…………..‘लेकिन महाराज!’ तभी प्रताप सिंह ने सामने आते हुए कहा‒ ‘समुद्र में बड़ी मछलियां इन्हें जीने कहां देंगी?’

 ‘संसार की हर वस्तु स्वतंत्र रहना चाहती है और स्वतंत्रता इनका पहला अधिकार है। जीना-न-जीना इनके हाथ में है। हमें इससे क्या संबंध? इस एक्वेरियम को तोड़कर फेंक दो। इस रंगमहल में सजी नग्न मूर्तियों को टुकड़े-टुकड़े कर डालो। यहां की तस्वीरों में आग लगा दो इसी समय!’ राजा विजयभान सिंह अचानक ही तड़पकर चीख उठे थे। उनका मुखड़ा तमतमा उठा था।

 राधा अपने स्थान पर बैठी-बैठी कांप गई। इतना अधिक क्रोध करते हुए उसने पहली बार किसी आदमी को देखा था।

 ‘और सुनो।’ राजा विजयभान सिंह बोले‒ ‘राधा को जितनी दौलत चाहिए, इसकी झोली में डाल दो। किसी वस्तु की कमी नहीं होनी चाहिए।’

 ‘आपकी दौलत यदि मेरे माथे पर लगा कलंक मिटा सकती तो मैं अवश्य इसका उपयोेग कर लेती।’ राधा ने ‘तुम’ से ‘आप’ कहने में कुछ नम्रता बरती। ‘मुझे एक भी पैसे की आवश्यकता नहीं है, मुझे केवल रिहा कर दीजिए। मुझे और कुछ भी नहीं चाहिए।’

उसने दर्पण में देखा, उसकी बात सुनकर राजा विजयभान सिंह की आंखें बंद हो गयी थीं। मुट्ठियां भींचे वह किसी दर्द को सहन करने का प्रयत्न कर रहे थे। राधा को एक हल्का-सा सुकून मिला। अपनी इस प्रकार की नफरत की चिंगारी से एक दिन वह अवश्य ही इस राज्य की नींव गिराकर ही रख देगी, यदि वह जालिम वास्तव में उसके प्यार के लिए यूं ही तड़पता रहा।

प्रताप सिंह उसके समीप आया, उसे घूरकर देखा। अपने मालिक के अपमान में वह इस तुच्छ लड़की की गर्दन उड़ा देना चाहता था, परंतु फिर सब्र कर लिया, जाने क्या इस जादूगरनी ने कर रखा है? वह बोला‒ ‘चलो।’ और राधा उठकर उसके साथ बाहर निकल गई। एक के बाद एक खुफिया कमरों में होकर सुरंग को पार करने के बाद जब खुले वातावरण में निकली तो वह हवेली के बिलकुल ही पीछे चारदीवारी के बाहर थी। प्रताप सिंह उसे छोड़कर चला गया।

राधा ने अपने घर का दरवाजा खटखटाया ही था कि गांव वालों का जमघट एकत्र हो गया। कुुुछ लोग तो काफी दूर से ही उसके पीछे-पीछे खुसर-फुसर करते चले आ रहे थे। औरतें, बच्चे, पुरुष सभी उसे घूर-घूरकर देख रहे थे, मानो जीवन में पहली बार उसे देख रहे हों। थकी-थकी, लुटी-लुटी, उजड़ी-उजड़ी राधा की कहानी उनके सामने उस पौधे के समान थी, जो बसंत में ही आंधी का शिकार हो गया हो।

राधा ने सभी पर दृष्टि डाली। एक विचित्र-सी घृणा, एक विचित्र-सा तिरस्कार उसका स्वागत कर रहा था। ये लोग जो कल रात उसकी संवरी सुंदरता देखने के लिए घूंघट के नीचे झुके जाते थे, जो कल से पहले उसे दिल की गहराई से सम्मान देते थे, आज किस कदर बदले हुए हैं‒ किस कदर अपरिचित! उसने अपनी आंखें फेर लीं। कल की बासी सजावट उजड़ी हुई थी‒फूल मुरझाए, पत्तियां बिखरी हुर्इं कदमों तले रौंदी हुर्इं। उसके अरमानों का खून हो चुका था। उसने राजा विजयभान सिंह को दिल की गहराई से फिर कोसा, ‘कम्बख्त ऐसे स्थान पर मरे, जहां एक बूंद पानी भी नसीब न हो।’

दरवाजा खुला। बूढ़ा बाबा प्रकट हुआ। कमजोर, दुबला-पतला, दाढ़ी और सिर के बालों पर सफेदी छाई थी। पलकें धंसी, आंखों के चारों ओर गड्ढे पड़े हुए थे, पुतलियां सुर्ख, शायद रातभर रोता रहा था। राधा को देखते ही उसके होंठ कांपे, पलकें छलक आयीं। अपनी भुजाएं फैलाकर उसने राधा को गले लगा लिया। राधा भी सिसकते हुए उससे लिपट गई और फूट-फूटकर रो पड़ी। तभी कुछ दूर खड़े लोगों की खुसर-फुसर तीव्र हो गई।

बाबा के साथ राधा अंदर पहुंची तो बाहर का शोरगुल कुछ कम हो गया। उसने देखा‒ अर्ध जला मंडप, हर वस्तु बिखरी हुई कल रात के तूफान की कहानी सुना रही थी। राधा का दिल तड़प उठा, वह दूसरे कमरे में पहुंची‒ अनगिनत मूूर्तियां बिखरी पड़ी थीं टूटी-फूटी‒ किसी के हाथ अलग थे तो किसी के सिर। अच्छा ही हुआ, जो पत्थर की मूर्तियों की छाती में दिल नहीं था, राधा आश्चर्य से देखने लगी।

‘इन मूर्तियों को मैंने तोड़ डाला।’ बाबा ने स्वयं कहा‒ ‘गम बर्दाश्त नहीं कर सका तो अपना गुस्सा इन पर उतार दिया।’

 ‘बाबा!’ राधा सिसककर बोली‒ ‘मैं क्या करूं? मैं लुट गई। मुझे राजा…।’

बाबा ने लपककर उसके होंठ बंद कर दिए। बोला‒‘मत ले उसका नाम बेटी, मत ले उस चंडाल का नाम, वरना जो बाकी रह गया है वह भी समाप्त हो जाएगा, वह हमें तेरे बाप के समान किसी अपराध में फंसाकर, बेमौत मार डालेगा। गांव में कौन नहीं जानता उसके हथकंडों को, फिर भी दौलत के कारण यहां के कुछ सरगना उसका साथ दे रहे हैं, तो गरीब क्या करें? तेरा भोला भी तो…।’

‘मुझे मालूम है बाबा! भोला बिक चुका है, पंद्रह हजार रुपए में।’ राधा ने कहा। अभी वह और भी कुछ कहना चाहती थी कि तभी भोला का स्वर सुनकर चुप हो गई।

‘हां-हां, भोला भी बिक चुका है, पंद्रह हजार रुपए में ही। बस!’ वह क्रोध में चीख रहा था‒‘आखिर मेरे उन पैसों का क्या होता, जो इस विवाह में बर्बाद हो चुके थे।’

‘भोला!’ राधा ने कहना चाहा।

‘मर गया भोला… और तू भी भोला के लिए मर गई।’ भोला ने अपने कंधों को झटका… ‘तेरे लिए तो यही अच्छा है कि तू डूब मरे। ऐसी अवस्था में कौन मर्द का बच्चा है, जो तुझे अपनाने का साहस भी करेगा?’

‘लेकिन इसमें मेरी बच्ची का क्या दोष है?’ बाबा ने आगे बढ़कर पूछा।

‘तुम्हारी तकदीर का तो दोष है।’ भोला घृणा के साथ बोला‒‘फिर मैं भला क्यों तुम्हारी तकदीर की कीमत का भुगतान करता फिरूं?’

‘तो फिर अब तुम यहां क्या लेने आए?’ सहसा राधा ने अपने आपको संभालकर सख्ती से पूछा।

‘अपना नाम सुनकर चला आया था।’ भोला ने अपना हाथ हवा में लहराया और जोर से चीखा‒‘जरा पूछकर तो देख कि बाहर खड़े लोग तेरे लिए क्या कह रहे हैं?’…………

आगे की कहानी कल पढ़ें, इसी जगह, इसी समय….

 

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