Hindi Vyangya: आपको एक बात बताऊं…? किसी को भी मत बताइएगा, दीवारों को भी नहीं क्योंकि उनके भी कान होते हैं और कान का होना बेवजह साहित्यिक तकरार को जन्म देना है।
लिहाजा रहस्य की बात यह है कि हिंदी प्रांत में रहने वाले मूल निवासी जन्मजात साहित्यकार होता है। भले ही उसे अपने घर में बोली जाने वाली मातृ भाषा- मगही, मेथिली या फिर भोजपुरी आदि का ज्ञान न हो। विद्वान लोग गलत कहते हैं कि ज्ञान को अर्जित करने के लिए घोर तपस्या, अनुभव और समर्पण की आवश्यकता होती बल्कि उन्हें यह कहना चाहिए था कि हिंदी प्रांत में रहने वाले जन्मजात ज्ञानी, व्याकरणाचार्य और एकलव्य सरीखे कलमतोड़ सिपाही होते हैं, ठीक ही तो है।
हिंदी प्रांत में जन्म ले कर, पलने-बढ़ने और लिखने वाले अहिंदी भाषी प्रथम तो लेखक बन ही नहीं सकते हैं और यदि दुर्भाग्य से थोड़ी बहुत लिखने भी लग गए तो इडलीदोसा, सांबर-चटनी मिश्रित उनकी लिखी हिंदी को कौन प्रकाशक, प्रकाशित कर अपनी ‘हरी बोल’ को दावत दे? और तब उनकी अय्यो-अम्मा कर, उनकी छपने की साध धरी की धरी रह जाएगी। ऐसी मौलिक मानसिकता वालों की मैं तहेदिल से दाद देता हूं कि जिन्हें हिंदी बोलना सलीके से न आता हो वे भला
हिंदी में लिखने का दुस्साहस की सोच भी कैसे सकते हैं?
वह भी बगैर विश्वविद्यालय की डिग्री हासिल किए हुए। बहुत नाइंसाफी है भाई, बावजूद इसके कि वे लिख कर बड़े-बड़े मठाधीशों की हवा खराब करते हैं तो मैं भी डंके की चोट पर कहूंगा कि ऐसा करने वाले अपनी स्वतंत्रता का बेजा इस्तेमाल कर सौ वर्ष पूर्व के किसी की प्रकाशित रचनाओं यथा- रपट, भेंट- वार्ता, कहानी, संस्मरण, लघुकथा, कविता आदि उठा कर अपने नाम से छपवा लेते हैं और ‘ज्ञान-पीठ’ वालों को पटा, आसमान में ज्ञान टांग कर, ‘परम-ज्ञानी’ का आवार्ड झटक लेते हैं वर्ना आप ही विचार करें कि कोई ऐरा-गैरा हिंदी के ज्ञानियों से लोहा लेने की क्या कभी हिमाकत कर सकता है भला…? जहां आज पथ-भ्रष्ट और नैतिकता शून्य की पूछ और प्रतिष्ठा है, वहां किसी प्रतिभावान को मात्र ‘चोर’ की उपाधि से अलंकृत कर, उसे तथाकथित बुद्दिजीवियों द्वारा समाज से तड़ी पार किया ही जा सकता है। इससे न केवल उनके अहम् की तुष्टि होती है, बल्कि राह के रोड़े को हटाने का भी काम प्रभावी ढंग से ही पूरा हो जाता है।
इसमें ‘वख्फ-बोर्ड’ का कानून ही लागू होता है, चोर घोषित किए जाने वाले से ही उसक निरपराध होने का प्रमाण मांगा जाता है। इस संबंध में एक हिंदी भाषी दिलजले की फरियाद काबिले गौर है, उन्होंने कहा, ‘भाषा हमारी है, इन्होने हमसे पूछे बगैर, इसमें दखल की गुस्ताखी कैसे कर ली?
यदि हम इसी तरह अपनी मातृ भाषा की अस्मत इनसे लुटवाते रहे तो आखिर में पता चलेगा कि ‘हिंदी’ धर्म परिवर्तित कर और देवदासी की वेश भूषा धारण कर ‘चारू-पानी’ की हो गई, हम कहीं के भी नहीं रह गए, यह एक प्रकार का ‘लवजेहाद’ हुआ। इनको पता होना चाहिए कि हम हिंदी वाले अपनी मातृ-भाषा को कितना आदर और मान देते हैं और यह लोग हैं कि हिंदी न जानते हुए भी, ट्रम्प की तरह लार टपकाते, अत्यंत सम्माननीय पुरस्कार ‘ज्ञान-पीठ’ कैसे प्राप्त कर लेते हैं, यह शोध का विषय है, बल्कि मैं संसद में भी यही मांग रखना चाहूंगा कि अंगुलिमाल अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प की ‘नॉवेल विश्वशान्ति’ पुरस्कार कब्जाने के ‘नीति’ की तरह ही, इनकी भी हमारी भाषा पर अनैतिक पकड़ पर, जांच आयोग घटित कर और संविधान में संशोधन की सरकार पहल कर, भविष्य में इनके हिंदी ज्ञान पर अंकुश का प्रावधान हो।’
