Manochikitsa का सामान्य उद्देश्य रोगी के संवेगात्मक समस्याओं एवं मानसिक समस्याओं को दूर करके उसमें सामर्थ्य, आत्मबोध, पर्याप्त परिपक्वता आदि विकसित करना होता है। इन सामान्य उद्देश्यों के अलावा मनोचिकित्सा के कुछ विशिष्ट एवं सार्थक उद्देश्य इस प्रकार हैं।
1. रोगी के अपअनुकूलित व्यवहारों में परिवर्तन लाना।
2. रोगी के अंतर्वैयक्तिक संबंध एवं अन्य दूसरे तरह के सामर्थ्य को विकसित करना।
3. रोगी के आंतरिक संघर्षों को एवं व्यक्तिगत तनाव को कम करना।
4. रोगी के अपने इर्द-गिर्द वातावरण एवं स्वयं अपने बारे में बने यथार्थ पूर्वकल्पनाओं में परिवर्तन लाना।
5. रोगी में अपअनुकूलित व्यवहार (Maladaptive Behaviour) को सम्पोषित करने वाले कारकों या अवस्थाओं को दूर करना।
6. रोगी को अपने वातारण की वास्तविकताओं के साथ अच्छी तरह समायोजन करने में सहयोग प्रदान करना।
7. आत्मबोध एवं आत्मसूझ को सुस्पष्ट करना।
मनोचिकित्सा के प्रमुख उद्देश्यों या लक्ष्यों में सर्वाधिक उत्कृष्ट है-
1. उपयुक्त कामों को करने के लिए रोगी की प्रेरणा को मजबूत करना।
2. भावों की अभिव्यक्ति द्वारा-सांवेगिक दबावों को कम करने में मदद करना।
3. वर्द्धन के लिए सामर्थ्यता की अभिव्यक्ति करना।
4. अपनी आदतों को बदलने में मदद करना।
5. रोगी के संज्ञानात्मक रचनाओं को परिवर्तित करना।
6. आत्मज्ञान प्राप्त करना।
7. अंतर्वैयक्तिक संबंधों एवं संचारों को प्रोत्साहित करना।
8. ज्ञान प्राप्त करने एवं निर्णय करने में प्रोत्साहन करना।
9. शारीरिक अवस्थाओं में परिवर्तन करना।
10. चेतन की वर्तमान अवस्था को परिवर्तित करना।
11. रोगी के सामाजिक वातावरण को परिवर्तित करना।
मनोचिकित्सा का चाहें, जो प्रकार हो, मनोचिकित्सक हमेशा यही कोशिश करते हैं कि वे रोगी में सही कार्य करने की प्रेरणा को तीव्र करें। यह एक सामान्य उद्देश्य है, जो काफी महत्त्वपूर्ण है। मनोचिकित्सा का एक उद्देश्य रोगी के भीतर छिपे भावों की अभिव्यक्ति कराना होता है। क्योंकि जब रोगी अपने भीतर छिपे क्षुब्धता उत्पन्न करने वाले भावों की अभिव्यक्ति करता है, तो उसका सांवेगिक दबाव कम हो जाता है, तथा मानसिक बीमारी की गंभीरता कम हो जाती है।

रोगी के अंत:शक्ति को वर्धन एवं विकास के लिए युक्त करने के उद्देश्य के पीछे मनोचिकित्सकों की मान्यता होती है, कि जिंदगी एक निश्चित विकास रेखा के अनुरूप हमेशा बढ़ती है, और जब उसके इस सामान्य वर्द्धन प्रवृत्ति में किसी प्रकार की अवरुद्धता है, तो उससे मन: स्नायुविकृति तथा अन्य मानसिक रोगों की उत्पत्ति होती है। इन अवरोधों को दूर करना ही लक्ष्य है, ताकि रोगी के वर्द्धन तथा विकास की अंत:शक्ति फल-फूल सके। अत: यह कहा जा सकता है, कि मनोचिकित्सा का लक्ष्य रोगी में वर्द्धन के मौलिक अंत: शक्तियों को प्रस्फुटित करना होता है।
मनोचिकित्सा का एक उद्देश्य एक ऐसी परिस्थिति को उत्पन्न करना होता है जिसमें रोगी के अवांछित, अनुचित एवं संकट उत्पन्न करने वाली आदतों का प्रतिस्थापन नयी वांछित आदतों से किया जा सके। आजकल इसके अलावा अन्य परिष्कृत विधियों का भी उपयोग रोगी के अवांछित आदतों को परिवर्तित करने में किया जाता है।
मनोचिकित्सा का एक उद्देश्य यह भी है, कि रोगी अपने बारे में, दूसरे व्यक्तियों केबारे में तथा वातावरण के अन्य वस्तुओं एवं घटनाओं के बारे में पूर्णत: अवगत हो तथा इस संज्ञानात्मक संरचना में व्याप्त असंगतता को पहचाने तथा आवश्यकतानुसार परिवर्तित करें। क्योंकि इस असंगतता से अवधारणा विकृत हो जाती है, और वह रोग का शिकार हो जाता है।
मनोचिकित्सा का उद्देश्य रोगी के वर्तमान ज्ञान को इस लायक बना देना होता है कि वह प्रभावी निर्णय ले सके। उसे विभिन्न अवसरों के बारे में पर्याप्त ज्ञान दिया जाता है तथा प्रत्येक विकल्प के पक्ष-विपक्ष में उनके सामने तथ्य रखा जाता है तथा धीरे-धीरे ऐसी क्षमता विकसित की जाती है कि वे महत्त्वपूर्ण निर्णय लेने में सक्षम हो सकें।
मनोचिकित्सा का उद्देश्य रोगी में पर्याप्त सूझ-बूझ विकसित करना होता है, ताकि वह यह समझ सके कि वह किस प्रकार का व्यवहार और क्यों करता है, ऐसे में मनोचिकित्सा अचेतन में छिपी इच्छाओं को चेतन में लगते हैं, तो उसमें आत्म ज्ञान उत्पन्न होता है। मनोचिकित्सा का एक उद्देश्य यह भी स्पष्ट करना होता है कि किस तरह से रोगी का व्यवहार उसके चिंतन से प्रभावित होता है। और उसका व्यवहार किस तरह से चिंतन के विभिन्न पहलुओं पर निर्भर करता है। इसमें रोगी तथा अन्य लोगों के बीच हुए संचार पर पर्याप्त बल डाला जाता है। जिससे अंतर्वैयक्तिक संबंध को अधिक संतोषजनक बनाया जा सकता है।
यदि ध्यानपूर्वक देखा जाये तो मनोचिकित्सा में स्वयं ही एक नया अंतर्वैयक्तिक संबंध सम्मिलित होता है जो उस संबंध से मेल नहीं खाता है जिसे रोगी अपने जीवन में विकसित किये हुए होता है।
मनोचिकित्सा का प्रारूप चाहें जो भी हो इसका एक मुख्य उद्देश्य रोगी के सामाजिक वातावरण में परिवर्तन लाना होता है। किसी रोगी की वास्तविक भलाई तो तब होती है जब वह अपने दिन-प्रतिदिन की जिंदगी में ठीक ढंग से समायोजन कर सके। यद्यपि रोगी का सामाजिक वातावरण जिसमें वह दूसरों से तथा दूसरे संस्थानों से प्रभावित होता है, मनोचिकित्सा के नियंत्रण से बाहर होता है।
मनोचिकित्सा में यह एक पूर्वकल्पना रहती है, कि मन तथा शरीर दोनों ही एक दूसरे को प्रभावित करते हैं स्वच्छ मन के लिए स्वच्छ शरीर का होना आवश्यक है। मनोचिकित्सक का मत है कि रोगी के शारीरिक दुखों या दर्दनाक अनुभूतियों को कम करके तथा उनमें शारीरिक चेतना में वृद्धि करके मनोचिकित्सा की परिस्थिति के लिए उन्हें अधिक उपयोगी बनाया जा सकता है। यही कारण है कि कुछ मनोचिकित्सा जैसे व्यवहार चिकित्सा में विश्राम प्रशिक्षण देकर उनके तनाव एवं चिंता को दूर करते हैं और इसे प्रति अनुबंधन के लिए आवश्यक भी माना जाता है। उसी तरह से रोगी के शारीरिक चेतना में वृद्धि करने के लिए विभिन्न तरह के व्यायामों जो भारतीय योग के नियमों पर आधारित होते हैं का सहारा ले सकते हैं। जिसका परिणाम यह होता है कि रोगी अपने वास्तविक जीवन में ठीक ढंग से समायोजन स्थापित करने में सफल होता है।
मनोचिकित्सा का एक उद्देश्य यह भी होता है कि रोगी के चेतन अवस्था में इस ढंग का परिवर्तन परिमार्जन किया जाये कि उसमें अपने व्यवहारों पर अधिक नियंत्रण क्षमता बढ़ जाये उसमें सृजनात्मक क्षमता में वृद्धि हो जाये तथा आत्मबोध में भी वृद्धि हो जाये। इन सब क्षमताओं के विकास के लिए तरह-तरह की प्रविधि जिसमें मनन, अलगाव तथा चेतन विस्तार आदि प्रमुख हैं का सहारा लिया जाता है। इन विधियों से रोगियों में आत्म ज्ञान, आत्म निर्भरता, आत्म सामर्थ्यता आदि गुणों का विकास होता है।
अत: यहां स्पष्ट हुआ कि मनोचिकित्सा के कई उद्देश्य हैं। इन लक्षणों में अधिक से अधिक लक्ष्यों की पूर्ति होने से मनोचिकित्सा की प्रभावशीलता अत्याधिक बढ़ जाती है।