………….‘ठीक है बेटी…।’ फादर जोजफ ने अफसोस प्रकट किया‒ ‘यदि ऐसी बात है, तो तुम अवश्य जाओ। मेरी शुभकामनाएं तुम्हारे साथ हैं। दिल्ली में हमारा अलग मिशन है, वहां हमारा अपना अस्पताल है, स्कूल है, अनाथालय है, मैं तुम्हें एक पत्र दिए दे रहा हूं, तुम वहां जाकर फादर फ्रांसिस से मिल लो; तुम्हें तथा बाबा को काम मिल जाएगा तथा साथ ही तुम्हारे बच्चे की पढ़ाई भी मुफ्त होती रहेगी। लो, इसे रख लो।’ फादर जोजफ ने जेब में हाथ डाला। सौ-सौ के नोट निकाले और उसकी ओर बढ़ा दिए, ‘ये तुम्हारे काम आ जाएंगे।’
राधा ने रुपए लेने से इनकार करना चाहा। बाबा हरिदयाल भी इसे स्वीकार करने के पक्ष में नहीं थे, परंतु बिना लिए उनका काम भी नहीं चल सकता था। सोच में पड़ गए कि क्या करें?
‘घबराओ नहीं, यह किसी प्रकार की भीख नहीं है।’ फादर जोजफ ने नोट हाथ में जबरदस्ती थमाते हुए कहा‒‘यह एक सहायता है। सहायता और भीख में अंतर होता है। तुमने मुझे प्रभु यीशु मसीह की मूर्ति बनाकर दी और उसके बदले में यह रुपया तुम्हारी आवश्यकता पर दे रहा हूं। हां, एक बात मैं फिर दोहराऊंगा। आज तक मैंने जैसा तुम्हारे साथ किया है, भविष्य में तुम भी दूसरों के साथ ऐसा ही करना, इंसानियत का मतलब ही यह है कि हम एक-दूसरे की कठिनाइयां हल करें।’
बाबा ने कृतज्ञता से गर्दन झुका ली। एक समय था जब उसके पास खेत थे, तब वह स्वयं दूसरों की सहायता करने में गर्व किया करता था, परंतु जबसे उसके बेटे की दो सुंदर लड़कियां उत्पन्न हुई थीं, एक के बाद एक मुसीबत आती चली गई, उनके जवान होते-होते तो उनका सभी कुछ लुट गया।
बाबा और राधा ने लगभग एक साथ उनके चरण छुए और फिर तुरंत ही नई मंजिल की यात्रा पर निकल पड़े। ……
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………. विजयभान सिंह अपने राजमहल में, लॉन के अंदर अशोक के एक वृक्ष की छांव तले बैठे सामने के गेट से उस पार कुछ दूरी पर खड़े एक महत्वपूर्ण वृक्ष की ओर देख रहे थे, जिसकी जड़ों को बेगुनाहों के रक्त से सींचा गया था। ऐसा प्रतीत होता था मानो स्वतंत्रता के बाद इस वृक्ष पर भी दुष्प्रभाव पड़ा है। पत्तियों में वह ताज़गी नहीं थी। डालियां हाथी के समान नहीं झूल रही थीं। नीचे के चबूतरे पर गंदगी-सी एकत्र थी। बिलकुल उनके जीवन के समान ख़ामोश, परंतु डालियों पर कौवे कांव-कांव कर रहे थे। चबूतरे के समीप कुछेक कुत्तों के पिल्ले खेल रहे थे। भारत को स्वतंत्र हुए एक वर्ष भी नहीं हुआ था, परंतु फिर भी किसानों में एक नये जीवन की जागृति उत्पन्न हो चुकी थी और इसलिए वे बेरोक-टोक इस वृक्ष के नीचे से निकल जाते थे। एक समय था कि इस ओर कदम बढ़ाते हुए भी लोगों के दिल कांप जाया करते थे। बिना झुके इस ओर से जाने वाले को इसी वृक्ष की जड़ से बांधकर कोड़े मारे जाते थे।
सहसा प्रताप सिंह ने लॉन में प्रवेश किया‒मुखड़े पर प्रसन्नता तथा शीघ्रता का प्रदर्शन लिए हुए।
‘महाराज…!’ वह बोला‒ ‘हम आपके लिए एक बहुत बड़ी प्रसन्नता की ख़बर लेकर आए हैं।’
‘क्या?’ विजयभान सिंह ने चौंककर उठते हुए पूछा‒ ‘क्या राधा का पता चल गया?’
प्रताप सिंह जानता था कि विजयभान सिंह के लिए यदि कोई प्रसन्नता की ख़बर हो सकती है, तो वह यही है।
‘जी हां महाराज…!’ उसने कहा‒ ‘बेलापुर से दो मील दूर आपकी हवेली से सटकर जो ईसाई अस्पताल है, राधा देवी आजकल उसी में हैं।’ विजयभान सिंह की ख़ातिर वह राधा को राधा देवी कहने लगा था। उसने बात जारी रखी‒ ‘आपकी आज्ञानुसार जब मैं उस हवेली का निरीक्षण करने गया तो अचानक ही ऊपर की खिड़की पर से मेरी दृष्टि अस्पताल में उनके ऊपर पड़ गई।’
‘प्रताप…!’ विजयभान सिंह ने आगे बढ़कर उसकी बांहें पकड़ ली। उनसे ख़ुशी बर्दाश्त नहीं हो रही थी, बोले‒‘क्या तुम सच कह रहे हो? राधा मिशन अस्पताल में है? ओह!… आज कितना ख़ूबसूरत दिन है, किस कदर ख़ुशी का दिन! कहीं इस ख़ुशी में मेरा दम ही न निकल जाए।’
‘भगवान हम पर आपका साया सदा रखे महाराज…।’ प्रताप सिंह ने कहा, ‘लेकिन…।’
‘लेकिन क्या?’ विजयभान सिंह का दिल ज़ोर से धड़का। मुखड़े पर हवाइयां उड़ने लगीं।
‘उन्होंने अपनी सूरत दिखाना उचित नहीं समझा।’
विजयभान सिंह एक पल ख़ामोश रहे। फिर मुस्कराने का प्रयत्न करके उसकी बांहें छोड़ दीं। बोले‒ ‘यह तुमने अच्छा ही किया प्रताप। यदि उसे ज्ञात हो जाता कि तुम्हारी दृष्टि उस पर पड़ चुकी है, तो शायद वह वहां से भी भाग जाती।’ उन्होंने एक आह भरी, ‘परंतु एक दिन मैं उसके दिल को अपने सच्चे प्यार का विश्वास दिलाकर रहूंगा। उसे बताऊंगा कि मेरे पापों का प्रायश्चित हो रहा है। मैं अपनी सजा भुगत रहा हूं। शायद भगवान मुझे क्षमा करके मेरी झोली में कांटों के बज़ाय फूलों का उपहार ही डाल दें।’
‘महाराज…।’ प्रताप सिंह ने विजयभान सिंह के दिल की अवस्था का अनुमान लगाया तो बोला‒ ‘मैं वहां की एक नर्स से मिला था। पता चला कि राधा देवी एक बच्चे की मां बन चुकी हैं।’
‘क्या?’ विजयभान सिंह जैसे दुबारा आकाश पर झूला झूल गए, ‘वह मां बन गई? मेरे बच्चे की मां?’
‘जी महाराज…।’ प्रताप सिंह ने उत्तर दिया‒‘उस बच्चे को मैंने स्वयं देखा। बिलकुल आपके समान ही है।’
विजयभान सिंह तड़पकर रह गए। मन चाहा तुरंत ही दौड़कर राधा को छाती से लगा लें। अपनी संतान को चूम-चूम डालें। उसे देखने को उनकी आंखें तरस गईं।
‘महाराज…।’ प्रताप सिंह ने फिर कहा‒‘वह नर्स बता रही थी कि राधा देवी को इस बच्चे के जन्म में लेने-के-देने पड़ गए थे। वहां पर यह बात प्रसिद्ध हो चुकी है कि किसी जालिम राजा के भय से वह कहीं-से-कहीं भागती हुई छिप रही थी। भागने के लिए उसे एक रात गधे की सवारी का सहारा भी लेना पड़ा था, जब वह गर्भवती थी और बच्चे का जन्म होने वाला ही था, उसी रात वर्षा और तूफान में छिपकर उन्होंने सुअरों की खोली में शरण ली और वहीं कीचड़ में ही उस नन्हें से सुंदर कमल को जन्म भी दिया।’
‘शायद कमल का फूल भी किसी ऐसे ही पाप का फल है‒करे कोई और भरे कोई।’ विजयभान सिंह ने एक गहरी सांस ली।
‘यह तो बड़ा अच्छा हुआ, जो बच्चा पैदा होते ही यह ख़बर मिशन अस्पताल पहुंच गई। फादर जोजफ ने तुरंत ही उनकी जान बचाने का प्रबंध कर दिया, वरना जाने क्या हो जाता।’
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विजयभान सिंह कुछ देर तक सोचते रहे। फिर बोले‒ ‘प्रताप! जिस जगह कीचड़ में हमारी राधा ने एक कमल को जन्म दिया है, उसे ख़रीदकर भगवान कृष्ण का एक सुंदर मंदिर बनवा दो।’ उन्होंने एक पल फिर सोचा और बात जारी की‒‘और वह हवेली जिसका निरीक्षण करने के लिए तुम गए थे, उसे अस्पताल को दान कर दो।’
‘यह तो बहुत नेक काम है महाराज…।’ प्रताप सिंह ने कहा‒ ‘इससे जाने कितने ही इंसानों को नया जीवन प्राप्त होगा और साथ ही भगवान आपके दिल की आवाज़ सुनने में भी देर नहीं करेगा।’
विजयभान सिंह कुछ न बोले, परंतु राधा को प्राप्त करने की आशा की एक किरण और बन गई थी। चुपचाप आकर वह फिर कुर्सी पर धंस गए। प्रताप सिंह को इशारे से समीप बुलाकर राधा के दिल को जीतने की योजना बनाने लगे।
फादर जोजफ अभी नाश्ता करके उठे ही थे कि उन्हें उनके नौकर ने एक परिचय-कार्ड लाकर दिया। ‘विजयभान सिंह, एक्स रूलर ऑफ रामगढ़ स्टेट।’ राधा तथा उसके बाबा की सारी कहानी उनके सामने घूम गई। अपने अस्पताल के समीप वाली कोठी की रंगरलियों ने उन्हें पहले ही सूर्यभान सिंह का परिचय दे रखा था और उनके बेटे का परिचय उन्हें राधा से मिल चुका था। विजयभान सिंह के प्रति उनके मन में घृणा भर गई, परंतु अपने द्वार पर आए मेहमान को लौटाना उन्हें शोभा नहीं देता था, अतः उन्होंने नौकर से उन्हें बैठक में बिठाने को कहा और स्वयं कपड़े बदलने चले गए।
जब वे बैठक में पहुंचे तो विजयभान सिंह अपने एक मंत्री के साथ बैठे समीप रखी एक मूर्ति को देखने में व्यस्त थे। फादर जोजफ की आहट पाते ही वे झट खड़े हो गए।
‘गुड मॉर्निंग, गुड मॉर्निंग…।’ फादर जोजफ ने बैठते हुए कहा‒ ‘बैठिए-बैठिए।’ दोनों बैठ गए तो उन्होंने कहा‒ ‘आप लोगों की मैं क्या सेवा कर सकता हूं?’
‘फादर…।’ विजयभान सिंह ने बहुत नम्रता से कहा‒‘हम आपके पास एक आवश्यक काम से आये हैं।’
‘जाहिर है। रामगढ़ से यहां आने का कष्ट करने वाला अवश्य किसी काम से आया होगा। कहिए हम आपकी क्या सेवा करने योग्य हैं?’
‘फादर! आपके यहां ‘तौबा’ मेरा मतलब ‘कनफैशन’ का बहुत बड़ा महत्त्व है न?’ विजयभान सिंह ने भूमिका बांधी।
‘जी हां, परंतु यह महत्त्व तभी तक है जब तक आप तौबा करने के बाद पाप से दूर रहें। तौबा से क्षमा अवश्य मिल जाती है, परंतु ऐसी तौबा से नहीं कि सुबह किया और शाम को पुनः उसी पाप में उलझ गए। तौबा करके पाप करने वाला तो और भी दंड का हकदार है।’
‘थैंक्यू फादर…।’ विजयभान सिंह के दिल को शांति मिली।………….
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