एक लोमड़ी घूमते हुए अंगूर के बगीचे में पहुँची। वहाँ दूर से ही उसे खूब पके हुए पीले-पीले अंगूर दिखाई दिए। अंगूर एकदम रस से भरे हुए थे। देखकर लोमड़ी के मुँह में पानी आ गया, पर मुश्किल यह थी कि अंगूर बहुत ऊँचाई पर थे।

उन अंगूरों को पाने के लिए लोमड़ी ने हवा में खूब ऊँची छलाँग लगाई, पर अंगूरों तक नहीं पहुँच पाई। वह बार-बार ज्यादा-से-ज्यादा ऊँची छलाँग लगाती रही, पर अंगूर अब भी उसकी पहुँच से दूर थे। लोमड़ी अब बुरी तरह थक चुकी थी, लेकिन रस से भरे अंगूर उसे अब भी लुभा रहे थे। आखिर उसने एक बार फिर कोशिश की और पूरा जोर लगाकर उछली, पर अंगूर अब भी उसके हाथ नहीं आए।

अब लोमड़ी बुरी तरह निराश हो चुकी थी। वह तुरंत वहाँ से चल दी। हाँ, चलते हुए वह मन-ही-मन बड़बड़ाई, “अच्छा हुआ कि ये अंगूर मेरे हाथ नहीं आए।वैसे भी ये खट्टे लग रहे हैं। इन्हें लेकर भला मैं करती भी क्या?”

सीख : जो चीज हासिल न हो पाए, अक्सर उसे बेकार कहकर हम मन को झूठी तसल्ली देते हैं।

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