बच्चे पैदा कर, खाना बनाकर, झाडू-पोंछा लगाकर और बूढ़े-बुढ़िया की सेवा करके चुकानी होगी। इतना महंगा होता है एक लड़की के लिए अदना सा आशियाना?”

मुझे उसकी खीज पर बेदर्द मस्ती छाई- “अगर तुम क़ीमत में आंको तो हाँ, बहुत महंगा होता है। और लड़कियों के लिए ही नहीं, लड़कों को भी पूरी क़ीमत चुकानी पड़ती है। हर किसी ने उस चीज़ की क़ीमत चुकाई होती है, जो उसके पास है।”

“क्या है मेरे पास, जिस पर मेरा अधिकार हो?” उसने शायद मेरी बातों को इतना तवज्जो नहीं दिया।

“फिर से सोचो। अधिकार की जिस माँग पर चलना चाह रही हो; उसकी क़ीमत तो चुकानी ही होगी। पहले या बाद में, पर चुकानी होगी। मैंने कहा था तुम्हें अपने पैरों पर खड़े होना, तब तो तुम मेकअप और सोशल मीडिया से छुटकारा नहीं पा पायी। ख़ुद को प्रोडक्ट की तरह सज़ाया है, तो अब शिकायत तुम्हें करनी नहीं चाहिए। इश्क़ मेरे लिए भी था, पर सिर्फ़ यही जिंदगी नहीं; यह भी समझाया था तुम्हें। तुमने ख़ुद चुनी है अपने परजीवी होने की ज़िंदगी। जिस रास्ते पर तुमने ख़ुद को छोड़ दिया है; मुझे नहीं लगता तुम्हें उतने से ज़्यादा मिलेगा, जितने में तुम मर ना जाओ।”

मैंने उसकी आँखों में दुनिया के लिए नफ़रत डबडबाते देखी। समाजी बुतपरस्ती की बेड़ियाँ जब पाँवो पर लगातार ज़ख़्म बनाती चलें तो कोई सिलाई क़ाबिल नहीं ठहरती। मन हुआ कि ख़ुद की तीखी ज़बान पर अफ़सोस करूँ; पर यह सोच कर मन ख़ुद से पलट गया कि बहुत बार पर्देदार हमदर्द से बेहतर क़ातिल भी हो सकता है।