dhanvantari
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Hindi Katha: प्राचीन समय में धन्वंतरि नामक एक प्रसिद्ध और प्रतापी राजा हुए। उन्होंने अश्वमेध आदि अनेक यज्ञों का अनुष्ठान कर याचकों को भरपूर दान दिया। प्रजा ऐसे धर्मात्मा राजा को पाकर अत्यंत प्रसन्न थी । इस प्रकार धन्वंतरि धर्म-कर्म में संलग्न रहकर ऐश्वर्य और विषय भोगते रहे। फिर वृद्धावस्था में उन्होंने वैराग्य जीवन ग्रहण कर लिया और गंगा- सागर के संगम पर घोर तपस्या करने लगे ।

एक बार राजा धन्वंतरि ने अपने शासनकाल में तम नामक एक भयंकर और शक्तिशाली दैत्य को रणभूमि से मार भगाया था। उनके भय से वह दैत्य एक हज़ार वर्षों तक समुद्र में छिपा रहा। जब उसे ज्ञात हुआ कि राजा धन्वंतरि राज-पाट त्याग कर गंगा के तट पर तपस्या में लीन हैं, तो उसके हृदय में प्रतिशोध की अग्नि धधक उठी। वह एक सुंदर युवती का वेश धारण कर उनके पास आया और प्रेम भरे स्वर बोला ‘राजन ! मैं देव-लोक की एक अप्सरा हूँ और आपके बल — – पौरुष की प्रशंसा सुनकर यहाँ आई हूँ । आपके अतिरिक्त संसार में ऐसा कोई भी नहीं है, , जो मेरे योग्य हो। अत: हे राजन ! अपना रूप-सौंदर्य मैं आपके चरणों में अर्पित करती हूँ। आप इस दासी को स्वीकार करें। “

उसकी मीठी-मीठी बातें सुनकर धन्वंतरि उस पर मोहित हो गए। उन्होंने काम के अधीन होकर अपने तप का त्याग कर दिया और उसके साथ भोगों में लीन हो गए। जब तम ने देखा कि धन्वंतरि की तपस्या पूर्णतः खण्डित हो चुकी है तो अपनी सफलता पर प्रसन्न होकर वह वहाँ से अंतर्धान हो गया।

धन्वंतरि तम की माया से अनभिज्ञ थे । अत: वे उसके वियोग से दुखी हो गए। तभी वहाँ ब्रह्माजी प्रकट हुए और उनसे बोले “राजन ! तुम जिसके वियोग में दुखी हो रहे हो, वह तुम्हारा परम शत्रु दैत्य तम था । उसने तुम्हारा तप खण्डित करने के लिए यह माया रची थी। इसलिए उसके लिए तुम्हें शोक नहीं करना चाहिए। अब तुम भगवान् विष्णु की आराधना करो। उन्होंने ही सृष्टि की रचना की है। वे भक्तों के समस्त मनोरथ पूर्ण करने वाले हैं। वे ही तुम्हारी अभिलाषा पूर्ण करेंगे। “

ब्रह्माजी के आदेशानुसार धन्वंतरि भगवान् विष्णु की स्तुति करते हुए बोले- “प्रभु ! आप संसार में सर्वत्र विद्यमान हैं। आपकी जय हो। आप सृष्टि के रचयिता हैं। इन्द्र, अग्नि, वरुण आदि सभी देवगण आपके अंश से ही उत्पन्न हुए हैं। आपका तेज सूर्य बनकर दसों दिशाओं को प्रकाशित करता है । आप ही ज्ञान और भक्ति के जन्मदाता हैं। भगवन् ! जब-जब भक्त पुकारते हैं, आप साक्षात् प्रकट होकर उनकी सभी मनोकामनाएँ पूर्ण करते हैं। कृपया मुझ तुच्छ और अज्ञानी मनुष्य को भी दर्शन दें प्रभु।”

उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान् विष्णु साक्षात् प्रकट हुए और उनसे इच्छित वर माँगने को कहा । धन्वंतरि ने उनसे इन्द्र – पद प्रदान करने की विनती की। श्रीहरिं तथास्तु कहकर अंतर्धान हो गए। इस प्रकार भगवान् विष्णु की कृपा से धन्वंतरिं देवेन्द्र-पद पर सुशोभित हुए। जिस स्थान पर भगवान् विष्णु ने धन्वंतरि की मनोकामना पूर्ण की, वह स्थान पूर्ण तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध हुआ ।