शायद मेरी बात का आपको यकीन न हो। आपको लग रहा होगा कि जिस शहर के लोगों के पास अपने लिए भी समय नहीं है उस शहर के लोग अपना सब काम धाम छोड़कर मेरे पीछे पड़ने लगे…। तो मैं आपको बता दूं कि यह मेरे साथ कोई पहली बार नहीं हुआ है कि मैं अपनी साईकिल से फैक्ट्री के लिए निकलूं और रास्ते में ही मुझे अनगिनत गाड़ियों ने घेर लिया हो। फिर मेरे ट्रिंग ट्रिंग को अनसुनी कर वे मेरे कान के पास बहुत तेज़ हॉर्न बजाकर निकल जाती हों। कई बार तो मुझे लगा कि मेरी कहानी खत्म, लेकिन…
लेकिन अपनी ही कहानी का अंत मैं ऐसे नहीं सोच सकता जैसे करतार सिंह की कहानी का हुआ… हम दोनों हम उम्र थे और अक्सर साथ ही काम पर आते जाते थे। मैं आगे आगे और वो ठीक मेरे पीछे-पीछे।। इस तरह हमने एकसाथ बहुत दूर दूर का सफर तय किया है। उसके रहने पर मैं इस तरह नहीं डरता था जैसाकि आजकल डरने लगा हूँ।
वह हमेशा कहता था कि सड़क के किनारे किनारे चलो…कुछ नहीं होगा… और इसी विश्वास के सहारे उसने अपनी ज़िंदगी के चालीस साल तक साईकिल की सवारी की। लेकिन नियति…यह शहर..इस खौफनाक शहर ने उसके इस विश्वास को भी गलत साबित कर दिया…
आप सोच रहे होंगे कि मैं बार बार करतार सिंह की बातों के आगे ‘था’- क्यों लगाते चल रहा हूँ। दरअसल जिस करतार सिंह की मैं बात कर रहा हूँ उसके लिए ‘था’ का प्रयोग ही मैं ठीक समझता हूँ। हालाँकि वह अभी भी ‘है’ लेकिन हर क्षण इस ‘है’ की सार्थकता से जूझ रहा है। वह हमारे नीचे वाले मकान में ही पड़ा हुआ है। लेकिन अब वह मेरे साथ फैक्ट्री नहीं आता। वह चला ही नहीं सकता, न साईकिल न घर…अब उसकी साईकिल भी सीढ़ियों के किनारे पड़ी पड़ी धूल खा रही है ठीक वैसे ही जैसे वह खुद…
इसीलिए मैं अपने ही एक साथी को जल्द से जल्द ‘था’ कह देना चाहता हूँ। फिर सोच कर डरने लगता हूँ कि चाहने ही से क्या होगा। उसे ‘था’ होना भी तो होगा।
लेकिन मैं…मैं कायर…मैं खुद को भी तो ‘था’ कर देना चाहता हूँ लेकिन यह सिर्फ चाहना भर ही है। न इसे पूरा करने की मुझमें हिम्मत ही है और ना ही मेरे अंदर कोई ऐसी इच्छा है कि ईश्वर के करीब जाकर सुखी हो लूँ… मैं सिर्फ भागना चाहता हूँ…एकदम फुर्रर… हमेशा के लिए नहीं, सिर्फ कुछ दिन या कुछ महीनों के लिए ताकि फिर वापस भी आ सकूँ। फिर अपने नाती के कोमल शरीर से खेलूं…साईकिल उठाऊं और रोज़ की तरह आना जाना कर सकूँ…इस तरह मैं पूरा एक महीना काम करूँ और लगभग दस हज़ार रुपयों के साथ अपने छोटे से घर में हाज़िर हो जाऊं। यही मैं पिछले बावन साल से करता आया हूँ…इसीलिए मैं आज यहाँ भागकर आ गया हूँ। यहाँ…मैं जानता भी नहीं हूँ इस जगह को। इतने सालों से मैं इस शहर में हूँ लेकिन आज यहाँ आ सका। दरअसल आया नहीं बस पहुँच गया। यहाँ बहुत अँधेरा है और जिसमें मैंने अपने पैर लटका रखे हैं वह कोई झील मालूम होती है। मैंने अंजुली भर भर के इसके पानी से कई बार अपना मुंह हाथ धोया, तब मुझे पता लगा कि मैं वास्तव में कहाँ हूँ। मेरे पैरों को इसमें डूबे रहना अच्छा लग रहा है। लेकिन इस झील के पानी की धारा केवल दाएं से बाएं की ओर बह रही है और मेरे पैर इस एक ही तरह की बहती हुई धारा से अब ऊबने लगे हैं। इसकी धारा को बाएं से दाएं की ओर भी बहना चाहिए…चारों ओर सन्नाटा है…चुप्पी है…जिसे तोड़ने के लिए इस समय किसी भी तरह का शोर नहीं है। मैं हैरान हूं यह देखकर कि यह शहर भी कभी शांत होता है… ये रात है और मुझे कुछ दीख नहीं रहा… दरअसल मैं देखना चाहता भी नहीं…मैं एकदम चुप होकर सुनना चाहता हूँ अपनी ही आवाज़…मैं इस झील से बात करना चाहता हूँ…केवल इसी की आँख में देखना चाहता हूँ… मगर आँख में देखने के लिए भी मुझे मेरा चश्मा चाहिए…जिसे अभी कुछ देर पहले ही तोड़ा गया है…
रोज़ की तरह मैं आज भी फैक्ट्री से घर की ओर जा रहा था। अक्सर लौटते समय रात हो जाती है सो आज भी हो गयी। मुझे घर जाना था और मन में बार बार करतार सिंह की बात दुहरा रहा था कि ‘सड़क के किनारे किनारे चलो कुछ नहीं होगा।’ लेकिन तभी हो गया। एक लंबे तगड़े आदमी ने मेरी साईकिल पर जोर से लात मारा और मुझे सड़क पर गिरा दिया। वह अपने होश में नहीं था। पक्का उसने शराब पीया हुआ था। कुछ देर तो मैं समझ ही नहीं पाया कि हुआ क्या है। लेकिन जैसे ही वह मेरी ओर बढ़ने लगा मैं सब समझ गया कि क्या होने वाला है। उसने मेरा कॉलर पकड़ा और मेरे कुछ कहने से पहले ही दो-तीन ज़ोरदार तमाचे जड़ दिए। पहले ही तमाचे में मेरा चश्मा गिर कर टूट गया। तमाचा…वह तमाचा…मानों गर्म तपते लोहे का कोई चपटा धातु जिसे तपाक से मेरे गाल पर मारा गया है… गाल पर ही नहीं बल्कि कहीं और भी…मुझे ऐसा लग रहा था मानों वह तमाचा मेरे सीधे सरल जीवन पर एकाएक फेंका गया कोई तेज़ाब हो…और मुझसे ज्यादा उस व्यक्ति के विश्वास पर जिसकी साईकिल अब सीढ़ियों के किनारे पड़ी पड़ी जंग खा रही है… जिसका मालिक आजकल रोज मृत्यु के देव का आह्वाहन कर रहा है…करतार चंद… हारा गया…हार गया मैं भी…और मिल गया मुझे मेरा वाला अनुभव…कि सीधे सीधे चलने पर भी आपकी जान को खतरा है। असल में हम कहीं बच ही नहीं सकते…क्योंकि हम लड़ नहीं सकते…बस इंतज़ार कर सकते हैं मृत्यु के देव के आने का। न जाने कौन सा रूप धर कर वह हमारे लिए आ जाये…उसके कौन से षड्यंत्र में हम जा गिरेंगे…हम सिर्फ अनुमान लगा सकते हैं। इससे भी आसान- कि हम अपनी अपनी बारी का इंतज़ार कर सकते हैं…
वह बदमाश मेरे सारे रुपये ले गया। छोड़ गया मुझे वहीं… फेंका हुआ…मैं सोच रहा था कि उसने मुझे पूरा ही क्यों ना मार डाला…इस तरह मेरा मारना ना आत्महत्या की श्रेणी में आता और न ही लोग मुझे डरपोक या भगोड़ा कहकर गाली ही दे पाते।
वे अभी भी नहीं कहेंगे लेकिन अगर उनको भनक तक लग गयी तो मौक़ा भी नहीं छोड़ेंगे…
खैर, उस बदमाश के चले जाने के कुछ देर बाद मैं वहां से उठा और अपनी टूटी हुई साईकिल-क्योंकि वह टूट चुकी थी इसलिए मेरे किसी काम की नहीं थी-को वहीँ छोड़कर घर की ओर बढ़ने लगा। बुढ़ापे का शरीर और खून बहता हुआ…नाक से…घुटनों से…दर्द…आह!…लगातार चक्कर काटता हुआ एक सवाल कि किस मुंह से मैं अपने घर जाऊं…घर?… हाँ वही घर…दीवारें चूती हुईं…न बोलने चालने वाले लोग…छोटी छोटी जरूरतें जहाँ कभी पूरी न हुईं…सुबह से चिल्लाती हुई एक औरत…वही है मेरा घर…। और वहां मैं?…एक औरत का पति…तीन बच्चों का बाप…एक बहू का ससुर…लेकिन इन सबसे अधिक एक ऐसा व्यक्ति जो हर महीने अपने घर में कुछ रुपए लाता हो… मुझे यह बात मानने में कोई दिक्कत नहीं है कि अपने परिवार के लिए मैं कुछ रुपयों को लाने वाले शख्स के अलावा और कुछ नहीं…मेरी इस जीवन में इतनी ही उपयोगिता रही है और मैं उपयोग होने के लिए हमेशा तैयार भी रहा हूँ। मैं न कायर हूँ और न डरपोक…
और अब…मैं उस भयानक सपने से बहुत दूर हूँ…मेरी नाक से खून बहना बंद हो गया है। मैं इस झील के करीब बैठकर बहुत अच्छा महसूस कर रहा हूँ। आज मुझे भागते हुए कोई नहीं देख सकता। यहां किसी की भी गाड़ी का हार्न मुझे तंग नहीं कर सकता। मुझे घेरने के लिए यहाँ कोई है भी नहीं। खुद विष्णु देव शास्त्री भी नहीं…वो तो वहीं हैं जहां उस बदमाश ने उन्हें छोड़ दिया था…वहां से उठकर जो व्यक्ति यहाँ तक पहुँच पाया वो कोई और है…मगर विष्णु देव शास्त्री नहीं…वो यहाँ कभी आ ही नहीं सकते…उनको तो कल फिर ठीक सुबह आठ बजे काम पर आना है…एक महीने बाद तनख्वाह उठाना है…शास्त्री कुछ नया करने से डरता है…उसे कभी मौक़ा ही नहीं मिला…लेकिन मैं नहीं…यही सही मौका है। न कोई देखेगा ना मैं सुनूँगा कि किसी ने मुझे कायर कहा है……वाकई यही सही मौक़ा है…झील…पानी…छपाक…।
