…………. बाकी सब उपस्थित लोक भी अवाक् रह गए। एक-दूसरे का मुंह ताककर वह फिर आगंतुक को देखने लगे जिसकी आवाज़ में एक प्रभावशाली भार था, ऐसा भार तो कम ही लोगों की आवाज़ में होता है।
‘मैं तुममें से किसे नहीं जानता?’ आगंतुक ने अपने दांत पीसे और आगे बढ़कर बोला, ‘तुम्हारे तो बाप-दादों तक के नाम मैं गिना सकता हूं।’ फिर वह एक अधेड़ परंतु आवश्यकता से अधिक बनी-ठनी स्त्री की ओर पलटा जो सरोज की मम्मी के समीप खड़ी कमल पर उस बिल्ली के समान नज़र गड़ाए हुए थी जो अपने शिकार पर अचूक आक्रमण करने की प्रतीक्षा करती रहती है, ‘तुम…’ आगंतुक ने बहुत तिरस्कृत भाव में उस पर छींटा मारा, ‘तुम रुक्मिणी हो न? तुम्हारी तो एक-एक नस से मैं परिचित हूं, जो वस्तु तुम लोगों को नहीं मिलता है उसे छीनकर अपना लेने में तुम्हारा खानदान गर्व करता आ रहा है।’
‘हां पागल!’ सहसा आगे बढ़कर रंगीन सूट वाले नवयुवक ने उसका कालर पकड़ लेना चाहा, परंतु आगंतुक ने बहुत आसानी के साथ झटक दिया था, वह गिरते-गिरते बचा।
‘तुम भी रुक्मिणी की संतान हो।’ आगंतुक ने बहुत घूरकर उसे देखा, बहुत घृणा के साथ। बोला‒ ‘क्यों? सर्प की संतान सर्प नहीं होगी तो क्या होगी?’
‘कौन हो तुम? कौन हो?’ कृपाल सिंह ने उसे घूरकर देखा‒परंतु चांदनी होने के पश्चात् भी वह उसे ठीक से नहीं पहचान सके परंतु रुक्मिणी आगंतुक की बात सुनते ही कांप गई थी। उसकी आंखों की चमक इस प्रकार मिट गई मानो उसके अरमानों पर बिजली गिर पड़ी हो, बिलकुल भयभीत-सी होकर वह फटी-फटी आंखों द्वारा इस प्रकार आगंतुक को देखने लगी मानो यह कोई जीता-जागता मानव नहीं, किसी की आत्मा उसके समीप खड़ी है। ऊपर से नीचे तक उसका शरीर कांप गया, दिल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा। वास्तविकता पर विश्वास ही नहीं हो रहा था। कभी दिल की गहराई में बिठाकर उसने इस आगंतुक की पूजा की थी। वर्षों इसके लिए एक सुनहरा सपना देखा था, आज ऐसी गिरी तथा उजड़ी हुई अवस्था में उसे देखा तो विश्वास ही करना दूभर हो गया।
‘राजा विजयभान सिंह!’ भय के मारे उसके होंठ कांप ही गए।
रुक्मिणी के होंठों से शब्द क्या निकला मानो वहां बम फट गया और मानो धमाके के कारण उपस्थित लोगों के कान शून्य पड़ गए। सभी ने उसे गौर से देखा, ऊपर से नीचे तक आंखों पर विश्वास ही नहीं हो रहा था, परंतु सत्यता अपना साक्षी लिए समक्ष खड़ी थी और सब देख रहे थे‒देखते ही रह गए‒फटी-फटी आंखों से। लोगों के दिल बुरी तरह धड़कने लगे थे, यह क्या है? यह सब क्या है? क्या है? कोई कुछ जानता नहीं था और जानने का साहस भी न कर सका।
सरोज की मां की तो जान ही निकल गई। पूरा शरीर थर-थर कांपने लगा। दो पग पीछे हटकर घुटनों के बल झुकती हुई कांपती आवाज़ में उसके होंठों से निकला, ‘महाराज आप।’ उसे अब भी विश्वास नहीं था फिर भी आंखें छलक आईं।
‘हां रूपा! मैं विजयभान सिंह ही हूं।’ आगंतुक का स्वर गंभीर हो गया, ‘तुम सबकी बातें बहुत देर से सुन रहा था परंतु जब सहन नहीं कर सका तो सामने आना ही पड़ा। मुझे नहीं मालूम था कि तुम्हारी बेटी सरोज को कमल प्यार करता है, वरना इस प्यार का अनादर मैं पहले ही नहीं होने देता। कमल के शरीर में किसी गंदी नाली का पानी नहीं बह रहा रूपा‒ कमल मेरा बेटा है‒मेरा अपना, इसकी रगों में राजा विजयभान सिंह के रक्त की धारा है।’
‘ओह!’ रूपमती के कानों में ‘रूपा’ शब्द इस प्रकार वर्षों बाद गूंजा था। वह सिसक पड़ी। लपककर विजयभान सिंह के घुटनों में लिपट गई। फूट-फूटकर रो पड़ी, बोली‒ ‘यह क्या हो गया? अनजाने में ही मुझसे इतना बड़ा अपराध हो गया। मुझे क्षमा कर दीजिए महाराज! मुझ पापिन को क्षमा कर दीजिए। मुझे कुछ भी नहीं मालूम था। मुझे कुछ भी नहीं मालूम था।’ रूपमती अपने आंसुओं से उनके चरण धोने लगी। चाहा कि वहीं कदमों में अपना सिर पटक दे, परंतु विजयभान सिंह ने उसे झुककर उठा लिया। अपने हाथों द्वारा उसके आंसू पोंछे। चांदनी में उसके मुखड़े को देखा तो उसकी अपनी आंखें भी छलक आईं। प्रताप सिंह की झलक आंखों में उभरी, उनकी छाती पर सिर रखकर सिसक पड़ी। प्यार से वह भी उसकी पीठ पर हाथ फेरने लगे।
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एक पल के लिए सभी स्तब्ध रह गए, ख़ामोश चुपचाप एक-दूसरे का मुंह देखकर मानो बगलें झांक रहे हों। फिर कृपाल सिंह ने आगे बढ़कर घटना संभाल लेने का प्रयास किया।
‘खैर! जो कुछ भी हुआ अच्छा ही हुआ।’ उन्होंने मानो अपना दामन बचाते हुए कहा‒ ‘बिछड़े हुए लोग मिल गए और हमें क्या चाहिए?’
‘बिछड़े हुए लोग?’ विजयभान सिंह ने एक आह भरी, वह बोले, ‘राधा मुझे कभी क्षमा नहीं करेगी, कभी नहीं, और शायद मेरा बेटा भी मुझे क्षमा नहीं करेगा।’
कमल के दिल को चोट लगी। उसने विजयभान सिंह को गौर से देखा।
‘क्यों?’ रूपमती ने आश्चर्य से पूछा।
‘तुम्हें प्रताप ने अपने अंतिम दिनों में कुछ भी नहीं बताया?’ विजयभान सिंह ने आश्चर्य से पूछा।
‘नहीं महाराज।’ रूपमती बोली, ‘वह तो यहां से हमारी कोठी पहुंचने के बाद ऐसा बीमार पड़े कि उनकी आवाज़ ही बंद हो गई। हां, मरने से पहले अचानक उन्हें जब भगवान ने कुछ कहने का अवसर दिया तो उनके होंठों पर केवल यही नाम आया था, राधा। महाराज यह बात तो मैंने आपको लिखी थी।’
‘हां, परंतु यह बात मैं नहीं जानता था कि यहां से जाने के बाद उसकी यह अवस्था हो गई थी वरना मैं स्वयं उसे देखने को आता।’ विजयभान सिंह की आंखें भीग गईं।
‘क्यों नहीं मेरी मां आपको क्षमा करेगी? और क्यों मैं आपको स्वीकार न करके एक बड़ा पाप मोल ले सकता हूं?’ कमल ने इस प्रकार पूछा मानो वह उनकी क्रूरता के बारे में कुछ जानता ही नहीं था।
‘इसलिए बेटा कि तुम्हारी मां के दिल में मेरे प्रति प्यार से अधिक नफ़रत और केवल नफ़रत ही स्थिर है।’ विजयभान सिंह ने एक आह ली। रूपमती उनसे अलग होकर अपने आंसू पोंछने लगी। उन्होंने अपनी बात जारी रखी‒ ‘उसने केवल मेरी निष्ठुरता का पहलू ही देखने का प्रयत्न किया है, वह भेंट, वह तपस्या उसने नहीं देखी जो आज तक मैं उसके लिए करता आ रहा हूं।’
‘भेंट! तपस्या।’ कमल ने उन्हें आश्चर्य से देखा।
‘हां।’ विजयभान सिंह ने अब स्पष्ट शब्दों में ही सब कुछ कह देना उचित समझा। वह बोले, ‘यह हवेली जो तुम आज देख रहे हो, उजाड़ सुनसान, भूतों के भंडार समान, पहले यह ऐसी कभी नहीं थी। पहले यहां फूल महका करते थे, कलियां मुस्कराया करती थीं, राजमहल की सुंदर कनीजों की पायल से उत्पन्न छमछम गूंजा करती थी। यहां जिंदगी थी और जिंदगी के वास्तविक कहकहे यहां की चहल-पहल थे। इस राजमहल की दीवारों पर पक्षियों को भी अपने पंजों की मिट्टी झाड़ने की आज्ञा नहीं थी।’
सहसा विजयभान सिंह एक ओर आगे बढ़े, हवेली के पिछले भाग में संकेत करते हुए उन्होंने कहा, ‘यह तालाब, जो आज मौत के कुएं के समान भयानक और सुनसान है, यह सदा इत्र से भरा रहता था, जलपरियों के समान सुंदर लड़कियां इसकी शोभा थीं और वह…’ वह दूसरी तरफ़ आए, हवेली के सामने की ओर इशारा किया, ‘इस लॉन के अंदर चंद पल सांसें लेना, देश-विदेश के गवर्नर और राजा-महाराजा अपना सौभाग्य समझते थे, यह लॉन अनेक प्रकार के रंग-बिरंगे फूलों से सदा सुगंधित रहा करता था। यहां भंवरों को भी फूलों के समीप जाने के लिए हमारी अनुमति की आवश्यकता थी।’ उन्होंने कमल की ओर देखा और समीप आते हुए बोले, ‘यह सब मैंने अपने प्यार, अपनी तपस्या की ख़ातिर भेंट कर दिया, ताकि मेरे पापों का प्रायश्चित हो सके, राधा मुझे क्षमा कर दे।
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……………. कुछ वर्षों तक तो यह भी आशा थी कि वह मुझे अपना बना लेगी, परंतु अब तो क्षमा की भी आशा नहीं रही।’ उनके होंठों से एक निराश आह निकली। फिर भी वह कहते ही गए, ‘शायद मैं इसी योग्य था, इसलिए इस हवेली में छिपकर रहते हुए अपनी मोहब्बत का तमाशा देखना चाहता था, देखना चाहता था कि जब इसका कोई वारिस नहीं निकलेगा तो निश्चय ही भूत और प्रेत का खंडहर समझकर नीलामी में ख़रीदने वाला इसे तोड़कर अपने लिए नई इमारत बनाना पसंद करेगा। तब मैं इसकी टूटती दीवारों में गरीबों की चीख़ और पुकार सुनना चाहता था, इसकी नींव में उस ख़ून की लाली देखना चाहता था जिसे हमारे बाप-दादों ने यहां की मासूम जवानियों के शरीर से निचोड़कर सींचा है, मैं यह देखना चाहता था कि यह ख़ून की लाली कुछ कहती भी है, चीख़ती भी है‒चिल्लाती भी है या नहीं? मेरे पास रुपयों की कमी नहीं है। जो कुछ था उसे बेचकर रुपए स्टेट बैंक में जमा करके तुम्हारे नाम पहले ही कर दिया है।’
‘मेरे नाम?’ कमल ने आश्चर्य से पूछा।
‘हां।’ विजयभान सिंह ने एक आह भरी, ‘तुम्हारे और राधा के अतिरिक्त मेरी सांसों में धड़कन ही किसकी है? सोचा था मेरे जीते जी न सही, शायद मरने के पश्चात् ही मुझे क्षमा कर दो। उस रात जब तुम राधा के साथ पहली बार यहां आए थे तो मैंने अचानक ही तुम दोनों को लौटते समय देख लिया था। फिर दिल न माना तो कैम्प भी गया था, परंतु राधा के जाग जाने के कारण वापस भाग आना पड़ा। इस हवेली में जाने कितने ही ऐसे गुप्त रास्ते हैं कि कहीं से प्रवेश करके कहीं भी निकला जा सकता है।’ राजा विजयभान सिंह ख़ामोश हो गए। कुछ सोचने लगे। शायद अभी और भी बहुत कुछ कहना शेष था। वह गहरी-गहरी सांसें लेने लगे।
बाकी सभी लोग ख़ामोशी से उनकी बातें सुनने में मगन थे, परंतु कृपाल सिंह ने समझा कि अब यह कथा समाप्त हो चुकी है। वह आगे बढ़े और कमल के कंधे पर झट से हाथ रखकर कुछ लज्जित से बोले‒ ‘मुबारक हो बेटा! यह शुभ घड़ी तुम्हें मुबारक हो! क्योंकि आज सभी बातों से पर्दा उठ चुका है। अब तो तुम बता ही सकते हो कि सरोज कहां है? ऐसा न हो कि यह बात किसी के कान में पड़ जाए जिससे सरोज के खानदान के साथ हमारी भी बदनामी हो।’
‘लेकिन मैं अपनी मां की सौगंध खाकर कहता हूं कि सरोज के बारे में मुझे ज़रा भी ज्ञान नहीं।’ कमल ने चकित होकर कहा।
‘आपको अपनी बदनामी का डर क्यों लग रहा है?’ सहसा रूपमती बीच में आई और कृपाल सिंह से संबोधित हुई।
‘आंटी!’ समीप खड़ा रंगीन सूट में नवयुवक पूरी तरह बल खाकर चौंका।
‘सरोज मेरी बेटी है…’ रूपमती ने उसकी परवाह किए बिना कहा‒ ‘उसका विवाह अब केवल कमल के साथ ही होगा, तुम जैसे नीच आदमी के साथ नहीं जिसने राधा जैसी देवी को अपहरण करके मुझे यह समझा दिया कि यदि कमल ने सरोज का पता बताने से इंकार किया तो फिर राधा देवी को सताने की धमकी देकर उसका पता चलाने में आसानी होगी। कमल बेटा।’ रूपमती कमल की ओर पलटी, ‘राधा देवी ने तुम्हारा पता हमें इसलिए बताया है क्योंकि उन्हें विश्वास था कि तुम ऐसा नीच काम नहीं कर सकते हो।’
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