Prevention from Glaucoma: आखों की गंभीर बीमारियों में एक ग्लूकोमा या काला मोतिया भी है जिसे साइलेंट साइट स्नेचर भी कहा जाता है। विडंबना है कि जागरुकता की कमी के कारण यह बीमारी शुरुआती स्टेज मेें आसानी से डायग्नोज नहीं हो पाती। मरीज को पता ही नहीं चल पाता कि वह ग्लूकोमा का शिकार है। लक्षणों का पता देर से लगने और समुचित उपचार न कराने पर ग्लूकोमा धीरे-धीरे बढ़ता जाता है। आंखों की ऊपरी सतह को तो प्रभावित करता ही है, आंखों की रोशनी या आई साइट भी छीन लेता है। तभी ग्लूकोमा को अंधेपन का दूसरा बड़ा कारण माना जाता है। अगर थोड़ा सतर्क रहा जाए, तो इस बीमारी केा समय रहते न सिर्फ पकड़ा जा सकता है, बल्कि बढ़ने से रोका भी जा सकता है।
डब्ल्यूएचओ के अनुसंधानों के हिसाब से दुनियाभर में 10 में से एक आदमी ग्लूकोमा पीडि़त है। करीब 7 करीब लोग ग्लूकोमा का शिकार हैं। हमारे देश के करीब 1 करोड़ 20 लाख लोग इससे पीड़ित हैं। इनमें 40 साल से अधिक उम्र के लोग ज्यादा पीड़ित होते हैं, लेकिन आनुवांशिक बीमारी होने के नाते छोटी उम्र के बच्चे भी इसकी चपेट में आ रहे हैं। नवजात शिशुओं की आंखों के एंगल में दोष होने के कारण जन्मजात ग्लूकोमा होता है जो उनकी आंखों में एक्वेस ह्यूमर तरल पदार्थ काफी कम मात्रा में बाहर आता है या फिर बंद हो जाता है।
क्या है ग्लूकोमा

हमारी आंख के काॅर्निया के पीछे सीलियरी टिशूज मौजूद हैं। जिनसे एक्वेस ह्यूमर तरल पदार्थ निरंतर बनता रहता है और बाहर निकल कर पुतलियों से होता हुआ आंख के भीतरी हिस्से में जाता है। इस प्रक्रिया से आंखें स्वस्थ रहती हैं, उन्हें सही आकार और पोषण मिलता है। आंखों में नमी बनी रहती है यानी ड्राई आइज की समस्या नहीं आने देता।
लेकिन जब इस प्रक्रिया में किसी तरह की दिक्कत आती है, तो आंखों पर इंट्राओक्युलर प्रेशर बढ़ने लगता है। आंख के सीलियरी टिशूज भी डैमेज या ब्लाॅक होने लगते हैं जिससे एक्वेस ह्यूमर का प्रवाह कम होता जाता है। इससेमस्तिष्क को विजुअल सिग्नल भेजने वाली आंखों की ऑप्टिक नर्व को नुकसान पहुंचता है जिससे आई साइट धीरे-धीरे कमजोर होती जाती है। इस स्थिति को ओपन एंगलग्लूकोमा कहा जाता है।

ध्यान न देने पर आंखों में प्रेशर अधिक बढ़ जाता है। जिससे आंखों में सीलियरी टिशूज से निकलने वाला एक्वेस ह्यूमर तरल पदार्थ का प्रवाह बंद हो जाता है। आंखों से धुंधला दिखाई देता है या दिखाई देना बंद हो जाता है यानी अंधेपन की स्थिति आ जाती है। इस स्थिति को क्लोज एंगल ग्लूकोमा कहा जाता है।
ग्लूकोमा के कारण
आनुवांशिक या फैमिली हिस्ट्री में किसी को ग्लूकोमा रहा है, तो उस परिवार के व्यक्ति किसी भी उम्र में ग्लूकोमा का शिकार हो सकता है। प्रेग्नेंसी में बच्चे की आंखों में सीलियरी टिशूज की बनावट में कमी होने से एक्वेस ह्यूमर तरल पदार्थ का प्रवाह ठीक तरह नहीं हो पाता। ऐसे बच्चे जन्मजात ग्लूकोमा से पीडि़त होते हैं जिनका समुचित इलाज न किए जाने पर आंखों की रोशनी गंवा देते हैं। लंबे समय से स्टेराॅयड लेने के कारण अस्थमा, आर्थराइटिस जैसी बीमारियों के मरीजों में भी ग्लूकोमा होने की आशंका रहती है। आंखों में किसी तरह की चोट लगने या सर्जरी होने से भी ग्लूकोमा का खतरा रहता है। डायबिटीज, हार्ट डिजीज या ब्लड प्रेशर के मरीज भी हाई रिस्क में आते हैं।
ग्लूकोमा के लक्षण
ग्लूकोमा के शुरुआती लक्षण अक्सर पकड़ में नहीं आते। फिर भी अगर इनमें से 2-3 लक्षण हो तो आई स्पेशलिस्ट को कंसल्ट करना चाहिए-
- आई साइट कमजोर होने से चश्मे के नंबर में बार-बार बदलाव आना।
- आंखें अक्सर लाल रहना, ड्राईनेस और भारीपन होना।
- शाम को आंखों या सिर में दर्द रहना, चक्करआना, घबराहट महसूस होना।
- धुंधला दिखाई देना, बल्ब के चारों ओर इंद्रधनुषी रंग दिखना।
- अंधेरे कमरे में आने पर चीजों पर ध्यान केंद्रित करने में दिक्कत महसूस होना।
- साइड विजन को नुकसान पहुंचना।
- बच्चों की आंखों का साइज बढ़ना यानी एक आंख छोटी और एक बड़ी महसूस होना। आई बाॅल का रंग सफेद होना।
कैसे होता है डायग्नोज

आई स्पेशलिस्ट रेटिनल नर्व फाइबर लेयर एनालिसिस (आरएनएफएल) और विजुअल फील्ड टेस्ट सेग्लूकोमा की स्थिति का पता लगाते है। इसके अलावा आई प्रेशर मैनेजमेंट के लिए टोनोमेटरी टेस्ट, ऑप्टिक नर्व के लिए ऑप्टिक नर्व माॅनिटरिंग, कम लाइट में काॅर्निया के लिए पेरीमेटरी टेस्ट भी किए जाते हैं।
ग्लूकोमा का इलाज
ग्लूकोमा से बचने के लिए जरूरी है कि इसकी पहचान प्रारंभिक अवस्था में ही कर ली जाए क्योंकि एक बार ग्लूकोमा होने के बाद आई साइट को हुए नुकसान कोे ठीक कर पाना मुश्किल हो जाता है। लेकिन समय रहते समुचित उपचार से मरीज को नेत्रहीन होने से बचाया जा सकता है।
आंखों में बढ़े हुए प्रेशर को कम करने के लिए आई स्पेशलिस्ट मेडिसिन देते हैं और नियमित रूप से डालने के लिए आई ड्राॅप्स देते हैं। सबसे जरूरी है कि मरीज को नियमित अंतराल पर चेकअप कराए ताकि किसी तरह की समस्या होने पर उपचार किया जा सके। लेकिन अगर मेडिसिन कारगर नहीं हो रही हैं, तब लेजर सर्जरी से आंखों की ऑप्टिकल नर्व को ठीक कर ग्लूकोमा को नियंत्रित किया जाता है। मरीज की स्थिति के हिसाब से ऑर्गन लेजर ट्रेबेकुलोप्लास्टी, सेलेक्टिव लेजर ट्रेबेकुलोप्लास्टी , लेज़र पेरिफेरल इरिडोटोमी सर्जरी की जाती है। सर्जरी के बाद मरीज को आंखों को धूल-मिट्टी से बचाने, आंखों को मसलने या रगड़ने से मना किया जाता है। आंखों की सफाई का विशेष ध्यान रखने केा कहा जाता है ताकि किसी तरह का इंफेक्शन न हो।
ग्लूकोमा से बचाव

ग्लूकोमा से बचने के लिए सही समय पर इसकी पहचान करना और उपचार के लिए इन बातों का ध्यान रखना चाहिए-
- – 35 साल की उम्र के बाद हर साल दो बार, 40-54 साल में 3 बार, 55-64 साल में 2 बार और 65 साल के बाद हर 6 महीने के बाद नियमित आरएनएफएल टेस्ट कराना चाहिए। इसमें विजन टेस्ट के अलावा रेटिना इवेल्यूशन और विजुअल फील्ड टेस्ट कराना चाहिए।
- आनुवांशिक बीमारी होने के कारण बच्चों का आइज चेकअप जरूर कराना चाहिए।
- चश्मे का नंबर जल्दी-जल्दी बदल रहा है, साइड विजन में कोई समस्या आ रही है, तो तुरंत डाॅक्टर से संपर्क करें।
- आंखों में दर्द होने या आंखें लाल होने पर जितना जल्दी हो सके, आई स्पेशलिस्ट से संपर्क करें।
- आंख में किसी भी तरह की चोट लगने या सर्जरी होने पर समय-समय पर चेकअप कराते रहें ताकि ग्लूकोमा के खतरे को टाला जा सके।
- आहार का विशेष ध्यान रखें। पौष्टिक तत्वों खासकर विटामिन ए,बी,सी और ई से भरपूर संतुलित आहार लें। आहार में हरी सब्जियां, फल, दूध, ड्राई फ्रूट्स, सोया उत्पाद का अधिक सेवन करें। मिर्च-मसाले युक्त आहार, आचार, ऑयली फूड से परहेज करें। एल्कोहल, बीड़ी-सिगरेट या नशीले पदार्थों के सेवन से बचें।
(डाॅ रामेन्द्र बख्शी, आइज स्पेशलिस्ट, दिल्ली )
