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Hindi Kahani: हाथ में कॉफी का कप लिए शिल्पी देर तक शून्य में घूरती रही.भारत की एक टॉप एमएनसी में उसने टेस्ट और इंटरव्यू दिया था। रिज़ल्ट उसी दिन आया था। उसे पूरी उम्मीद थी कि इस बार उसका चयन हो जाएगा। वह अपनी माँ को एक बेहतर जीवन देना चाहती थी। मगर सबकुछ अच्छा होने के बावजूद उसका नाम सूची में नहीं था.क्या ये अंधकार ही उसके जीवन की सच्चाई बन गई हैं? एक इंटरव्यू के बाद दूसरा मगर रिजल्ट जीरो.

दिल बैठ गया। उसे लगा कि वह कब तक माँ के पैसों पर बोझ बनी रहेगी? हर महीने मम्मी से पैसे मांगते हुए उसे अब शर्म आती हैं.

इतने में पीछे से माँ आईं। उन्होंने लाइट ऑन करते हुए कहा—

“यहाँ अंधेरे में क्यों बैठी हो, बेटी?”

शिल्पी फीकी हंसी से बोली—

“मम्मी, क्या इस रोशनी से मेरी ज़िंदगी का अंधेरा दूर होगा? सरकारी नौकरी में आरक्षण है, प्राइवेट में सिफारिश और भाई-भतीजावाद।”

” अब तो अपनी डिग्रियों पर भी शक होने लगा है “

माँ ने उसके कंधे पर हाथ रखा और बोलीं—

“बेटा, अंधेरा कितना भी गहरा हो, सवेरा ज़रूर आता है।”

माँ का हौसला   शिल्पी  को  थोड़ा संभाल गया। फिर माँ ने कहा—

“चल, अविका को फोन कर ले। दोनों की बातें होंगी तो मूड हल्का होगा।”

लेकिन शिल्पी ने मना कर दिया। “उसका तो इंटरव्यू मुझसे भी खराब हुआ था, क्या बात करूँ?”

दो दिन तक शिल्पी का मूड ख़राब रहा, मगर तीसरे दिन उसने मायूसी उतार फेंकी। कुछ और कंपनियों में ओपनिंग निकली थी। उसने अप्लाई करने का फैसला किया और अविका को भी बताने सोचा।

फोन मिलाया तो अविका की माँ ने बताया—

“बेटा, उसकी तो परसों जॉइनिंग है। उसका सिलेक्शन हो गया।”

फोन रखते ही शिल्पी का दिल भर आया। तकिये से लिपटकर वह देर तक रोती रही। जलन नहीं थी, मगर नाइंसाफी चुभ रही थी। बचपन से लेकर हर एग्ज़ाम तक वह अविका का सहारा रही थी। फिर भी उसका चयन नहीं हुआ और अविका कामयाब हो गई।

शाम को माँ उसे डिनर पर ले गईं। धीरे से समझाया

“बेटा, ज़िंदगी हमेशा हमारी सोच के हिसाब से नहीं चलती। कई बार हमें लगता है कि दुनिया हमारे साथ बेईमानी कर रही है। पर मेहनत कभी बेकार नहीं जाती। तुम्हें तुम्हारे हिस्से की सफलता ज़रूर मिलेगी।”

उस रात शिल्पी देर तक सोचती रही।

“माँ ने इतनी ठोकरें खाकर भी हिम्मत नहीं हारी… और मैं एक छोटे से झटके पर हार मान लूँ?”

“मां के साथ तो कोई हौंसले देने वाला भी नहीं था फिर भी वो डटी रही और माँ उसके साथ ढाल बन कर खड़ी है और वो हार मान कर बैठ गयी  हैं “

सुबह होते ही उसने फिर से कोशिश शुरू कर दी थी. आखिरकार मेहनत रंग लाई। उसे एक कंपनी से जॉब ऑफर मिला। तनख्वाह बहुत ज़्यादा नहीं थी, मगर कम भी नहीं थी। वह संतोष से काम करने लगी.

लेकिन दिल के किसी कोने में अविका की याद फांस की  तरह  चुभती रहती।

एक दिन अचानक अविका का फोन आया।

“अरे शिल्पी, तुम तो मुझे भूल ही गई!”

थोड़ी कड़वाहट के साथ शिल्पी ने कहा—”जैसे तुम बिना बताए नौकरी जॉयन कर ली थी “

अविका हँसते हुए बोली—

“यार, मुझे लगा तुम्हें बुरा लगेगा। वैसे भी… डैड ने पहले ही कहा था—टेंशन मत ले, रिज़ल्ट अपने हक़ में रहेगा। बड़ी कंपनियों में इंटरव्यू तो फॉर्मेलिटी है। असली बात बाद में होती है”

शिल्पी चुप रह गई. उसे सब समझ आ रहा था कि ये नौकरी अविका को काबिलियत के बलबूते पर नहीं ब्लकि सिफारिश की बैसाखी के कारण मिली हैं.

अविका खुशामदी स्वर में बोली “चल तेरी शिकायत दूर करते हैं और कल घर पर लंच पर मिलते हैं “

लंच पर अविका बोली “देख शिल्पी ये डेटा एनालिसिस और रिपोर्ट तेरे लिए बहुत आसान हैं, मदद कर दे थोड़ी सी “

“बाकी क्लाइंट को तो मैं पटा लूँगी “

धीरे-धीरे यह सिलसिला बन गया. अविका हर वीकेंड शिल्पी को बुलाती, लंच या गेट-टुगेदर के बहाने पूरा काम उससे करवाती—रिपोर्ट्स, क्लाइंट प्रेज़ेंटेशन, मार्केट एनालिसिस.कंपनी में ओपनिंग की बात होते ही अविका टाल देती.

कभी ऐसे बोलती “यार बड़ी बड़ी कंपनियां में थोड़ा बहुत जान पहचान चलती हैं “

शिल्पी समझ रही थी कि उसका इस्तेमाल हो रहा है, मगर वह चुप रहती.

एक दिन शिल्पी को एक शानदार प्रोजेक्ट आइडिया सूझा। उसने अविका से साझा किया। अविका हँसते हुए बोली—”ये सब क्लाइंट अप्रूव नहीं करेंगे। वैसे भी प्रोजेक्ट हमें कंपनी के कनेक्शन से ही मिल रहा है”

“मगर शिल्पी ने हार नहीं मानी। उसने सीधे क्लाइंट को अपना   आइडिया  मेल  कर दिया था “

एक महीना बीत गया। शिल्पी भी उस बात को भूल चुकी थी। तभी एक दिन मेल आया—क्लाइंट को उसका आइडिया बहुत पसंद आया है. इतना ही नहीं, उसे ऑनशोर में  एक  नामी कंपनी से ऑफर भी मिला था.सैलरी उसकी मौजूदा आय से दस गुना ज्यादा थी.

कॉन्ट्रैक्ट साइन करते वक्त शिल्पी की आँखें चमक रही थीं.उसे लगा थोड़ी देर लगी मगर कुदरत ने उसके हिस्से की कामयाबी उसे दे दी हैं.

जब आँखों में जुगनुओं की चमक लिए शिल्पी घर पहुंची तो माँ ने मुस्कुराकर पूछा—“इतनी खुश क्यों है?”

शिल्पी ने गहरी सांस ली और कहा”मम्मी, आप सही कहती थीं। मेहनत कभी बेकार नहीं जाती. फर्क बस इतना है कि सिफारिश से मिली कुर्सी टिकती नहीं, लेकिन मेहनत से मिली इज्ज़त हमेशा साथ रहती है”

अविका को जब पता चला तो इतराते हुए बोली “चलो मेरे कनेक्शन से तुम्हारा भी भला हो गया “

शिल्पी अंदर से इतनी संतुष्ट थी कि उसने अविका की बेवकूफी का कोई ज़वाब नहीं दिया.

हवाई जहाज़ की उड़ान के साथ शिल्पी  ने  अपनी मायूसी और हताशा पीछे छोड़ दी.हौंसले की उड़ान ने सिफ़ारिशों के दलदल  को कहीँ दूर छोड़ दिया था.