"Aur phir ud gae Hans" panchtantra-ki-kahani
"Aur phir ud gae Hans" panchtantra-ki-kahani

Hindi stories “Aur phir ud gae Hans”

पात्र-परिचय हवा दीदी निक्का, निक्की और मोहल्ले के सब बच्चे सोने के पंख वाले हंस, घमंडी हंस हेमवर्ण राजा चित्ररथ, उसकी रानी, मंत्री, सभासद, राजसेवक आदि।

पहला दृश्य

(स्थान–गली या मोहल्ले के पास वाला खेल का मैदान, जिसमें एक तरफ बच्चे खड़े-खड़े बातें कर रहे हैं। तभी हवा तेजी से बहती हुई आती है और बच्चों को मजे से बातें करते और खेलते देख, ठिठक जाती है। फिर हवा दीदी बच्चों के पास आकर बड़े उत्साह से बताने लगती है।)

हवा दीदी : ओहो, भाई, वे हंस तो अच्छे थे, बहुत अच्छे। उनके सोने के पंख थे। पर उनके साथ बुरा हुआ। बेचारे हंसों को तालाब छोड़कर भागना पड़ गया।

निक्का : (उत्सुकता से) पर कौन से हंस, हवा दीदी? तुम कौन से हंसों की बात कर रही हो?

निक्की : वो सोने के पंख वाले हंस कौन से तालाब में थे, हवा दीदी? क्यों उनको भागना पड़ गया?

निक्का : हवा दीदी, क्या तुम आज फिर जंगल में गज्जू दादा को कोई मजेदार नाटक देखकर आ रही हो?

हवा दीदी : (हँसती हुई) बिल्कुल ठीक समझा तुमने…बिल्कुल ठीक। और नाटक भी ऐसा-वैसा नहीं। इतना मजेदार था नाटक कि क्या कहें?

निक्का : नाटक में क्या था हवा दीदी?

निक्की : क्या किसी ने तालाब में आकर भगा दिया सोने के पंख वाले हंसों को।

हवा दीदी : (प्यार से गरदन हिलाते हुए बड़ी कौतुक-मुद्रा में) हाँ, बात तो कुछ ऐसी ही थी। पर इस किस्से में बहुत सारे किस्से और भी हैं।

निक्का : किस्से…?

निक्की : कैसे किस्से हवा दीदी?

सब बच्चे : हाँ-हाँ दीदी, बताओ-बताओ।

हवा दीदी : (हँसते हुए) लो देखो यह नाटक, जिसे आज ही मैंने देखा है। तुम भी देखो और सोचो कि इसमें तुम्हारे लिए क्या सीख है?

दूसरा दृश्य

(एक था राजा चित्ररथ। वह बड़ा उदार, प्रतापी और समृद्धिशाली राजा था। उसके राजमहल में एक विशाल सरोवर था, जिसे सब कमल सरोवर कहते थे। उस सरोवर में सुंदर कमल के फूल उगे थे जिनकी सुंदरता दूर से मुग्ध करती थी। उस सुंदर कमल सरोवर में सुनहले रंग के हंस तैरते रहते थे।)

पहला सभासद : आहा, कितने अच्छे हैं ये सुनहले हंस। जैसे सोने के हों।

दूसरा सभासद : तुमने सच कहा भाई, ये हंस केवल सुनहले रंग के ही नहीं हैं, बल्कि उनमें एक अनोखा गुण भी है।

तीसरा सभासद : ये थोड़े-थोड़े समय बाद अपना एक पंख गिराते हैं और वह पंख सोने का होता है।

पहला सभासद : कमाल है भाई।

(राजा चित्ररथ भी बहुत खुश था। एक दिन घूमते समय राजसेवकों से…)

राजा चित्ररथ : इन सोने के पंखों के कारण राज्य की समृद्धि बहुत बढ़ गई है। इसलिए इन सुनहले हंसों का खास खयाल रखा जाए। इस सरोवर में उन हंसों के सिवा किसी और को प्रवेश करने की इजाजत नहीं होगी।

तीसरा दृश्य

(एक दिन एक विशाल पक्षी हेमवर्ण वहाँ आया। वह भी सुनहले रंग का तथा बड़ा सुंदर था। साथ ही वह गर्वीला भी बहत था। वह भी उसी सरोवर में आकर तैरने लगा।)

सभी हंस : (एक साथ) अरे भई, सुनो-सुनो, तुम कौन हो? यहाँ कैसे आ गए?

हेमवर्ण: (मजे से हँसता हुआ) कैसे आ गया? अरे, आ गया यों ही घूमता-घामता। अहा, कितना अच्छा है यह सरोवर। मैं भी यहीं तुम लोगों के साथ रहूँगा। खूब मजा आएगा, खूब।

(इस पर सुनहले हंसों ने ऐतराज किया। हंसों के मुखिया ने हेमवर्ण को समझाया।)

हंसों का मुखिया : देखो भाई, तुम्हें इस सरोवर में रहने की इजाजत नहीं दी जा सकती। इस सरोवर में रहना चाहते हो तो पहले राजा से इजाजत ले आओ। राजा ने यह सरोवर विशेष रूप से हमें रहने के लिए दिया है। यहाँ कोई और नहीं रह सकता।

हेमवर्ण : (अकड़ते हुए) क्यों भई, ऐसी क्या खास बात है?

हंस : बात यह है भाई कि हम यहाँ रहने के बदले राजा को थोड़े-थोड़े समय के बाद सोने के पंख देते हैं, इसलिए राजा ने यह सरोवर हमें दे दिया है। अब यहाँ कोई और आकर नहीं रह सकता।

हेमवर्ण: (गुस्से में आकर) भई, आप लोग तो बड़े घमंडी जान पड़ते हैं। आपको इससे क्या कि मैं यहाँ रहूँगा या नहीं? यह सरोवर आप लोगों का नहीं, राजा का है। फिर भी आप लोग तो ऐसे अकड़ रहे हैं, जैसे आप ही इसके मालिक हों। यह बात तो ठीक नहीं है।

सभी हंस: (एक साथ) देखिए, आपको अच्छा लगे या बुरा, हम साफ-साफ कह रहे हैं कि आपको यहाँ रहने की इजाजत राजा से लेनी होगी। नहीं तो हम आपको यहाँ नहीं रहने दे सकते।

(सुनकर हेमवर्ण उसी समय राजा चित्ररथ के पास गया। गुस्से में तमतमाकर बोला…)

हेमवर्ण : महाराज, आपके कमल सरोवर में रहने वाले हंस तो बड़े ही असभ्य और बदतमीज हैं। आपने कैसे घमंडी हंसों को अपने यहाँ आश्रय दे रखा है जो आपका भी निरादर करते हैं?

राजा चित्ररथ : मेरा निरादर…? पर कैसे? इहोंने तो मुझसे आज तक ऐसा कुछ नहीं कहा।

हेमवर्ण : नहीं कहा तो क्या? पर उनकी अकड़ बताती है कि वे अपने सामने आपको भी कुछ नहीं गिनते।

राजा चित्ररथ : पर हुआ क्या? तुम पूरी बात तो बताओ।

हेमवर्ण : महाराज, वे बड़ी उलटी-सीधी बातें कह रहे थे। मैं उस सरोवर में तैर रहा था तो उन्होंने मुझे वहाँ से भगा दिया। वे घमंडी हंस कह रहे थे कि हम तो राजा की भी परवाह नहीं करते, क्योंकि हम इस सरोवर में रहने के बदले राजा को शुल्क देते हैं। अब राजा भला हमारा क्या कर लेगा? हम तो राजा का भी कहना नहीं मानते।

राजा चित्ररथ : अच्छा, ऐसा कहा उन्होंने? मैं अभी उनकी खबर लेता हूँ।

(राजा चित्ररथ ने गुस्से में आकर अपने सैनिकों को आदेश दिया…)

राजा चित्ररथ : सुनो, तुम लोग अभी जाओ और उन घमंडी हंसों को मार दो। याद रहे, एक भी सुनहला हंस अब जीवित नहीं रहना चाहिए। उन्हें भी पता चल जाए कि मैं क्या कर सकता हूँ।

(उधर हेमवर्ण के जाने के बाद हंसों के मुखिया ने उन्हें समझाया।)

हंसों का मुखिया : सुनो भाइयो, यह हेमवर्ण पक्षी मुझे तो स्वभाव से ही बड़ा दुष्ट लग रहा है। लगता है, यह राजा के पास जाकर कुछ उलटी-सीधी बात कहेगा। राजा चित्ररथ में बहुत अच्छाइयाँ हैं, पर उसमें एक ही बुराई है कि वह कान का कच्चा है। वह जरूर हमें मरवाने की कोशिश करेगा। पर हमें इससे पहले ही यहाँ से चल देना चाहिए।

सभी हंस : (एक साथ) हाँ-हाँ, हमें भी यही लग रहा है। अब हमें यहाँ नहीं रहना चाहिए।

हंसों का मुखिया : तो फिर चलो, अभी चलते हैं। इससे पहले कि कोई अनर्थ हो, हमें यह सरोवर खाली कर देना चाहिए।

(मुखिया की बात सुनते ही सभी हंस उस सरोवर को छोड़कर उड़ गए। कुछ देर बाद राज कर्मचारी सुनहले हंसों को मारने आए, तो उन्होंने देखा कि सरोवर में एक भी हंस नहीं है। उन्होंने जाकर राजा चित्ररथ से यह बात कही।)

सेवक : महाराज, वहाँ तो एक भी हंस नहीं है।

राजा चित्ररथ : (हैरानी से) एक भी हंस नहीं है? यह कैसे हो सकता है? तुमने अच्छी तरह से देख लिया था न? कहीं वे आसपास घूम न रहे हों?

सेवक : नहीं महाराज, हमने आसपास हर जगह देखा। वे कहीं नजर नहीं आए।

राजा चित्ररथ : (सख्ती से) ठीक है, ठीक है। वे भाड़ में जाएँ। मैं ऐसे घमंडी हंसों को बर्दाश्त नहीं कर सकता। वे खुद ही चले गए, यह तो और भी अच्छी बात है। अब कभी आएँ तो उन्हें छोड़ना मत। पकड़-पकड़कर मार देना। (फिर हेमवर्ण की ओर मुड़कर) हेमवर्ण, अब तुम उस सरोवर में आराम और निश्चिंतता से रहो। तुम्हें अब वहाँ कोई नहीं रोकेगा।

हेमवर्ण : (खुश होकर) बहुत अच्छा महाराज। मुझे आपसे यही आशा थी कि आप उन बदतमीत और घमंडी हंसों की एकदम छुट्टी कर देंगे, जिनके दिमाग इस कदर खराब हो गए हैं।

चौथा दृश्य

(अब अकेला हेमवर्ण पक्षी उस सरोवर में रहता था। अकेला रहते रहते वह भी ऊबने लगा। फिर वह तो था सुनहले रंग का। पर सुनहले हंसों की तरह वह सोने का पंख नहीं गिराता था। इससे राजा को बड़ा दुख हुआ।)

राजा चित्ररथ : हाय, मैंने ठीक नहीं किया। इस हेमवर्ण के कहने में आकर खुद अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। यह हेमवर्ण वाकई मुझे दुष्ट लगता है। इसी ने कुछ ऐसा उलटा-सीधा कहा कि मेरा विवेक नष्ट हो गया।

(कुछ समय बाद वह हेमवर्ण पक्षी भी वहाँ से उड़ गया। वह सरोवर अब एकदम वीरान हो गया था। एक दिन राजा और रानी वहाँ घूम रहे थे, तो…)

राजा चित्ररथ : (मन ही मन पछताता हुआ रानी से) देखो रानी, यह सरोवर अब किस कदर वीरान हो गया है। और पहले यहाँ घूमते हुए लगता था कि स्वर्ग का सुख मानो धरती पर उतर आया हो। मैं सचमुच बहुत दुखी और परेशान हूँ। मेरी समझ में नहीं आता कि मैं क्या करूँ? अब तो रात-दिन मुझे उन सुनहले हंसों की याद आती है, जो बड़े सीधे-सादे और भोले थे तथा जिनके कारण मेरा कमल सरोवर हमेशा गुंजायमान रहता था।

रानी : (उदास होकर) मैं तो उसी दिन आपको समझाना चाहती थी। पर आप गुस्से में एकदम आगबबूला थे, इसलिए कुछ कहा नहीं। मुझे तो लगता है, उन बेचारे भोले-भाले हंसों ने कुछ नहीं कहा होगा। इसी घमंडी हेमवर्ण ने अपने मन से उलटी-सीधी बातें बनाकर कह दीं।

राजा चित्ररथ : (दुखभरे स्वर में) हाँ, यही हुआ होगा। पर मैंने बिना सोचे-समझे क्या कुछ नहीं कह दिया उन हंसों के लिए? वे मेरे बारे में क्या सोचते होंगे? उन्होंने मुझ परकितना उपकार किया और बदले में मैंने…?

(राजा चित्ररथ का मन उसे धिक्कार रहा था। बारबार बुदबुदाकर कह उठता…)

राजा चित्ररथ : आह, उन हंसों ने मेरा क्या बिगाड़ा था? मैंने बेकार ही उन पर क्रोध किया, जबकि उनका कोई अपराध नहीं था।

(एक दिन दुखी होकर राजा ने अपने मंत्री और सलाहकारों को बुलाकर कहा…)

राजा चित्ररथ : आपको सोने के पंख वाले हंसों का किस्सा पता ही है। वे हमारे राज्य का गौरव थे, पर हमने अपनी गलती से उन्हें खो दिया। सच्ची बात तो यह है कि मैंने जो कुछ किया, उससे पहले सोचा नहीं था। अगर मैं सोचकर काम करता तो आज इस कदर दुखी न होता। सचमुच जो पहले सोचते हैं और फिर काम करते हैं, उन्हें कभी पछतावा नहीं होता। लेकिन जो पहले काम करते हैं, और बाद में सोचते हैं, उनके जीवन में तो दुख ही दुख भरा होता है, जैसे कि मेरे जीवन में।

(उस सरोवर की निगरानी करने वाले राजसेवक भी राजा की हालत देखकर दुखी थे।)

एक सेवक : राजा का दुख देखकर मेरा तो कलेजा बैठा जाता है।

दूसरा सेवक : सच्ची बात तो यह है कि जिस दिन वे हंस गए हैं, तब से राजा चित्ररथ कभी एक दिन भी सुख की नींद नहीं ले पाया।

गज्जू दादा : जंगल के मेरे प्यारे-प्यारे दोस्तो, बिना विचारे काम करने का यही नतीजा होता है। वैसे तो राजा चित्ररथ बड़ा समझदार था। पर हेमवर्ण की बातों में आकर यह भूल कर बैठा, जिसके लिए जीवन भर उसका मन उसे धिक्कारता रहा और उसे फिर पहले जैसा सुख कभी नहीं मिला। इस नाटक को देखते हुए आप लोगों ने भी जरूर यही सीख ली होगी कि बिना विचारे, हड़बड़ी में कोई काम नहीं करेंगे।

पाँचवाँ दृश्य

(स्थान–गली या मोहल्ले के पास वाला खेल का मैदान । निक्का, निक्की और बहुत से बच्चे हवा दीदी को घेरकर खड़े हैं और बातें कर रहे हैं।)

हवा दीदी : हाँ तो बच्चो, देख लिया तुमने सोने के पंख वाले हंसों का नाटक…?

निक्का : हाँ हवा दीदी, देखा।

निक्की : और बहुत कुछ सीखा भी।

हवा दीदी : (प्यार से सिर हिलाते हुए) अच्छा, बताओ तो, क्या सीखा?

निक्का : यही कि कोई भी काम करते समय अच्छी तरह सोच-विचार करना चाहिए। राजा ने हंसों के बारे में जो कुछ सुना, उस पर झट यकीन कर लिया। इसीलिए बाद में उसे पछताना पड़ा।

निक्की : (मुसकराते हुए) और दीदी, हंसों को भी चाहिए था कि जो नया मेहमान उनके तालाब में आया है, उसे दुत्कारते नहीं। तब उन्हें यह सब नहीं झेलना पड़ता।

हवा दीदी : बिल्कुल ठीक। (हँसते हुए) निक्का की बात भी ठीक है और निक्की की भी।

निक्का : तब तो हमने नाटक को अच्छी तरह समझ लिया हवा दीदी?

निक्की : और उससे सही सीख ले ली।

हवा दीदी : (हँसते हुए) ठीक कहा तुमने । गज्जू दादा भी जंगल में नाटक पेश करते हुए ठीक यही बात कह रहे थे।…अच्छा, तो अब विदा दो। मुझे जाना है दूर, बहुत दूर ताकि जंगल में गजू दादा का नया नाटक देखकर आऊँ और फिर आकर तुम्हारे लिए भी पेश करूँ।

(हाथ हिलाती हुई हवा दीदी विदा लेती है। बच्चे हाथ हिलाकर विदा कर रहे हैं। निक्का और निक्की के चेहरे सबसे अलग नजर आ रहे हैं।)

(परदा गिरता है।)

Hindi stories “Aur phir ud gae Hans” पंचतंत्र के अनोखे नाटक आपको पढ़ कर कैसा लगा कमेंट बॉक्स में बताए।

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