‘क्या कह रहे हैं?’ राधा ने भी सख्ती से पूछा‘ यही न कि राधा ने अपने घर वापस आने का साहस किस प्रकार किया? नदी में डूब क्यों नहीं मरी? परंतु तू स्वयं इन्हीं से जाकर क्यों नहीं पूछता कि क्या इनकी भी कोई संतान है? कोई लड़की है इनके पास खूबसूरत, जवान।
यदि होती तो कभी मेरे विरुद्ध यह जुबान नहीं खोलते। मेरा साथ देकर उस शैतान का सिर कुचल डालते, जिसके आगे नारी का जीवन एक खेल और तमाशा बन चुका है। ये तो टुकड़गद्दे हैं, बिके हुए लोग, आखिर इन्हीं के कारण तो इस जुल्म के आगे कोई आवाज नहीं उठा सकता, इन्हीं के डर से तो कितने गरीबों ने अपने यहां जन्मी लड़कियों को सांस लेते ही गला दबाकर मार डाला और जिस किसी के यहां लड़के भी हुए तो वह तेरे समान निकम्मे निकल गए।’
‘राधा!’ भोला बल खाकर तैश में चीखा।
‘मैं कहूंगी, हजार बार कहूंगी, तू निकम्मा है, कमीना है, राजा विजयभान…।’
‘राधा!’ सहसा बाबा ने लपककर फिर उसका मुंह बंद कर दिया, मत ले उसका नाम बेटी, मत ले। सब जानते हैं कि वह जालिम कौन है। नाम लेने से बात बढ़ेगी और फिर हमारी जुबान काट डाली जाएगी। अब हम यहां नहीं रहेंगे। यह जगह हमारे लिए नर्क से भी बदतर है।’ बाबा सिसक पड़ा।
राधा को उसने अपने गले से लगा लिया। भोला खिसियाकर रह गया। कुछ मुस्कुराया भी। राधा का भार उसके सिर से उतर चुका था। पंद्रह हजार रुपए पाकर वह राधा को छोड़ने का बहाना ही ढूंढ रहा था। वह तुरंत बाहर निकल गया।
बाबा ने अपना थोड़ा आवश्यक सामान एकत्र किया, चादर में बांधकर बूढ़े, कमजोर कंधे पर डाल लिया और राधा को लेकर बाहर निकल गया। गांव के गिने-चुने खरीद-गुलाम बहुत तिरस्कत भाव से उन्हें देख रहे थे, परंतु उन विशेष लोगों की आंखों में आंसू डबडबा आए थे जो अपने द्वार तथा खिड़की से छिपकर उन्हें जाते हुए देख रहे थे।
उनके विचार किसी के गुलाम नहीं थे, परंतु जुल्म और सितम का पलड़ा भारी देखकर साहस कमजोर पड़ चुका था। उनके पास जवान लड़कियां थीं, जिन्हें वे कभी बन-संवर कर पनघट पर जाने की आज्ञा नहीं देते थे। ऐसा न हो कि कोई कशिश पाकर इस इलाके का राजा इनकी ओर आकर्षित हो जाए।
कच्ची सड़क, पगडंडी, खेतों की मुंडेर तथा ऊबड़-खाबड़ रास्ता पार करने के बाद जब वे बहुत दूर पहुंचे तो राधा ने पलट कर अपने गांव को देखा, जहां उसका बचपन बीता था, जहां बचपन ही में उसकी सुंदरता की रक्षा करने के लिए उसके पिता ने भोला के साथ उसकी मंगनी कर दी थी। शायद विवाह भी कभी का हो जाता यदि मां अचानक ही नहीं मर जाती, यदि उसकी छोटी बहन को भी वह जालिम राजा नहीं लूट लेता और यदि उसका बाप भी कोड़े खाकर अपनी जान नहीं गंवा बैठता। गांव में अधिकांश विवाह बचपन में इसलिए कर दिए जाते थे ताकि लड़कियों की इज्जत की सुरक्षा हो सके, परंतु फिर भी इन राजाओं के भय से कोई बारात इतनी आसानी से नहीं उठ पाती थी।
डोली उठाते कहारों के पग लड़खड़ाते रहते थे। अपना गांव, अपने खेत, इन खेतोें की हरी-भरी उपज पर उड़ते पक्षियों को देखकर राधा की आंखें छलक आईं। होंठों से एक आह निकली। दिल की गहराई से उसने राजा विजयभान सिंह को फिर कोसा। दूर, सुर्ख गगन का मुंह चूमती एक सफेद हवेली शाम के धुंधलके में डूब रही थी। उस वृक्ष की चोटी भी दिखाई पड़ी, जिसकी छांव में अगणित मासूम तथा कमजोर जिंदगियां दम तोड़ चुकी थीं।
उसने देखा, एक बड़ा-सा गिद्ध हवेली की ओर पंख फैलाए उड़ता चला जा रहा है। उसी तरफ हल्की-हल्की गर्द उड़ रही थी। अचानक इस उड़ती हुई गर्द के मध्य से उसने घोड़ों की टापों की आवाज सुनी। उसका दिल बुरी तरह धड़कने लगा। भयभीत होकर उसने अपने बाबा को देखा तो उसने लपककर झट से उसे छाती से लगा लिया। वे इधर-उधर देखकर छिपने का स्थान ढूंढने लगे, परंतु समय कम था। उन्होंने देखा घुड़सवार समीप आ चुके थे।
वो घुड़सवार थे राजा विजयभान सिंह तथा उसका मंत्री प्रताप सिंह। महाराणा के समान ही उसकी मूंछें भी बड़ी-बड़ी थीं। मुखड़ा चौड़ा और शरीर हष्ट-पुष्ट, जबकि राजा विजयभान सिंह में कोई ऐसी बात नहीं थी। सारा जीवन लंदन के वातावरण में पलने के बाद वह मूंछें रखने के पक्ष में नहीं थे। घनी भवों के नीचे बड़ी-बड़ी काली पलकें सुंदर गोरे मुखड़े पर बहुत अच्छी लगती थीं। उन्हें देखकर इस बात का अनुमान लगाना कठिन था कि इस जवानी में उनका चरित्र इतना अधिक भयानक हो सकता है। क्रूरता कहीं से भी नहीं झलकती थी। घुड़सवार आकर उनके सामने खड़े हो गए। राधा अपने बाबा के और समीप सिमट गई।
‘राधा!’ राजा विजयभान सिंह ने कहा‒ ‘तुम चाहो तो यहां रह सकती हो। हमारे कस्बे में तुम पर उंगली उठाने वालों का हम सिर कलम करा देंगे।’
राधा कुछ नहीं बोली, परंतु उसके बाबा के बूढ़े शरीर में जाने कैसे खून की गर्मी अचानक ही बढ़ गई। राधा को छोड़कर वह उसके समीप पहुंचा। बहुत तिरस्कत तथा घृणित भाव से वह बोला‒ ‘राजा साहेब! किसी को मारकर कीमती कफन पहना देने से पुण्य नहीं हो जाता। राधा को तुम्हारे रहमो-करम पर छोड़ देने से तो अच्छा है कि मैं इसका गला घोंट दूं।’
प्रताप सिंह अपने मालिक के विरुद्ध एक छोटे से आदमी का यह तिरस्कार सहन नहीं कर सका। घोड़े को उसने एड़ लगाई। एक छलांग में उसके समीप पहुंच कर उसने अपने हाथ का कोड़ा हवा में लहराया और पलक झपकते ही उसे बाबा के शरीर पर दे मारा। बाबा का बूढ़ा शरीर एक ही बार में घायल होकर नीचे गिर पड़ा।
‘प्रताप सिंह…!’ सहसा राजा विजयभान सिंह जोर से चीखे। प्रताप सिंह की यह उद्दंडता उन्हें जरा भी पसंद नहीं आई।
राधा बचाव में अपने बाबा से लिपट गई। दांतों को पीसते हुए उसने बहुत घृणा से प्रताप सिंह को देखा‒ फिर राजा विजयभान सिंह को भी। एक ऐसी चिंगारी उसकी आंखों में थी कि यदि उसका बस चलता तो वह उसे नज़रों से ही जलाकर राख कर देती।
‘मार डालो, मार डालोे हमें…।’ राधा तड़पकर चीख उठी‒ ‘जालिम, पापी, नीच!’
प्रताप सिंह ने क्रोध से दोबारा अपना कोड़ा उठाया, परंतु फिर अपने मालिक की आंखों का रंग देखकर उसके हाथ ढीले पड़ गए। राजा विजयभान की आंखों में पहली बार उनके प्रति इतना लाल रक्त उतर आया था।
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