………….आज से लगभग 15 वर्ष पहले जब कुछ दिनों के लिए राजा विजयभान सिंह अपने दिल की भभकती आग को ठंडा करने के लिए इस पहाड़ी इलाके में भटक रहे थे, तब उनकी उपस्थिति का ज्ञान करके यहां के कार्यकर्ताओं ने उनके सम्मान में एक पार्टी दी थी और बदले में सैनिटोरियम के लिए एक अच्छी-ख़ासी रकम वसूल कर ली थी। आज उन्हें कोई नहीं जानता था, कोई नहीं पहचानता था। आज भी वह डॉक्टर यहां था, जिसने खुले शब्दों में अस्पताल के लिए उनसे भीख मांगी थी, आज भी कुछेक नर्स तथा सिस्टर यहीं थीं, परंतु राजा विजयभान सिंह अब राजा नहीं थे।
वह एक साधारण रोगी थे‒ टी.बी. के रोगी, जिसे मानो किसी ने तरस खाकर सड़क पर से उठाकर यहां भर्ती करा दिया था…दाढ़ी और सिर के बाल बढ़े हुए…सफ़ेदी छाई हुई थी, अपने ही सम्मान में जड़ी उस संगमरमर की प्लेट को बार-बार देखने के बाद भी उनकी आंखें छलक पड़ती थीं। प्यार ने उन्हें क्या से क्या बना दिया? पागल! दीवाना! उनका प्यार सार्थक नहीं हो सका। प्रयत्न निष्फल! तपस्या व्यर्थ गई, पूजा रास नहीं आई। पता नहीं उनका प्रायश्चित कभी पूरा होगा भी या नहीं? उसके दिल में अब कोई इरादा नहीं था, अभिलाषा नहीं थी। उनसे जो हो सका वह कर दिया, कमल के लिए भी और राधा के लिए भी, परंतु दिल के अंदर एक आशा अवश्य थी, यह आशा दिल के अंधकार में जाने किस कोने का पर्दा उठाकर बार-बार झांक लेती थी…एक दिन, जब वह नहीं रहेंगे तो राधा उन्हें अवश्य क्षमा कर देगी। काश! राधा उन्हें उनके जीवनकाल में ही क्षमा कर दे‒एक बार ही सही‒केवल एक बार ही उसके पगों में अपना दम तोड़ते हुए उन्हें सदा के लिए शांति मिल जाएगी।
सैनिटोरियम में दाखिल होने से पहले उन्होंने अपना स्टेट बैंक में जमा किया हुआ सारा रुपया कमल के नाम कर दिया था। सारे कागजात भी उसे लखनऊ से ही भेज दिए थे। अपने लिए उन्होंने कुछ भी नहीं बचाया, बचाकर करते भी क्या? अब तो जीने की आशा ही ख़त्म हो चली थी। जीवन कोई महत्त्व नहीं रखता था। इस संसार से वह उकता चले थे। प्रकृति के अंज़ाम से उन्हें कोई लगाव नहीं रह गया था। ख़ुद को संतोष दे दिया था कि वह अपने कर्मों का फल भुगत रहे हैं, पापों की सज़ा काट रहे हैं। उनका प्रायश्चित अब मरकर ही पूरा होगा।
सैनिटोरियम में आए उन्हें काफी दिन हो चले थे और ज्यों-ज्यों उनका इलाज होता गया, स्वस्थ होने के बज़ाय अवस्था गिरती ही चली गई। वह पलंग पर उठकर बैठते भी तो हांफने लगते। कुछ कहना चाहते तो रुक-रुककर, मानो ज़बान लड़खड़ा रही हो। बात करते तो कभी-कभी ऐसा प्रतीत होता मानो दिल बैठ जाएगा और तब वह बहुत बेचैनी से अपना दम निकलने की प्रतीक्षा करने लगते।
उनका अपने वार्ड के मरीज़ों से भी कोई संपर्क नहीं था। सभी का कोई-न-कोई देखने वाला अवश्य था, मिलने के लिए कोई अवश्य आता, फलों का रस पहुंचाने वाला कोई-न-कोई अवश्य था‒परंतु उनका अपना कोई नहीं था…अकेले…मानो संसार में अकेले आए हैं और अकेले ही जाएंगे। जब सुबह होती तो वह तड़के सूर्य की पौ फटने से पहले ही अपने बेड के समीप वाली खिड़की खोल लेते। ठंडी-ठंडी पहाड़ी हवाएं मुखड़े को छू जातीं, तब भी वह पट बंद नहीं करते। आकाश पर नज़र आते सुबह के तारे को देखकर उन्हें एक विचित्र संतोष मिलता…कुछ देर बाद ही इस तारे की चमक, इसकी यह मुस्कान सूर्य की तपती रोशनी का शिकार होकर बिलकुल फीकी हो जाएगी…इतनी फीकी कि यह दिखाई भी नहीं देगी, बिलकुल उनके जीवन के समान। राधा का विचार कांटा बनकर शरीर में चुभने के पश्चात् भी उनके दिल को वास्तविक संतोष था। अच्छा हुआ जो उन्होंने राधा को अपनी सूरत नहीं दिखाई वरना जाने क्या परिणाम होता और अधिक घृणा वह सहन नहीं कर पाते, दर्द बर्दाश्त नहीं होता। राधा ने उन्हें कभी क्षमा नहीं किया। क्षमा करने के लिए ठंडे दिल से कभी सोचा भी नहीं, यदि अपने दिल के अंदर नफ़रत की चिंगारी को बुझाकर वह एक बार भी उनकी आंखों में झांक लेती तो उसे विश्वास हो जाता कि वह उसे प्यार करते हैं, प्यार, कितना प्यारा नाम है…सुंदर…मीठा…इसे सदा होंठों से लगाए रखने का मन करता है, यह जानते हुए भी कि इसका प्रभाव शरीर के अंदर ज़हर बनकर फैलेगा। होंठो से किसी वस्तु को लगाए रखने का नाम ही प्यार है।
आज 14 अगस्त, 1970 है। कल 15 अगस्त है, सारा देश स्वतंत्रता दिवस मनाएगा…वह देश जिसको स्वतंत्र कराने के लिए राजा विजयभान सिंह की अपनी दौलत का भी एक बड़ा भाग काम में आया है। कल उनका जन्म दिवस भी होता है। कैसी शुभ घटना है यह। शायद यह वर्ष उनके लिए अंतिम वर्ष है। उनकी अवस्था दिन-प्रतिदिन गिरती ही जा रही है। राधा से राजा विजयभान सिंह के रूप में मिले उन्हें आज 23 वर्ष से भी अधिक समय हो गया। जबसे उनका साथ छूटा था उन्होंने अपने जन्म दिवस पर ध्यान ही नहीं दिया था, ध्यान दिया भी तो केवल आंसू बहाने के लिए, रोने के लिए और तड़पने के लिए…अपने जीवन के दिन पूरे करने के लिए। यदि राधा ने उन्हें क्षमा कर दिया होता तो वह राजमहल की रानी होती और फिर 15 अगस्त को वह इस ख़ुशी के अवसर पर सारे कस्बे को खाना खिलाते, मिठाइयां बांटते, मंदिर में चढ़ावे भेजते परंतु अब यह सब सोचने से क्या होता है। क्या लाभ है इन आशाओं का, सपना देखने से? अब तो उनका जीवन ऐसी मंजिल तक पहुंच चुका है जहां से कोई लौटकर नहीं आता। अपनी बेबसी पर उनकी आंखें छलक आईं।
अपने निश्चित समय पर एक नर्स उनके पास आई… उसके हाथ में एक पैकेट था, पुराने अख़बार से लिपटा हुआ… जिसे उसने लापरवाही से पलंग के समीप ही एक छोटी मेज़ पर रख दिया। चार्ट पढ़ा और इंजेक्शन तैयार करती हुई बोली, ‘बाबा! तुम इतने ख़ामोश क्यों रहते हो?’
परंतु उसका रोगी कुछ न बोला, ख़ामोश ही रहा। अचानक उसकी दृष्टि ठिठक गई। पैकेट पर सामने ही मोटे-मोटे शब्दों में उसका अपना नाम छपा हुआ था। उसने झट वह पैकेट उठा लिया और पढ़ा‒राजा विजयभान सिंह! राधा ने उसे राजा विजयभान सिंह से संबोधित करने के बाद हाथ जोड़कर क्षमा मांगते हुए विनती की थी कि वह घर लौट आएं‒ तुरंत ही।………….
रोगी के मुखड़े पर एक चमक लौट आई, तुरंत ही, बिलकुल इस प्रकार जैसे बुझता दीपक दम तोड़ने से पहले एक बार चमक उठा हो। ख़ुशी से उसका सारा शरीर कांपने लगा। होंठ थरथरा उठे। राधा ने उसे क्षमा कर दिया, राधा ने क्षमा कर दिया। वह स्वयं राजा विजयभान सिंह से क्षमा मांग रही है। वह उन्हें बुला रही है, तुरंत ही। रोगी ने अपने अंदर एक विचित्र-सी ताकत का आभास किया। प्रसन्नता बर्दाश्त नहीं हो रही थी, इसलिए वह बहुत ज़ोर से चीख़ पड़ा, ‘राधा!’ उसकी आवाज़ मानो सारे सैनिटोरियम में गूंज गई, आसपास के सोते-जागते रोगी चौंक पड़े।
नर्स इंजेक्शन तैयार कर रही थी। उसकी इस अचानक चीख़ पर उसका भी कलेजा कांप गया। उई! उसके होंठों से निकला, सीरिंज़ हाथ से छूटकर फर्श पर गिर पड़ी। उसने घूरकर रोगी को देखा।
‘राधा!’ रोगी फिर चीख़ा, इस बार पहले से भी तेज स्वर में, कि नर्स ने कांपकर अपनी बांहें छाती से बांध लीं। उसने रोगी को देखा, जिसके मुखड़े पर ऐसी सुर्खी थी जिसका वह उचित अनुमान लगाने के बज़ाय उसे पागल समझ बैठी। स्तब्ध-सी वह वहीं खड़े-खड़े उसे देखने लगी।
रोगी ने पागलों के समान फिर चीख़ना चाहा तो इस बार उसे खांसी का दौरा आ गया। वह बुरी तरह खांसने लगा‒खांसता ही गया। यहां तक कि उसके होंठों पर रक्त की लाली छा गई। पलंग की चादर पर तथा हाथ के पैकेट पर भी ख़ून के छींटे पड़ गए। खांसी के दौरे ने उसे बिलकुल पस्त कर दिया। वह बेहाल हो गया। पैकेट हाथ से छूटकर नीचे गिर पड़ा तो नर्स ने उसे घूरकर देखा और फिर लपककर झट अपना पैकेट उठा लिया। फिर मन-ही-मन उस पर बड़बड़ाती वह दूसरे वार्ड में डॉक्टर को बुलाने बढ़ी ही थी कि वह स्वयं ही आ गए। शायद रोगी की चीख़ सुनकर वह भी घबरा गए थे। रोगी को दौरा इतना सख्त पड़ा था कि खांसते-खांसते वह दर्द के कारण अपनी छाती पकड़कर घायल पशु के समान तड़पने लगा। डॉक्टर ने तुरंत ही उसे एक इंजेक्शन दिया तो उसका दौरा कम हुआ। खांसी मद्धिम पड़कर रुक गई। गहरी-गहरी सांसों के साथ उसकी आंखें बंद होने लगीं तो डॉक्टर ने उसे ठीक से लिटा कंबल ऊपर तक ओढ़ा दिया। रोगी सो गया।
जब उसकी आंखें खुलीं तो उसने लेटे-ही-लेटे गर्दन घुमाकर चारों ओर देखा। खिड़की के बाहर का वातावरण बिलकुल अंधकारमय था। रात चढ़ रही थी। वह अपने समीप वाले बेड की ओर लपका। नौजवान में एक तपेदिक का रोगी भी लेटा हुआ था। वह उसी को देख रहा था।
‘भइया!’ अपनी फूलती सांस पर काबू पाते हुए उस बूढ़े और निर्बल रोगी ने उससे पूछा, ‘तुम तो शायद लखनऊ के ही रहने वाले हो?’
‘हां।’ जवान रोगी ने कहा। बूढ़े बाबा पर उसे तरस आया, ‘क्यों?’
‘यहां से लखनऊ जाने वाली गाड़ी कब मिलती है?’ उसने पूछा, ‘तुम्हारे भाई-बंधु तो हर सप्ताह ही आते रहते हैं।’
‘रात नौ बजे गाड़ी छूटती है।’ उसने पूरी करवट लेते हुए अपना कंबल ऊपर तक खींचा‒ ‘क्यों? कोई जाने वाला है क्या?’
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