‘कहूंगी और जरूर कहूंगी।’ राधा तड़पकर बोली‒’जब तक जीवित रहूंगी, तब तक तुम्हारे राज्य की बर्बादी की कामना करती रहूंगी।’ राधा जोश में आकर एकदम से ‘आप’ कहते-कहते ‘तुम’ पर उतर आई। प्रताप सिंह, राजा विजयभान सिंह का मंत्री ही नहीं मित्र भी था। उससे यह अपमान सहन नहीं हो सका तो कंधा झटककर तलवार म्यान में डालते हुए वहां से चला गया। राधा ने अपनी बात जारी रखी। रोते हुए वह बोली‒’इस हवेली में दिन-रात उल्लू बोलेंगे, चमगादड़ और सियारों का यह अड्डा बन जाएगा। यहां आत्माएं भटक-भटककर तुम्हारा गला दबाती फिरेंगी। लोग इस हवेली, इस राजमहल की चौखट पर थूकेंगे। एक अबला की आह कभी बेकार नहीं जाती।’
‘राधा!’ राजा विजयभान सिंह ने सब्र से काम लिया। बोले‒ ‘कल किसने देखा है, लेकिन फिर भी यदि मैं अपने पापों का पश्चाताप कर लूं तो क्या तुम तब भी मुझे क्षमा नहीं करोगी?’
‘कभी नहीं।’ राधा अटल मन से बोली‒’बल्कि मैं चाहूंगी कि भगवान तुम्हें ऐसी जगह मारे, जहां तुम पानी की एक बूंद को भी तरस जाओ। तुम्हें चिता भी प्राप्त नहीं हो। तुम्हारे शरीर में कीड़े पड़ जाएं। गिद्ध और कौवे तुम्हारी लाश को नोच-नोचकर खाएं।’
‘नहीं राधा! नहीं, ऐसी नफरत मत करो, वरना मेरा जीना कठिन हो जाएगा। “राजा विजयभान ने अपने होंठ भींचे। उनकी आंखें छलक आईं‒ ‘तुम्हें मुझे क्षमा करना ही पड़ेगा।’
‘एेसा समय कभी नहीं आएगा। ‘राधा ने उसी प्रकार सामने देखते हुए कहा और मन की गहराई से उन्हें फिर कोसा।
‘एेसा समय आएगा…. राजा विजयभान सिंह बोले‒’एेसा समय अवश्य आएगा, परिस्थितियां क्या नहीं करतीं। तब तुम मुझे क्षमा ही नहीं करोगी, प्यार भी करने लगोगी। मेरी तड़प देखकर तुम्हारे दिल में दर्द उठने लगेगा। मेरी आंखें उदास पाकर तुम्हारी पलकें भीग जायेंगी। अपने पापों का मैं ऐसा प्रायश्चित करूंगा‒ ऐसा पश्चाताप कि तुम मुझे अपना लोगी। संसार में कुछ भी असंभव नहीं।’
तभी प्रताप सिंह वहां फिर आ धमका। विजयभान सिंह की भीगी आंखें देखकर उसने राधा को घूरकर देखा। मगर फिर नजरें फेरकर बोला‒’महाराज! गांव से फरियादी आए हैं।’
‘तुम इन्हें रंगमहल में पहुंचा दो, हम अभी दरबार में पहुंचते हैं।’ विजयभान सिंह ने अपनी अवस्था संभालकर राधा की ओर इशारा किया और फिर दूसरी ओर मुंह फेर लिया।
राधा ने अपनी दृष्टि नीचे झुका ली। उसने देखा हवेली के पिछले भाग में चारदीवारी के अंदर एक तालाब है…. छोटा-सा खूबसूरत तालाब, जिसकी सतह पर रंग-बिरंगे फूल तैर रहे हैं। तालाब से उठती इत्र की सुगंध उसके नथुनों तक पहुंच रही थी, परंतु उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो वह फूलों का इत्र नहीं, गांव की कमसिन और मासूम लड़कियों के शरीर से निचोड़ा हुआ रक्त है, जो सड़-सड़कर उसके नथुनों में नासूर उत्पन्न कर रहा है। तालाब की चारदीवारी को अगणित सुंदर नग्न शरीरों को मछलियों के समान बल खाकर तैरते हुए देखने का सौभाग्य वर्षों से प्राप्त था। तालाब के बाहर एक ओर बेंत के कुछेक मोढ़े सजे थे। इधर-उधर सिपाही टहल रहे थे। राधा ने घृणा से उस ओर थूकना चाहा, परंतु उसका गला सूखा हुआ था। उसकी यह इच्छा भी पूरी नहीं हो सकी।
आगे की कहानी कल पढ़ें, इसी जगह, इसी समय….
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