hot story in hindi- prem ki pyasi प्यार की खुशबू - राजेन्द्र पाण्डेय

पूर्व कथा- कि मेरी मम्मी मेरे पापा को छोड़कर वेदांत अंकल के साथ रहने लगी। ऐसे में, मैं पापा के पास रहने लगी, मगर पापा भी किसी तीसरी युवती को घर में ले आए और जबर्दस्ती मुझे घर से निकालकर मम्मी के पास भेज दिया। फिर मम्मी ने भी मुझे ठुकरा दिया तो मैं अकेली पड़ गई, लेकिन मर्दानी बांहों का स्पर्श पाने के लिए एक हिजड़ा और सनकी प्रोफेसर के चंगुल में फंस गई। उसे घायल कर भागी। अब आगे …….

मैं बाजार के बीचों बीच आई तो सुबह हो गई थी। दुकानें खुलने लगी थी। लेकिन मेरी किस्मत का दरवाजा बंद था। तभी मैं सहसा ही बुदबुदा पड़ी, ‘आज अपराध और अपराधी क्यों बढ़ रहे हैं? इनकी जड़ें कहां है? घर में ही तो है। आजकल घर-घर में अपराध पल रहा है। व्यक्ति को मां-बाप ही अपराधी बनाते हैं। इनका अंत भला कैसे होगा? मेरी मां, मेरे पापा क्या मेरे अपराधी नहीं हैं? उन्होंने क्या अपराध नहीं किया है? मैं समाज के लिए आज एक वेश्या बनकर रह गई हूं। उनकी गलत सोहवत में रहकर ही तो मैंने पुरुषों के आगे बिछना शुरू कर दिया। मेरे हाथ से कभी किसी का कत्ल भी हो जाए, तो कोई आश्चर्य नहीं है। आज अधिकांश परिवारों के स्त्री-पुरुष का बाहर भी किसी से संबंध चल रहा है। उनके बच्चे क्या बिगड़ेंगे नहीं? मुझे पारिवारिक संस्कार सही मिलता, मेरी परवरिश अच्छे माहौल में होती, वेदांत अंकल और रवीना जैसे स्त्री-पुरुष मेरे घर में नहीं घुसते, तो क्या मैं आज सड़क पर होती?’ यही सोचते-सोचते काफी भावुक हो उठी। एक युवा और खूबसूरत स्त्री के साथ बाहर के लोग कैसा व्यवहार करते हैं, यह मुझसे छुपा नहीं था। मर्दानी बाहो में खेलने का मेरा शौक अब मुझे अपराध की ओर धीरे-धीरे धकेलने लगा। मैं अपराधी बनकर ही शायद स्वयं की रक्षा कर सकती थी। कोई दूसरा उपाए ही नहीं था।

दस बजते-बजते सड़क के दुकानों में अचानक ही लूटपाट शुरू हो गई। मैं कुछ समझ न सकी। जहां मैं खड़ी थी, वहां सरदारों की दुकानें ज्यादा थीं। उनकी दुकानों को ही लोग विशेष रूप से लूट रहे थे, और आग भी लगा रहे थे। पुलिस दूसरी तरफ मुंह फेरे मौन खड़ी थी। घबराई हुई एक सिपाही के पास जाकर बोली, ‘यह सब क्या हो रहा है?’

‘दुकानें लूटी-जलाई जा रही है, तुझे दिखाई नहीं दे रहा है?’ सिपाही मुस्कराते हुए बोला तो मैंने जानना चाहा, ‘आखिर क्यों? क्या तुम्हारी, ड्यूटी यही है?’

‘तुझे नहीं पता, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या उनके अंगरक्षकों ने ही कर दी है और वे सरदार हैं। सरदारों को लोगों ने आतंकवादी करार दिया है।’ सिपाही यह कहकर हंसने लगा। ‘क्या तुम्हें भी सारे सरदार आतंकवादी दिखते हैं? किस कौम में चंद लोग ऐसे नहीं होते?… मैं पूछती हूं, महात्मा गांधी को नाथूराम ने प्रार्थना सभा में सबके सामने गोली से भून दिया। तब दूसरी कौम वालों ने दंगा क्यों नहीं किया या हिन्दुओं ने हिन्दुओं को क्यों नहीं मारना शुरू कर दिया? अरे जाओ, भीड़ को तितर-बितर करने की कोशिश करो। किसी एक या दो सरदार ने प्रधानमंत्री की हत्या की है और लोगों ने सभी सरदारों को ही अपराधी मान लिया है।’ मेरे यह कहते ही उसने मेरी पीठ पर घुमाकर एक डंडा जमा दिया, ‘तू भागती है कि नहीं यहां से। भीड़ को पता चल गया, कि तू सरदारों की वकालत कर रही है, तो तुझे जिन्दा ही सड़क पर फूंक देगी।’

वह शायद सच ही कह रहा था। भीड़ इधर ही चली आ रही थी और समझाना मेरे वश के बाहर की बात थी। मैं भागती हुई एक डॉक्टर के क्लीनिक में घुस गई। वहां सरदारों और हिन्दुओं की संख्या बराबर थी। मुकाबला कांटे का था। देखते-ही-देखते सड़क पर कत्लेआम शुरू हो गया। डॉक्टर ने फौरन शटर गिरा दिया। मैं थरथर कांप रही थी। मेरा पूरा जिस्म पसीने से भीग गया था। बाहर से आती चीखने-चिल्लाने की आवाजें डरा रही थी। मैंने अपने जीवन में कभी ऐसा नरसंहार नहीं देखा था। मुझसे कमरे में एक जगह बैठा न गया। मैं कांपते पैरों से कमरे की ओर बढ़ गई। तभी डॉक्टर चीख पड़ा, ‘उधर कहां जा रही हो? भीड़ की ताकत का अंदाज शायद तुम्हें नहीं है। वे लोग तुम्हें अंदर देख लेंगे, तो शटर तोड़कर यहां घुस आएंगे।

लेकिन मैं कहां मानने वाली थी। मैं खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई। हिन्दु और सिख आपस में लड़ रहे थे। जबकि दोनों ही मूलतः हिन्दु थे। यह कैसी जंग छिड़ी हुई थी? मेरा रोम-रोम कांप उठा। लोग एक-दूसरे पर बोतल फेंक रहे थे। पेट्रोल और मिट्टी के तेल में डूबे कपड़ो में आग लगाकर दुकानों पर फेंक कर तालियां पीट-पीट कर हंस रहे थे। लाखों-करोडों की दकानें ध-ध करके जल रही थीं। सडक पर लाशें बिछी हई थीं। मैंने अचानक ही आंखे बंद कर खिडकी का दरवाजा बंद कर दिया। डॉक्टर एक कोने में गमसम खडा था। मुझे उसकी मनोदशा पर हंसी आ रही थी और दया भी आ रही थी, यह कैसा डॉक्टर है, खून खराबों को देखकर डर गया है। डॉक्टर तो लाशों का पोस्टमार्टम करते हैं, उसकी ह करते हैं….ऑपरेशन करते है, फिर यह खून से लथपथ लाशों से इतना घबराया हुआ क्यों है? मैंने देखा, वह यही कोई पैंतीस-छत्तीस साल का सुंदर पुरुष था। उसके होंठों तक फैली घनी मूंछे बड़ी ही सैक्सी लग रही थीं। उसकी आंखों में गजब सैक्स अपील थी। लेकिन इस समय तो वह बिल्कुल ही नर्वस था।

इतने में वह धीरे-धीरे चलते हुए मेरे नजदीक आ खड़ा हुआ मैं कुछ समझ न सकी। फिर वह बोला, ‘तुम यहां सुबह-सुबह क्या करने आई थी?’

‘मैं तो एक मजबूर लड़की हूं। एक मानसिक रोगी के चंगुल से किसी तरह भाग निकली हूं और कोई ठिकाना ढूंढ रही हो।’

मैं इससे ज्यादा कुछ बता न सकी। डॉक्टर को यह समझते देर न लगी, कि मैं एक बेबस लड़की हूं। मेरा कोई नहीं है। वह अचानक ही बोल पड़ा, ‘अब क्या करने का इरादा है?’

‘मैं क्या बताऊं?’ मैंने यह कहते हुए देखा, उसकी निगाहें मेरे गदराए बदन पर बड़ी ही बारीकी से फिसल रही है। वह मुझे शायद आंखों ही आंखों में पी रहा था। फिर बोला, ‘मेरी पत्नी मुझसे बहुत ही दूर अपने मायके में रहती है। मैं यहां अकेला ही रहता हूं। तुम्हें जब तक कोई काम नहीं मिलता तब तक तुम मेरे पास रह सकती हो।

‘शुक्रिया… एक बात मेरी समझ में नहीं आती, तुम सारे पुरुषों की समस्या एक जैसी ही क्यों हैं? मैं जिससे भी मिल्ती हूं, उसकी पत्नी उसके साथ नहीं होती है।’ मेरी बात पर वह जोर से हंसा, ‘मर्दो की यही तो पीड़ा है।’

‘यह पीड़ा नहीं हैं। उन्होंने अपने स्वाद के लिए अपनी पत्नियों को परेशान कर स्वयं से अलग कर दिया है। उन्हें अपनी पत्नी अच्छी लगती ही नहीं…।’ मेरी बात पर वह और जोर से हंसा, ‘तुम शायद ठीक कह रही हो, लेकिन क्या पत्नियां स्वाद की भूखी नहीं है? क्या वे सहवास में बदलाव नहीं चाहती हैं? मेरी पत्नी इस मामले में बहुत ही निपुण है। वह सुंदर शरीर वाले पुरुषों से दोस्ती गांठने के लिए हरपल तत्पर रहती हैं। मैंने इसलिए उसे छूट दे दी है।’

मैं डॉक्टर की बात पर जोर से हंस पडी, ‘तो इसमें बुरा ही क्या है? क्या तुम सुंदर स्त्रियों को देखकर लार नहीं टपकाते हो? अपनी तरह अपनी पत्नी को भी क्यों नहीं समझते? एक पुरुष एक स्त्री पर मुग्ध हो सकता है, तो क्या एक स्त्री एक पुरुष पर मोहित नहीं हो सकती है? तुम पुरुष अकेले ही जीवन का आनंद क्यों लेना चाहते हो?’

डॉक्टर मुझ पर कुछ नाराज हो गया और कुछ देर के लिए चुप हो गया। शायद मेरी बात उसके गले नहीं उतरी थी। बाहर अभी भी वैसा ही तांडव जारी था। इस खून-खराबे के माहौल में भी मैं एक अच्छी जिंदगी जी रही थी।

इतने में ही डॉक्टर उठ खड़ा हुआ और जम्हाई लेते हुए बोला, ‘आईसक्रीम खाओगी?’ मैं आश्चर्य से उसका मुंह ताकने लगी, ‘डॉक्टर क्या कह रहा है? यह भी कहीं मानसिक रोगी तो नहीं है? भला ऐसे माहौल में आईसक्रीम कहां मिलेगा?’ मैं यह सोचते-सोचते बोल पड़ी, ‘डॉक्टर, आईसक्रीम कहां से मंगवाओगे?’

‘मैंने फ्रिज में चार कप आईसक्रीम रखी है।’ यह कहकर उसने फ्रिज से दो कप आईसक्रीम निकाल लीं। एक मुझे दी और एक खुद लेकर खाने लगा।

हम अंदर आईसक्रीम खा रहे थे और बाहर लोग जीवन और मौत से लड़ रहे थे। शायद दुनिया इसी का नाम है। कोई गाने सुन रहा है और कोई मातम मना रहा है। हमने जब आईसक्रीम खा ली, तो डॉक्टर मेरी ओर देखते हुए बोला, तुम जैसी हसीन लड़की यूं ही अचानक मिल जाएगी मैंने स्वप्न में भी नहीं सोचा था।’ यह कहते-कहते उसने मेरे कंधे पर कब हाथ रख दिया, मुझे होश ही न रहा।

मेरी यह पुरानी आदत थी। मर्दानी बाहों का स्पर्श पाते ही मैं बर्फ की तरह पिघलना शुरू हो जाती थी। डॉक्टर की बांहों की गर्मी से मैं पिघलने लगी थी। वह इस खेल का पुराना खिलाड़ी था। दरवाजा खोलकर दो लाल-लाल सेब निकाल लिए और एक मुझे देते हुए बोला, ‘इसे खाओ। तुम सेब से कहीं कम खुशबूदार और फायदेमंद थोड़े ही हो।’ मैं सेब दांत ये काटकर खाने लगी और डॉक्टर मेरे पास आकर मेरे बालों में उंगलिया फिराने लगा। सेब का खट्टी-मीठी और उसके स्पर्श की मिठास दोनों ही आपस में मिलकर मेरे शरीर को मथने लगे। मैं ढीली पड़ती चली गई। तभी उसने एक संतरा निकालकर उसमें से आधा मुझे दिया और आधा खुद खाने लगा। फिर संतरे की एक फांक अपने मुंह में डालते हुए वह बोला, ‘संतरे का रस कितना खट्टा-मीठा है। क्या तुम्हें नहीं लगता, स्त्री-पुरुष जब एक हो जाते हैं तो जीवन में भी खट्टी-मीठी मिठास आ जाती है?

मैं उसकी आंखों में आंखें में आंखें डालकर बोली, ‘मुझे क्या पता? इसका एहसास तो जब हम एक ही जाएंगे तभी हो सकेगा।’

डॉक्टर ने यह सुनते ही संतरा मेज पर रख दिया और मुझे अपनी गोद में बिठाते हुए बोला, ‘तुम वास्तव में ही बड़ी ही ऊंची चीज हो। एक संपूर्ण स्त्री ऐसी ही होती है।… सहवास की शुरुआत होने से पहले ही तुमने सहवास के आनंद का स्वाद चखा दिया। सभी स्त्रियां सहवास के प्रति इतने सुंदर ढंग स कहां जीती है।’ मैं यह सुनते ही चौंक गई, ‘अब तक कितनी स्त्रियां तुम्हारी बाहों में आ चुकी हैं?’

डॉक्टर हंसने लगा, ‘अपनी स्वेच्छा से कोई पच्चास स्त्रियां, लेकिन तुम उनसे एकदम ही अलग हो… एकदम ही खट्टी-मीठी। उसके यह कहने की देरी थी, कि उसका चेहरा पसीने से नहा गया। उसकी हंसी कहीं गायब हो गई।

मैं कुछ समझ न सकीं। तभी मेरी निगाहें डॉक्टर की पैंट पर चली गई। मेरी आंखे आश्चर्य से फटी की फटी रह गई। अनायास ही मुझे हंसी आ गई, ‘यह मैं क्या देख रही हूं डॉक्टर साहब! तुम्हारी पेंट तो आगे से गीली हो चुकी है।’ वह कुछ बोल नहीं पा रहा था। मैं उसकी मनोस्थिति को अच्छी तरह से समझ रही थी। वह बहुत ही शर्मिदा था। लेकिन मैं कहां चुप रहने वाली थी। किसी शेरनी की तरह दहाड पडी, ‘मुझे गोद में लेने से पहले सोच तो लिया होता, कि तुम मर्द हो भी या नहीं। अब बात मेरी समझ में आई, तुम्हारी पत्नी क्यों मायके में रह रही है और तुम कितनी बेशर्मी से उसे ही दोषी ठहरा रहे थे। जब तुम कुछ कर नहीं सकते, तो मुझे छेड़ा क्यों? नपुंसक आदमी कुछ करने से पहले ही आउट हो गया।’ यह कहकर मैंने उसे जोर से एक धक्का दिया और उसके फ्रिज से एक सेब निकाल कर खाने लगी। तभी डॉक्टर बोला, ‘मैं क्या करूं, यही तो मेरे साथ समस्या है।’

‘तो तुम पत्नी को क्यों गालियां दे रहे थे? यह क्यों नहीं कहा, कि तुम शीघ्र पतन के मरीज हो। पत्नी तंग आकर छोड़कर चली गई? अब बताओ, मैं कहां जाऊं?’ मेरे यह कहते ही डॉक्टर बाथरूम में चला गया।

अब मैं बहुत ही खुश थी, कि जो पुरुष मेरे साथ है, वह पुरुष नहीं है। मैं दंगा समाप्त होने तक यहां चैन से रह सकती हूं।

अगली सुबह मेरी आंख खुली, तो मैं खिड़की के पास आकर खड़ी हो गई। बाहर का वातावरण बिल्कुल शांत था। पुलिस अभी जहां-तहां थी, परंतु लोग आ जा रहे थे। मैं डॉक्टर को जगाते हुए बोली, ‘उठो, शटर उठाओ। दंगा समाप्त हो गया है। मैं इस कैद से ऊब गई हूं। मुझे यहां एक पल भी नहीं ठहरना।’ डॉक्टर हड़बड़ा कर उठते हुए बोला, ‘लेकिन जाओगी कहां?’

‘तुम्हे इससे क्या मतलब?’ मैंने उसे झिड़कते हुए कहा, तो वह चुपचाप शटर की ओर बढ़ गया और एक झटके में ही शटर ऊपर उठा दिया। मैं दौड़कर बाहर आ गई। मुझे बाहर आकर अजीब-सी शांति की अनुभूति हो रही थी। मैंने डॉक्टर की ओर व्यंग्यपूर्ण अंदाज में देखा, तो वह अपनासा मुंह लेकर क्लीनिक में चला गया। मुझे बड़ी हंसी आई, ‘यह गुप्त रोगों का डॉक्टर है और खुद ही गुप्त रोगी है। भला इलाज क्या करता होगा?

अपना इलाज तो अभी तक कर नहीं पाया। मैं घृणा से उसके क्लीनिक को देखती हुई सड़क पर पैदल ही चलने लगी। मेरे सामने यही तो एक समस्या थी, कि मैं जाऊं तो जाऊं कहां? लेकिन चलना तो मुझे था ही……। जिंदगी चलने का ही तो नाम है। मैं टूटी-फूटी दुकानों को, बाहर खड़े दुकानदारों को देखती हुई आगे बढ़ती ही जा रही थी। मेरे चेहरे पर कोई ठिकाना न होने का तनिक-सा भी भय नहीं था।

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