………….. ‘आपका अनुमान सही है। इसे राधा के बाबा ने ही बनाया है।’ फादर ने उत्तर दिया।

 ‘यदि आपको इस मूर्ति की अधिक आवश्यकता न हो तो मुझे दे दीजिए।’

 ‘ओह! अवश्य-अवश्य, आप इसे ले सकते हैं।’ फादर झट उठ खड़े हुए। मूर्ति उठाकर उन्होंने विजयभान सिंह को थमा दिया। बोले‒ ‘परंतु क्या मैं इसका कारण जान सकता हूं?’

 ‘है कोई कारण। बल्कि यूं समझ लीजिए कि मैं हर उस वस्तु को सुरक्षित कर लेना चाहता हूं जिसकी याद राधा से संबंधित है। आप निश्चिंत रहें, हमारी जाति से आपके देवता की पवित्रता को कभी ठेस नहीं पहुंचेगी। जिस प्रकार हम अपने धर्म का आदर करते हैं, उसी प्रकार दूसरे धर्मों का भी।’

 फादर के होंठों पर मुस्कान दौड़ गई। बोले‒‘राधा के प्यार ने आपको बहुत भावुक बना दिया।’

 विजयभान सिंह हल्के से मुस्करा दिए, फिर एकदम गंभीर हो गए।

 सुबह का समय था। राधा अपने छोटे कमरे में झाडू लगा रही थी। छोटा-सा घर, एक बड़ा कमरा, एक छोटा, अंदर के बरामदे में चौका था, एक छोटा-सा आंगन। आंगन का दरवाज़ा बाहर एक कच्ची सड़क की ओर खुलता था। घर, मिशन स्कूल के कम्पाउंड में था। यह घर उसे क्वार्टर के रूप में फादर फ्रांसिस ने दिया था, क्योंकि उसके बाबा को स्कूल में नौकरी मिल गई थी। इस घर में रहते हुए उन्हें एक सप्ताह हो गया था।

 सहसा किसी ने आंगन का दरवाज़ा खटखटाया। राधा ने झाडू किनारे रखी, पलंग पर सोते बच्चे पर एक निगाह डाली। फिर आंचल संभालकर दरवाज़ा खोल दिया।

 सामने एक लंबा-चौड़ा व्यक्ति खड़ा था। सिर के बाल भूरे कम और सुनहरे अधिक थे। कलमें चौड़ी तथा कान से भी नीचे तक थीं। पतली भूरी मूंछें, भूरी छोटी-सी फ्रेंच कट दाढ़ी, आंखों पर मोटा तथा कीमती काला चश्मा था। सिर के ऊपर ‘इवनिंग कैप’ जिसे आंखों के ऊपर कुछ अधिक ही झुकाकर उसने पहन रखा था, सर्ज के सफ़ेद सूट में वह किसी स्टेट का राजकुमार लगता था। राधा ने उसे देखा तो उसके व्यक्तित्व से प्रभावित होकर घबराती हुई पीछे हट गई। सिर का आंचल और बढ़ा लिया।

 उस व्यक्ति ने राधा को देखा‒ऊपर से नीचे तक‒बहुत गौर से‒बहुत गहरी दृष्टि से। एक साधारण सूती साड़ी, परंतु आंखों में अमावस की रात का अंधकार होने के पश्चात् भी एक कोने में सुबह के तारे समान एक मकनाती-सी चमक अब भी शेष थी। आगंतुक के चमकदार चेहरे पर गम की उदासी छा गई।

 ‘आप किससे मिलना चाहते हैं?’ राधा ने उसे खोया हुआ देखा तो आश्चर्य से पूछा।

 राधा की गंभीर आवाज़ में भी ऐसी मिठास थी, जिसने आगंतुक के कानों में शांति का रस घोल दिया। यह मिठास, काश! यही मिठास उनकी अपनी मिठास होती, उसके अपने अधिकार में। राधा के प्यारे-प्यारे होंठों से शहद में डूबी फूल की पंखुड़ियां झड़ चली थीं।

 ‘मैं बाबा हरिदयाल से मिलना चाहता हूं, जो मूर्तिकार हैं।’ अपने आप पर काबू पाकर आगंतुक ने कहा।

राधा एक पल के लिए उसका स्वर सुनकर कांप गई। दिल में एक विचित्र-सी धड़कन उठी‒अकारण ही, जिसका वह कोई अनुमान नहीं लगा सकी। कहीं दूर से आती हुई हवाओं के बहाव पर शायद कभी उसके कानों ने ऐसी आवाज़ सुन रखी हो, कहां? कब? उसे याद नहीं आ सका।

 आगंतुक को उसके खोयेपन से चिंता हुई। उसका ध्यान बांटकर उसने कहा‒ ‘मेरा नाम राजेश है। मुझे फादर जोजफ ने भेजा है। उन्होंने मुझे राय दी है कि यदि मैं बाबा हरिदयाल से मूर्तियां ख़रीदूं तो अधिक अच्छी बात होगी।’

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 …………. ‘ओह!’ राधा, फादर जोजफ का नाम सुनते ही रास्ता छोड़कर अलग खड़ी हो गई। फादर जोजफ ने उसके लिए क्या नहीं किया? वह उसका कितना अधिक ख्याल रखते हैं।

 ‘मैंने आपको तथा बाबा हरिदयाल को वहां देखा था। आप लोगों से मेरी भेंट हुई थी। शायद आपको याद न हो।’ राजेश ने उसके मन को बांटकर रहा-सहा संदेह भी दूर कर दिया और इसी बीच सिर की टोपी उतार दी।

 ‘ओह! जी हां…जी हां शायद…’ राधा अपनी स्मृति पर लज्जित हुई। शायद इससे पहले उसने इस व्यक्ति को वहीं देखा हो। वह झट बोली‒‘आइए अंदर आइए…!’

 राजेश ने झट अंदर कदम रख दिए। राधा उसके आगे चलकर एक कमरे में पहुंची, एक कुर्सी पर उसे बिठाकर बोली‒‘आप ठहरिए, बाबा को मैं अभी बुलाकर लाती हूं।’

 ‘ऐसी जल्दी भी क्या है?’ राजेश बोला। राधा की समीपता वह अपने साथ देर तक स्थिर रखना चाहता था। बोला, ‘वह स्वयं ही आएंगे। आप क्यों कष्ट करती हैं?’

 ‘इसमें कष्ट की क्या बात है? आख़िर बुलाना तो पड़ेगा ही।’ राधा ने उत्तर दिया‒‘वरना फिर वह शाम पांच बजे स्कूल बंद होने के बाद लौटेंगे।’

 राजेश ने सोचा, वह कह दे कि शाम पांच बजे तो क्या वह सारी जिंदगी उसके बाबा की प्रतीक्षा कर सकता है, यदि राधा यूं ही उसकी नज़रों के समीप रहे, परंतु यह बात उसे उचित नहीं लगी। राधा को उलझाये रखने के लिए उसने पूछा‒‘आपके बाबा क्या स्कूल में काम करते हैं?’

 ‘जी हां…।’

 ‘क्या काम?’

 ‘यूं ही बच्चों की देखरेख करना।’

 ‘तो फिर मूर्ति किस समय बनाते हैं?’

 ‘अधिकांश शाम को, स्कूल से आने के बाद।’

 ‘तब तो उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ती होगी?’

 ‘मेहनत नहीं करेंगे तो हमारा गुज़ारा कैसे चलेगा? एक छोटा बच्चा है, उसे पढ़ा-लिखाकर मैं एक बहुत बड़ा आदमी बनाना चाहती हूं।’

 ‘क्या आपके पति आपकी कोई सहायता नहीं करते?’ राजेश ने उसका दिल टटोला।

 उत्तर में राधा की आंखों से आंसुओं की दो बूंदें गालों पर लुढ़क आईं। राजेश के दिल पर अंगारे लोट गए। पहली ही भेंट में उसने सारी बातें उससे पूछ लेना उचित नहीं समझा। बोला‒ ‘ओह! क्षमा कीजिएगा, मेरी बातों से आपके दिल को चोट पहुंचेगी, यह मैं नहीं जानता था।’

 राधा ने अपने आंसू पोंछे, मुस्कराने का प्रयत्न किया, परंतु दिल के अंदर पहले से ही नासूर था, इसलिए असफल रही। जाते-जाते बोली‒ ‘मैं अभी आई।’ और फिर वह बाहर निकल गई।……….

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उसके जाते ही राजेश ने अपनी आंखों का चश्मा उतारा‒टोपी एक स्थान पर रख दी और कमरों का निरीक्षण करने लगा, वह समीप के दूसरे कमरे में प्रविष्ट हुआ। एक नन्हा-सा बच्चा, गोरा-चिट्टा, आंखें बंद किए नींद में भी मुस्करा रहा था, अपने आप पर वह काबू नहीं कर सका तो झुककर उसने उसका मस्तक चूम लिया, उसके गाल चूम लिए। उसकी दाढ़ी के बाल जब बच्चे की नरम तथा कोमल त्वचा पर गड़े तो उसकी आंखें खुल गईं। राजेश ने देखा, उसकी आंखों की चमक में उसका अपना प्रतिबिम्ब है, उसके रूप में उसका अपना बचपन। बच्चा मुस्कराया तो राजेश ने उसे झट गोद में उठा लिया, उसकी आंखों से आंसू निकलकर बच्चे के कपोलों पर गिर पड़े। उसने बच्चे को फिर चूमा, नन्हें-नन्हें हाथ पैर तलुए, सब जगह उसने प्यार से भरकर उसे चूम डाला। बच्चा एक राजकुमार का भाग्य लेकर उत्पन्न हुआ था, फिर भी अपने बाप के कुकर्मों के कारण एक गरीब की कुटिया में सांस लेने पर विवश था। उसका दिल भर आया, अपने आंसू पोंछते हुए उसने कमरे में चारों ओर दृष्टि डाली। कुछेक छोटे-बड़े पत्थर के टुकड़े, अर्ध बनी छोटी-सी पत्थर की मूर्ति, मूर्ति किसी गांव की लड़की की थी, जिसके शरीर पर बनाये हुए कपड़ों को फाड़कर मज़लूमियत का प्रदर्शन करने का प्रयत्न किया गया था। यद्यपि मुखड़ा पूर्णतया नहीं बना था, फिर भी सिर के झुकाव में जीवन से निराशा टपक रही थी, ऐसा लग रहा था जैसे किसी ज़ालिम के हाथों लुटकर इसके रूप में राधा निखरकर सामने आ जाना चाहती हो। बहुत देर तक वह इसी मूर्ति को देखता रहा। फिर अचानक ही उसने कदमों की चाप सुनी तो ठिठककर बच्चे को वहीं पलंग पर लिटा दिया। मूर्ति को दुबारा देखा‒जिसके कदमों में चंद टुकड़े छितरे पड़े थे। पहले कमरे में वापस आकर उसने अपना चश्मा आंखों पर चढ़ा लिया और अनजान बनकर बैठ गया।

 बाबा हरिदयाल अंदर प्रविष्ट हुआ। उसने राजेश को अदब से सलाम किया। पीछे राधा भी आकर खड़ी हो गई थी।

 राजेश ने उसी प्रकार बैठे-बैठे अपने आने का मकसद बताया।

 ‘कैसी मूर्तियां चाहिए बाबू साहब?’ बाबा ने कुछ झुककर पूछा‒ ‘धार्मिक या दूसरे प्रकार की?’

 ‘इस समय आपके पास जितनी भी मूर्तियां हों, मैं सब लेने को तैयार हूं, चाहे जैसी भी बनी हों।’

 ………..‘बाबू साहब, इस समय तो मेरे पास केवल एक ही मूर्ति है और वह भी अधूरी है। आप दो दिन बाद आएं तो उसे पूरी कर दूंगा।’

 ‘क्या मैं देख सकता हूं उस मूर्ति को?’ राजेश ने उठने का ढंग बनाते हुए पूछा।

 ‘हां-हां, क्यों नहीं! आइए’‒ बाबा दूसरे कमरे में प्रविष्ट हुआ।

 राजेश उसके पीछे हो लिया। राधा भी पीछे-पीछे चली आई।

 राजेश ने मूर्ति से पहले पलंग पर दृष्टि डाली। बच्चा जाग रहा था, राधा ने आगे बढ़कर उसे गोद में उठा लिया।

 ‘बहुत प्यारा बच्चा है।’ राजेश ने कहा‒ ‘क्या नाम है इसका?’

 ‘कमल!’ राधा ने धीमे स्वर में कहा।

 राजेश ने सोचा, कीचड़ में उत्पन्न होने वाले इस सुंदर फूल का नाम कमल ही होना चाहिए। ‘कमल’ ‒उसने नाम दुहराया।

 बाबा एक पल ख़ामोश खड़ा रहा, फिर मूर्ति उठाकर उसके पास ले आया। बोला‒‘यही मूर्ति है। यदि छुट्टी होती तो इसे मैं आज शाम तक ही पूरी कर देता। थोड़ा-थोड़ा करके समय लगाता हूं, इसलिए आप इसे परसों तक अवश्य ले सकते हैं।’

 

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