मीता की कोई संतान नहीं थी। इसलिए वह बहुत उदास रहती थी। हर एक इंसान जन्मजात कुछ संस्कार, मनोवृत्तियां और अभिलाषाएं लेकर पैदा होता है जिनसे नाता तोड़ना कठिन होता है। मीता की संतान के लिए चाह, एक ऐसी ही चाह थी। वह दिन-रात संतति प्राप्ति की कामना में डूबी रहती। मां बाप पिछले वर्ष, एक दुर्घटना के कारण स्वर्ग सिधार गए थे। घर में भाई बहन या कोई अन्य संबधी नहीं था। घर की खामोशी उसे काटने को दौड़ती थी।

मीता बेटे और बेटी दोनों को परमात्मा की बहुमूल्य देन मानती थी परन्तु उसकी दिली आकांक्षा बेटे के लिए नहीं, एक बेटी के लिए थी। वह यह मानती थी कि बेटों की अपेक्षा बेटियां मां-बाप को अधिक प्यार करती हैं और जरूरत पड़ने पर ज्यादा वफादार सिद्ध होती हैं ।

वह एक ऐसी बेटी चाहती थी जो श्राद्ध परंपरा में नहीं है, जिसमें पिता की मृत्यु के बाद बेटा या बेटी ब्राह्मणों या रिश्तेदारों को आमंत्रित करके और उन्हें भोजन करवा के पिता के प्रति अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लें। मीता के दिमाग में श्राद्ध की वह तस्वीर थी जो श्रवण कुमार ने अपने अंधे माता पिता की जीवनपर्यन्त सेवा करके, राजा पुरू ने अपनी जवानी पिता ययाति को देकर और उसका बुढ़ापा स्वयं लेकर, देवव्रत ने (भीष्म पितामह) अपने पिता के यौन सुख के लिए स्वयं जिंदगीभर अविवाहित ब्रह्मचार्य निभाने की शपथ लेकर समाज के सामने पेश की थी। उसके मन में तनिक भी संदेह नहीं था कि वर्तमान समय में ऐसे आदर्शों की पूर्ति के स्वप्न देखना मात्र कल्पना की दुनिया में विचरने के समान है। फिर भी वह एक बेटी या बेटी की मां बनने के लिए उत्सुक थी।

एक बार उसने लगभग फैसला भी कर लिया था। कि वह किसी शिशु या बच्चे को गोद लेकर अपनी इच्छा को शांत कर ले लेकिन उसी समय उसे अपनी एक सहेली की इसी समस्या से जुड़ी मानसिक पीड़ा का ख्याल आया । जिसने अपनी सगी बहिन की बेटी गोद लेकर अपनी सार्मथ्यानुसार उसे काबिल बनाया और जब वह कमाने के योग्य हो गयी तो उसकी बहन ने अपनी बेटी को उससे वापस छीन लिया । यह घटना गोद लेने के उसके निर्णय को शिथिल बना रही थी।

विवाह के प्रश्न पर विचार-करना उसने एक वर्ष पहले ही बंद कर दिया था क्योंकि जिस प्रकार और जिस स्टार के व्यक्ति को वह अपना जीवन साथी बनाना चाहती थी। वे बहुत अधिक दहेज मांगते थे जो उसकी हिम्मत से बाहर था। समय गुजरते वह पैंतीस वर्षकी हो गयी थी। अब विधुरों को छोड़ और रिश्ते आने बंद हो गये थे।

अब उसके पास केवल दो विकल्प थे- या तो वह संतान सुख के स्वप्न देखना बंद कर दे, या फिर जैसे पश्चिम के कुछ देशों में होता है, औपचारिक तौर पर विवाह किये बिना अपनी संतान को जन्म दे। मां बनने की इच्छा उसके हृदय में इतनी गहराई तक घर कर चुकी थी। कि उसके लिए संतान की इच्छा को बहिष्कृत करना अंसभव था। अतः उसके पास दूसरा विकल्प ही रह गया था। वह सोचने लगी इसमें क्या ‘गांरटी’ है कि अपने गर्म में जन्मा शिशु जिंदगी भर वफादार रहेगा? क्या ऐसे युवकों और युवतियों की संसार में कमी है जो जवान होने पर माता-पिता से अलग रहने की खुशी महसूस करते हैं और जिनके माता-पिता अकेलेपन से लड़ने के लिए वृद्धाश्रमों में जा बसते हैं और वहीं पर मृत्यु के इंतजार में अपना बाकी जीवन व्यतीत कर देते हैं?

इतिहास के ऐसे उदाहरण उसकी आंखों के सामने घूमने लगे, जहां बेटे ने तख्त को हथियाने के लिए बाप को कैद में डालें रखा। जहां बेटे में बाप को मौत के घाट इसलिए उतार दिया क्योंकि बाप की मृत्यु निकट आती दिखायी नहीं देती थी और बेटा राजगद्दी पर बैठने की जल्दी में था, जहां पुत्र ने अपने परिवार को बंदूक की गोलियों से इसलिए भून डाला क्योंकि उसके और परिवार के बीच किसी मामले पर गहरा मतभेद था, जहां बेटी अपने मां-बाप की मरजी के विरूद्ध अपने प्रेमी के साथ भाग गयी और उनकी जायदाद को हासिल करने के लिए उसने उन्हें अदालत में घसीटकर बुरी तरह से उनकी पगड़ी उछाली।

उसकी यह चिंता भी निराधार नहीं थी कि क्या समाज ऐसे नवागुतुक को स्वीकार करेगा? कहीं उसे जारज संतान कहकर उसका जीना हराम तो नहीं कर देगा?
ग्लानि से भरी मीता आपसे कह रही थी दुनिया के लोग भी क्या लोग हैं? क्या वेदव्यास? पराशर और सत्यवती के वैध विवाह से उत्पन्न हुए थे? वेदव्यास की तो हम पूजा करते हैं। और ऐसे महापंडित की पूजा होनी भी चाहिए, लेकिन जब एक साधारण कन्या के यहां कोई ऐसा बच्च जन्म लेता है तो हम उसे तिरस्कार की नजर से देखते हैं। उसका कहना था कि संसार के अधिकाशं लोग अपनी अक्ल पर पर्दा डाले रहते हैं। उनसे भला कोई पूछे कि हर एक जीव जब नर और मादा के समागम से जन्म लेता है तो एक शिशु को वैद्य और दूसरे को अवैद्य की संज्ञा से संबोधित करना कहां का न्याय है, कहां कि बुद्धिमता है? महाभारतकार का कहनाहै कि महिला का गर्भ तो संतान के लिए मात्र एक धौंकनी क काम करता है। संतान तो पिता की होती है जब हर बच्चा किसी पिता के शुक्राणु का अंश है। 

तो उसे पापज कहना पाप नहीं है तो और क्या है? महामुनि व्यास तो एक स्थान पर यहां तक कह देते हैं कि यदि (संतान प्राप्ति के लिए ) कोई महिला किसी पुरूष से शारीरिक संबंध जोड़ने के लिए प्रार्थना करती है और पुरूष ऐसा कहने से इन्कार करता है तो इसे पुरूष द्वारा अधर्म कृत्य मानना चाहिए। आज के संदर्भ में मीता व्यासजी के परवर्ती विचार के साथ सहमत नहीं थी। उसका सोचना था कि ऐसा विचार आज से हजारों वर्ष पूर्व, जब संतानोंत्पत्ति एकधर्म माना जाता था ठीक था परन्तु समकालीन संदर्भ में इसे स्वीकार करना संभव नहीं। पुराने समय में जहां नियोग की इजाजत थी, वहां इस प्रावधान के साथ कुछ नियमों का पालन भी अविच्छिन्न था। प्रत्येक जीव को वह भगवान की सृष्टि मानती थी और उसे ‘दोगला’, ‘नाजायज’ हरामी या विजात आदि शब्दों से संबोधित करने को अपराध समझती थी। फिर उसे ख्याल आया कि वैद्य और अवैद्य के वाद-विवाद को यदि वह भुला भी दे तो इस भय का निराकरण कैसे होगा कि जिस व्यक्ति के साथ संतानोंत्पति के लिए अस्थायी रिश्ता जोड़ा जाएगा, वह ‘एड्स’ या किसी अन्य संक्रामक रोग से आक्रांत नहीं होगा? यदि ऐसा हुआ तो जिस जीवन के आनंद के लिए साधन जुटाने का वह प्रयास कर रही है। वह जीवन ही मौत में बदल कर रह जाएगा।

मीता कई दिन तक इन विचारों के भंवर में गोते खाती रही। एक-एक कर मीता ने अपने सामने आये सभी विकल्पों पर विचार कर लिया था। अब या तो उसे समाज के बंधनों के खिलाफ बगावत का परचन हाथ में लिए अविवाहित मां बनने का रास्ता चुनना था या फिर समाज के नियमों के सामने नतमस्तक होना था।

आज उसका जन्म दिन था। उसने आज अंतिम निर्णय लेने का फैसला कर लिया था। वह घर से सुबह -सुबह निकलकर कहीं चली जा रही थी। लोगों ने उसे नगर के उत्तर में वह रही नदी के पुल पर तेजी से बढ़ते हुए देखा। ये वर्षा के दिन थे, इसलिए नदी जल से भरपूर थी और इसका प्रवाह बहुत तेज था। नगरवासी इस पुल को ‘मरण सेतु’ कहते थे, क्योंकि निराशा थे पराभूत अनेक नर-नारी इस पुल से कूदकर अपनी जीवन लीला को समाप्त कर चुके थे।

लेकिन मीता अलग मिट्टी से बनी हुई थी। वह जीना चाहती थी। ईश्वर के दिये अनमोल जीवन की हत्या को वह निकृष्टता पाप समझती थी। देखते देखते उसने पुल पार किया और नदी के दूसरी ओर स्थित शिशु सदन में पहुंच गयी। वहां पहुंचकर उसने उस संस्था की निर्धारित औपचारिकताएं पूरी की और एक कन्या को गोद ले लिया। वह जानती थी कि इस कन्या को मांगने का किसी को अधिकार नहीं होगा, क्योंकि उसकी रिश्तेदारी का न तो उसे कुछ पता था और न किसी और को। घर लौटने पर उसके मन में अब कोई कशमश नहीं थी।

द्वंद समाप्त हो चुका था। एक नयी और भावभीनी जिंदगी का श्रीगणेश हो चुका था। उसे यह सोचकर भी प्रसन्नता हो रही थी कि अब उस बालिका को ‘अनाथ’ कहकर कोई नहीं पुकारेगा। आज वह सनाथ थी। आज एक नहीं, दो जिदंगियां एक साथ बदल गयी थी।