इसके बाद मुकदमा चलना ही था, चला। इस मुकदमे की पूरी रिपोर्ट भी अखबार के पन्नों में नजर आती और लोग खोद-खोदकर पढ़ते। यहाँ तक कि अदालत में भी जब इस केस की सुनवाई होती, हजारों लोगों की भीड़ वहाँ जमा हो जाती।
अचानक पूरे शहर की—और शहर ही क्यों, पूरे देश की गोपालपुर के इस अद्भुत चोर में दिलचस्पी हो गई थी। मुकदमा चलने पर जज ने भी वही बात कही, जो पुलिस अधिकारियों ने कही थी—
“सुबोधकांत जीनियस है, लेकिन एक भटका हुआ जीनियस! हम इसे मारना नहीं चाहते, खत्म नहीं करना चाहते, बल्कि इसे सुधारकर सही रास्ते पर लाने की जरूरत है।”
जिस दिन मुकदमे का फैसला सुनाया जाना था, कोर्ट में सुबोध के माता-पिता और चेन्नई के कंप्यूटर विज्ञान विभाग के डायरेक्टर मि. जी. गोपालस्वामी भी उपस्थित थे। सुबोधकांत सक्सेना को सिर्फ एक साल की सजा सुनाई गई। एक सांकेतिक सजा, जिससे वह अपने को सुधार ले और अब भी अपने लक्ष्य को पहचान ले।
सुबोधकांत शर्मिंदा था, बेहद शर्मिंदा। उसने कहा, “मुझे यह सजा खुशी-खुशी स्वीकार है। बस, जेल में मुझे एक कंप्यूटर दे दिया जाए, जिसके जरिए मैं नए-नए आविष्कारों में अपनी शक्तियाँ लगाता रहूँ।…” उसकी यह बात जज ने मंजूर कर ली थी।
सुबोधकांत जब पुलिस के संरक्षण में जा रहा था तो अपने सामने गीली आँखों में आँसू लिए अपने माता-पिता और गुरु मि. जी. गोपालस्वामी को उसने देखा तो वह फूट-फूटकर रो पड़ा। उसने कसम खाई कि अब वह और भटकेगा नहीं और फिर से कंप्यूटर की दुनिया में नए-नए आश्चर्यजनक आविष्कारों की अपनी मंजिल की ओर लौट आएगा, ताकि इनसान का जीवन और अधिक सुखी और आनंदमय बनाया जा सके।…
यहाँ तक कि सामने खड़े निक्का को भी उसने प्यार किया और उसके सिर पर हाथ फेरा। उसका गुस्सा अब काफूर हो चुका था।
सचमुच यह सुबोधकांत अब पहले वाले सुबोधकांत से कतई अलग था। उसे भीगी आँखों से विदाई देने वाले बहुत थे, जो यह उम्मीद कर रहे थे, जल्दी ही यह हाईटेक चोर जेलखाने से छूटे और एक महान कंप्यूटर विज्ञानी बनकर दुनिया में देश के ताज को और अधिक ऊँचा और चमकीला बनाए।
ये उपन्यास ‘बच्चों के 7 रोचक उपन्यास’ किताब से ली गई है, इसकी और उपन्यास पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Bachchon Ke Saat Rochak Upanyaas (बच्चों के 7 रोचक उपन्यास)
