………..‘भगवान तुम्हारा सर्वनाश करे!’ राधा उसी प्रकार कहती रही‒ ‘तड़प-तड़प कर, तुम बर्बाद हो जाओ, लुट जाओ, भगवान करे मरने से पहले तुम खूब तड़पो। तुम्हें कोई एक बूंद पानी भी नहीं दे, जालिम, पापी…।’ राधा ने क्रोध से दांत पीसे।
प्रताप सिंह बल खाकर रह गया, परंतु राजा विजयभान सिंह के होंठों पर एक आह उभर आई। घोड़े से उतरकर वह राधा के समीप आए। बहुत दर्द भरे स्वर में बोले‒ ‘ठीक है राधा! तुम यहां नहीं रहना चाहती तो न सही, लेकिन जहां कहीं भी रहना, इतना अवश्य याद रखना। यदि मुझे क्षमा करने की कोई कीमत हो तो वसूल करने से हिचकिचाना नहीं। मैं हर अवस्था में अपने पापों का प्रायश्चित करने को तैयार हूं।’
फिर वह पलट कर अपने घोड़े पर सवार हुए। अपने मंत्री की ओर देखा और बोले‒ ‘आओ चलो प्रताप सिंह।’ और फिर उन्होंने घोड़े को ऐड़ लगा दी। जाते समय उनकी आंखों में आंसू छलक आए थे। प्रताप सिंह उनके पीछे हो लिया। गर्द के गुब्बारे में घोड़ों की टापों के साथ जब दोनों गुम हो गए, तो राधा ने अपने बाबा को सहारा देकर उठाया और बढ़ती धुंध में एक अज्ञात मंजिल की राह अपना ली।
राजमहल की दूसरी मंजिल पर एक सोफे में धंसे राजा विजयभान सिंह बहुत खामोश थे। उनका विलायती कुत्ता बहुत आजादी के साथ उनके कदमों पर सिर रखे हांफ रहा था। एक ओर प्रताप सिंह एक बड़ी मेज के किनारे टेक लगाए बैठा शराब का जाम चढ़ाने में व्यस्त था।
प्रताप सिंह उनका दाहिना हाथ था, बहुत विश्वसनीय मित्र, बिलकुल अपने बाप-दादा के समान, जिन्हें राजा विजयभान सिंह के बाप-दादा की सेवा करके विश्वास जीतने का सौभाग्य प्राप्त था। रात की बारीकी, महल की रंगीनी की आज तीन दिन से प्रतीक्षा करते-करते निराश हो चली थी।
ऐसा लगता था मानो इस महल, इस हवेली में किसी की मृत्यु हो गई है। कोई शोरगुल नहीं, नाच-गाने नहीं, न कहकहे, न किसी प्रकार की जगमगाहट। यह असाधारण बात महल के सिपाही से लेकर गांव तक में एक चर्चा का विषय बनने लगी थी।
‘महाराज…!’ प्रताप सिंह ने शराब का जाम होंठों से लगाते हुए पूछा, ‘आखिर उस लड़की में कौन-सी ऐसी बात है, जिसने आपका जीना भी कठिन कर दिया?’
‘यह बात मैं स्वयं समझने से वंचित हूं प्रताप!’ उन्होंने चांदी की अंगूठी को दाहिने हाथ की अंगुलियों द्वारा घुमाते हुए कहा। यह राधा की ही अंगूठी थी, जिस पर उसका नाम लिखा हुआ था। इसे वह अपने उन तमाम जेवरों समेत रंगमहल में उतारने के बाद छोड़ गई थी। उन्होंने बात जारी रखी‒ ‘परंतु कोई-न-कोई बात उस लड़की में अवश्य ऐसी थी, जिसने मेरे अंदर एक इंकलाब उत्पन्न कर दिया है, मेरे जीवन की धारा बदल दी है।
शायद ऐसा उसकी आकर्षक आंखों का ही प्रभाव हो, शायद उसके आंसुओं में ही ऐसा जादू हो, शायद उसका इस प्रकार मुझसे घृणा करने का ही प्रभाव हो। जो वस्तु कठिनाई से प्राप्त होती है, उसके प्रति मन में रुचि का बढ़ना एक स्वाभाविक बात है। उसकी तड़पती आह अभी तक मेरे कानों में गूंज रही है। ऐसा लगता है प्रताप! जैसे उसके टूटे दिल से निकला शाप कहीं सत्य न हो जाए।’
‘गोली मारिए ऐसे शाप को महाराज! आप भी क्या बात लेकर बैठ गए।’ प्रताप सिंह ने लापरवाही से दूसरा जाम अपने मालिक के लिए भरा। बोला, ‘जब तक अंग्रेजी राज्य है, हमारा कुछ नहीं बिगड़ने का।’
‘यह राज्य तो चार दिन का है। आखिर एक-न-एक दिन तो हमें स्वतंत्र होना है।’
‘तो इससे क्या अंतर पड़ता है। राजा विजयभान सिंह तो जीवित रहेंगे। इतनी बड़ी जायदाद, दौलत, यह राज्य, कोठियां, महल, सबका-सब आप ही का तो रहेगा, यदि सरकार ने कुछ लिया तो इसका पूरा-पूरा मूल्य भी चुकाएगी, आखिर स्वतंत्रता प्राप्त करने के लिए जो खर्च देश के नेताओं पर आ रहा है, उसका भार आप जैसे राजाओं पर ही तो है।’
‘मुझे इसकी चिंता नहीं प्रताप! जो हमारा अधिकार है वह तो हमें मिलेगा ही, परंतु जबसे राधा ने एक बात कही है, मेरे अंदर एक कांटा जाने क्यों संदेह बनकर खटकने लगा है।’
‘इस कांटे को फूल में बदलने का एक ही रास्ता है।’ प्रताप सिंह जाम हाथ में लेकर उसके समीप आया। उसकी ओर बढ़ाते हुए बोला‒‘अपने आपको दुबारा दूसरी सुंदरियों में व्यस्त कर लीजिए। गांव में अभी भी एक से एक सुंदर लड़कियां हैं। शराब और नारी, नारी और शराब, इन दो वस्तुओं का काकटेल सदा ही इस शाही खानदान को रास आया है। इससे एक पल भी परहेज किया, और बीमारी उपस्थित। यह हमारी शान को शोभा नहीं देता कि गांव की एक नाचीज छोरी इस शाही खानदान की परेशानी का कारण बने।’
‘प्रताप सिंह!’ राजा विजयभान सिंह जाम हाथ में लेकर खड़े होते हुए खिड़की के समीप आए। बाहर चांदनी छिटक आई थी और इसमें वह सामने उस विशाल वृक्ष को झूमता हुआ बहुत स्पष्ट देख रहे थे। उन्होंने एक आह भरी और बात जारी रखी, ‘कभी-कभी एक छोटा-सा कांटा पूरे शरीर में नासूर उत्पन्न कर देता है। राधा के जाने के बाद मैंने हमेशा इस वृक्ष के पत्तों को केवल झड़ता हुआ ही देखा है। तुम्हीं देखो! इसकी शाखें किस कदर खाली-खाली लगने लगी हैं।’
‘यह तो पतझड़ का मौसम है महाराज! पत्तों का झड़ना तो प्राकतिक है।’
‘हां, परंतु जाने क्यों इसकी सूखी अवस्था देखकर मुझे अपने बारे में एक विचित्र-सा विश्वास होता जा रहा है।’
प्रताप सिंह अपने मालिक पर तरस खाकर रह गया। परंतु फिर सोचा, जवानी का रक्त है, दिल लग जाना कोई बड़ी बात नहीं। कुछ दिन बाद राधा की याद एक धुंध बनकर स्वयं मिट जाएगी तो राजमहल की रंगीनी फिर आरंभ हो जाएगी।
राजा विजयभान सिंह सामने ही देखते रहे, जाम हाथ में लिए हुए। उनकी आंखों के सामने वह दृश्य घूम गया, जब उनके पिताजी गांव के लोगों के छोटे-से-छोटे अपराध करने पर भी सख्त दंड देने से नहीं चूकते थे। अगणित लोगों को इसी वृक्ष से बंधवाकर कोड़ों से बुरी तरह मारते हुए अधमरा कर देते थे।
जब अपराधी की पीठ से रक्त की धार बहती देखकर उनकी आंखें छलक आयी थीं तो समीप खड़े उनके दादाजी को अपने पोते की निर्बलता पर सख्त क्रोध आया था और इस घटना के बाद हर अपराधी को कोड़े खाते देखने के लिए उन्हें केवल इसलिए सामने खड़ा कर दिया जाता था ताकि उनका दिल पत्थर का हो जाए।
राजा का दिल पत्थर न हो तो राज्य आसानी से नहीं चलता‒ शायद ऐसा ही उनके शाही खानदान का विश्वास था। गरीब जनता को ढील दो तो यह एक के बाद एक अधिकार की मांग करने लगते हैं और इसलिए अपने खानदान की चलन को चलाते हुए उन्होंने प्रयत्न किया था कि जीवन का वह अधिक-से-अधिक आनंद उठाएं।
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