बोधभ्रम-गृहलक्ष्मी की कहानियां
Bodhbhram

Hindi Romantic Story: शोभना से मिलना किसी चमत्कार से कम नहीं था। पूरे दस साल बाद मिले। मेरी
खुशी का ठिकाना न रहा। ऐसी ही खुशी से सराबोर मेैं शोभना के सामने उन स्मृतियों को टटोलने का प्रयास कर रहा था जिन्हे हम वर्षो पीछे छोड़ आये थे।
शोभना अपने पति के साथ मुझसे मिलने आयी थी। उसे मेरा घर कैसे मिला। पूछने पर उसने
बताया कि मेरे पड़ोस में किसी रिश्तेदार के यहां शादी में आयी थी जेहन में आपका पता था
सो पूछकर चली आयी। जानकर मुझे सुखद लगा। शोभना आज भी मुझे भूली नहीं थी
वर्ना आज के खुदगर्ज जमानें में कोई किसी को क्यों याद करें। शोभना का पति सरकारी नौकरी में थे।
एक बेटा था। यही कोई दस साल का होगा। मुझे याद आने लगा जब मैं
और शोभना प्रतिवेशी थे।
शोभना मुझसे करीब पांच साल छोटी थी। लिहाजा मैं
उससे दूरी बनाकर रखता था। पढ़ने में वह बेहद कमजोर थी। जब भी कोई सवाल पूछने
आती मैं पूरी संजीदगी से उसे समझाता
‘‘अंग्रेजी छोड़ क्यों नहीं देती?‘‘एक रोज मुझसे रहा न गया। वह सहम गयी।
‘‘ सब कहते है बिना अंग्रेजी कुछ भी नहीं है।’’
उसने बड़ी मासूमियत से जवाब दिया।
‘‘जब पढ़ने का जी करे तब न? ऐसे सझनाने से क्या फायदा। रोज एक ही बात बताता हूं मगर तुम्हारे
पल्ले कुछ नहीं पड़ता।’’ थोड़ा रूककर ’’तुम्हारे दिमाग में भूसा भरा है।’’
वह रूआंसी हो गयी।
उठकर चली जाती। बाद में मुझे अफसोस होता। विना वजह कह दिया। क्या हक है
मुझे पराए मामले में दखल देने का। अंग्रेजी समझे या न समझे मेरी बला से।’’
वक्त आहिस्ता आहिस्ता सरकने लगा। मीडिल की शोभना हायर सेकेंडरी में
पहुंच गयी।
मगर उसकी अंग्रेजी छूटी न थी। जब तब आती रहती। हां एक बदलाव सा जरूर आ गया
था हमदेानों में। शायद दिल के किसी कोने में हम दूसरे को अच्छे लगने लगे थे।
मगर पहल कौन करें।

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एक रोज वह मेरे करीब बैठी पढ रही थी तभी मेरी अंगुलियां उसके
उंगुलियों को छू गयी। उसके ओठों पर हल्की मुस्कान की रेखाएं खिंच गयी। शोभना
चली गयी। मगर मुझे एक रास्ता मिल गया। उस तक पहुंचने का।
अब मैं उस घड़ी का इंतजार करने
लगा जब शोभना पढ़ने के बहाने मेरे पास आये और साहस जुटाकर मैं अपने मन की बात कह
सकूं। तीन दिन तक जब वह नहीं आयी। मेरी बेकरारी बढ़ती गयी।
मेरा दिल डूबने लगा।
इधर उधर तांक—झांक की तो पता चला कि घर में तो है मगर आ नहीं रही है।
यह सवाल मुझे बेचैन करने लगा। कहीं उसने अन्यथा तो नहीं ले लिया। इसका मतलब सबकुछ एक तरफा
था?

इस कसमकस में एक शाम वह अचानक नमूदार हुयी। मेरीे खुशी का ठिकाना न रहा। उसकी
एक झलक मुझे भावविभोर कर गयी। वह मेरे कमरे में आयी। सकुचाते, शर्माते अंग्रेजी की
किताब मेरे सामने रख दी। आज मेरा मन उसे पढ़ाने का कम उफान लेती जज्बातों में डूब
जाने को ज्यादा कर रहा था।
वह पहल करने से रही सो मैंने ही पूछा,’’तीन चार दिन कहां
थी?’’ सुनकर उसके चेहरे का रंग बदल गया। स्वर भारी हो गया। बड़ी मुश्किल से न आने का
कारण बताया।
उठकर जैसे ही जाने को हुयी मैंने उसका हाथ पकड़ लिया। उसके चेहरे की
हवाईया उड़ने लगी। ‘‘छोडिए कोई देख लेगा।’’उसका स्वर कांपते हुए पत्ते के सदृश
था। मुझे बल मिला। ‘‘कोई नहीं देखेगा। बोलो कल आओगी न?’’जब उसने हां में
जवाब दिया तब मैंने उसका हाथ छोड़ा। उसके जान में जान आयी। वह तेजी से चलकर अपने घर
की ओर भागी।
हर चीज की सीमा होती हेै। शोभना की मोहब्बत मेरे प्रति कम न थी
मगर मैं ही उकता गया था। लोगों का भय। अगर लोगों
को पता चला तो क्या मुंह दिखाउंगा। इसलिए मैंने दूरी बनानी शुरू कर दी। फिर एक दिन
ऐसा भी आया जब हम हमेशा के लिए एक दूसरे से अलग हो गये। मेरा नया घर बना और
हम सब वही शिफ्ट हो गये। अलगाव की इस घडी में मैंने देखा शोभना की आंखें
उदास थी। घर की दहलीज पर खडी उसने मुझे आखरी विदाई दी। उस रेाज मेरे दिल में
उसके प्रति मोहब्बत का सैलाब उमड़ा।
इसके बावजूद यह सोचकर तसल्ली हुयी कि जो हुआ
अच्छा हुआ। ऐसे कई अवसर आये जब हमने संयम बनाए रखा। आज इतने सालों बाद सोचता हूं
कि अगर कुछ ऊंच नीच हो गया होता तब तो हमदोनों किसी को मुंह दिखाने लायक न रहते।
दुबली पतली शोभना खिल चुकी थी। मैं अतीत से वर्तमान में आया। मैं सकुचा
रहा था मगर वह बेहिचक बोले जा रही थी। बातों—बातों में उसने मुझे अपने घर आने
का न्यौता दिया साथ में मोबाइल नंबर भी ताकि उसका घर खेाजने में मुझे आसानी हो।
वक्त की सुई सरकती रही।
निजी काम से मुझे लखनऊ जाना हुआ। काम से खाली हुआ तो
अनायास जेहन में शोभना आ गयी। क्यों ना आज उससे मिला जाए? मैंने तत्काल मोबाइल पर
उसका नंबर मिलाया। उधर से शोभना की आवाज आयी। मुझे पहचानते देर न लगी। वह खुश
थी कि मैं उसके घर आ रहा हूं। थोडे सी तलाश के बाद मुझे उसके घर की ओर जाने
वाला रास्ता मिल गया। थोडी दूर चलने के बाद मेरे कदम ठिठक गये। ‘‘क्या मेरा उससे
मिलना उचित होगा? आखिर मेरा उससे रिश्ता क्या हेै। पड़ोसी के नाते चल भी जाती मगर वह
मेरे लिए कुछ और ही दर्जा रखती थी।’’ अभी इसी उधेडबुन में था तभी पीछे से किसी
की आवाज आयी। मुडकर देखा शोभना खडी थी।
‘‘मैं आप ही की तलाश कर रही थी। सोचा कहीं आप रास्ता भटक न जाए इसलिए अपने बेटे
को लेकर मुख्य सड़कक तक आ गयी।’’ अब तो कोई गुजाइंश नहीं बची थी उससे कन्नी
काटने की।
अनमने भाव से उसके घर में दाखिल हुआ। उसका एकलौता बेटा मुझे अजीब
नजरों से देख रहे थे। कौन सा नाम दे मेरे और उनके फासले को। शायद ऐसी उलझनों
से मैं और शोभना देानो ही गुजर रहे थे।
शोभना ने संभाला। ‘‘इन्हें अंकल
कहो। पिछले साल इन्हीं के घर गये थे।’’मेरी जान में जान आयी। शोभना काफी बदल
चुकी थी। इसके बावजूद उसकी गतिविधि में कभी कभी मुझे पंद्रह साल पहले का कुछ अंश दिख जाता। मुझे तसल्ली हुई
एकदम से अपरिचित नहीं थी वह मेरे लिए। अब भी उसके
व्यक्तित्व में कुछ ऐसा था जिससे जुडकर मुझे अपनेपन का एहसास हो रहा था। उसके पति का
हरदेाई में तबादला हो गया था। महीने में एकाध बार आते। मेैंंने चैन की सांस ली।
वह नाश्ता वगैर बनाने में लग गयी। वही मैं उसके बेटे के साथ शोभना से जुडे अतीत
का जिक्र करके अपना समय काटने लगा।
‘तुम्हारी मां पढ़ने में एकदम जीरो थी।’’ बेटा हंस पड़ा।
‘‘अंकल वे तो हर वक्त मुझे पढ़ने के लिए कहती है,’’बेटा का लहजा शिकायत भरा था।
’’ऐसा ही होता हेै। जो खुद पढ़ने में बेहतर नहीं होते वे कैसे पढ़ाते होंगे
है।’’शोभना ने सुन लिया।
‘मेरी खिंचाई हो रही है?’’शोभना चाय का ट्रे लेकर हमारी तरफ बढ़ायी
‘‘नहीं बढ़ाई।’’बेटा समझदार था। चाय की चुस्कियों के बीच शोभना ने बेटे को
दूसरे कमरें में जाकर पढ़ाई करने के लिए कहा।
इधर उधर की बातों का सिलसिला खत्म हुआ तो मैं वापस जाने के लिए उठा।
‘‘आज नहीं जाना है।’’शोभना ने हठ किया।
‘‘नहींं शाम की गाड़ी से निकल जाउंगा तो कल सुबह का आफिस कर लूंगा। वर्ना
,’’मेैंने कहा।
‘एक दिन मेरे यहां रूक जाएगे तो कौन सा पहाड टूट पडेगा,’शोभना ने जिद की।
‘‘तुम नहीं समझोगी। शोभना मुझे जाने देा।’’मेरे मन में अजीब उलझन थी।
‘मैं खूब समझाती हूं। शाम को आपके लिए चिकन बनाउंगी।’’शोभना चहकी।
‘‘जिद न करो शोभना,’’मेरी बेचैनी बढ़ती गयी।
‘‘आप इतना घबराये क्यों है। क्या भाभी जी का इतना भय है?’’शोभना ने हंसी की।
मैं मुस्कुरा भर दिया। आखिरकार मझे शोभना के सामने झुकुना ही पड़ा।
काफी देर तक हमदोंनो केा एक दूसरे से बातें करते रहे। उसके
बाद अलग—अलग कमरे में सोने चले गये। बदले जगह के कारण मुझे नींद नहीं आ रही
थी। काफी देर तक करवटें बदलता रहा। रात दो बज रहे थे मगर मेरे आंखो से नींद
कोसो दूर थी। मुझे प्यास लगी। बिस्तर से उठा। अंधेरा होने के कारण कुछ सूझायी नहीं
दे रहा था। नाइट लाइट जलाई। उसकी दुधिया रोशनी फैल गयी।
अनायास मेरी नजर बगलवाले
कमरें में पडी। शोभना नींद के आगोश में बेसुध पडी थी। साडी का पल्लू
जमीन पर बिखरा पडा था। मुझे अजीब सा नशा छाने लगा। मैं दबे पांव उसके करीब आया। सिर से
पांव से एक सरसरी नजर उसके बदन पर डाली। फिर धीेरे से उसका पास गया। जैसे ही मेरी
अंगुलियां उसके जिस्म पर चंचल हुयी वह एकाएक उठकर बैठ गयी। मैं हडबडा गया।
‘‘आपने कैसे सेाच लिया कि मेरे मनुहार का यही उदेश्य था?’’मैं निरूत्तर था।
मन क्या बहका चले आये दबे पांव और
हिम्मत देखिए हमबिस्तर भी हो लिए। अंगुलियां भी कितनी बेशर्म। यह भी नहीं सोचा कि
एक विवाहिता इतनी आसानी से नहीं गिरती जितना पुरूष।’’
मैं शर्म से गड गया। सिर झुकाये अपने कमरे में आया। बडी उलझनों में शेष रात
कटी। सुबह हुयी। जल्दी— जल्दी अपने कपडे पहने। निकलने को हुआ कि शोभना चाय की
प्याली लेकर मेरे सामने खडी हो गयी। मुझमें नजरें मिलाने का साहस न था। जबकि शोभना
निर्लिप्त भाव से मेरी तीमारदारी में लगी रही। चलते चलते यह कहना नहीं भूली कि कभी
भाभी जी के साथ आइयेगा। मुझे आपका इंतजार रहेगा।‘‘ मैं अतिशीध्र शोभना की
नजरों से ओझल हो जाने की नीयत से लंबे लंबे डग भरता हुआ मंजिल की तरफ बढ़ने लगा।