Grehlakshmi Ki Kahani: शादी के लगभग एक साल होने जा रहा था पर अनुपम ने कभी एक नाक का कील भी लाकर उसे नहीं दिया था। शुरू से ही सुनंदा को सजने-संवरने का बहुत शौक था।
सुनंदा एक सुलझे विचारों वाली महत्वाकांक्षी लड़की थी। बचपन से ही उसका सपना था कि वह
नौकरी कर आत्मनिर्भर बने और निम्नमध्यमवर्गीय जीवन से छुटकारा पाए। उसके पिता अंजनी बाबू नगर पालिका में अकाउंटेंट थे इसलिए अपनी चार-चार बेटियों के लिए ज्यादा सुविधा नहीं जुटा पाते थे। पढ़ने की अच्छी सुविधा नहीं होने पर भी सुनंदा अपनी मेहनत और लगन से ऊंचे मुकाम हासिल करने के सपने देखती। वही अंजनी बाबू को एक ही धुन लगी रहती, नौकरी से अवकाश प्राप्त करने के पहले चारों बेटियों का ब्याह करवा दे।
सुनंदा बड़ी थी इसलिए उसके बीए करते ही उसके लिए अच्छे घर वर की तलाश में जुट गए। सुनंदा नो बीए करते ही बीएड में एडमिशन ले लिया और जल्द ही वह काफी अच्छे नंबरों से बीएड पास भी कर ली किंतु अंजनी बाबू अपनी इस अबाध्य सुंदरी, सर्वगुण सम्पन्न लड़की के लिए एक अदद सरकारी नौकरी वाला वर नहीं
ढूंढ़ पाए। कम दहेज और निम्नमध्यमवर्गीय हैसियत के कारण खोटे शिक्के की तरह शादी के बाजार से लोग
रिजेक्ट कर रहे थे।
अंतत: थक हार कर उन्होंने अनुपम से जो एक प्राइवेट कंपनी में एकाउंटेंट था उसकी शादी तय कर आए। शादी के बाद सुनंदा अपने सारे सपनों की गठरी संभाले और एक आशा मन में दबाए अपने ससुराल आ
गई कि उसके जो सपने अपने मायके में अधूरे रह गए थे, ससुराल में पति के सहयोग से पूरा कर लेगी, लेकिन कहते है न ‘तेरे मन कुछ और है विधना के कछु और।ससुराल के हवा का रूख पूरी तरह उसके सोच के विपरीत था। एमए तक की पढ़ाई किसी तरह पूरी करने वाला अनुपम अपने उस छोटी सी नौकरी से ही संतुष्ट था और नहीं चाहता था कि उसकी बीवी उससे ज्यादा कमा कर, समाज और परिवार में उसकी किरकिरी करवाए। रूढ़िवादी मानसिकता के उसके ससुराल के लोग परंपराओं और संस्कार के नाम पर घर की औरतों पर ढेर सारी पाबंदियां लगा रखी थी। बड़ों का फैसला चाहे कितना भी अन्यायपूर्ण हो सभी को मानना पड़ता था। जब सुनंदा ने अपनी नौकरी करने की बात की तो ससुर जी ने साफ इनकार कर दिया। अनुपम भी पत्नी का साथ देने के बदले उसके विरोध में खड़ा हो गया। ‘जितना कमाता हूं उतने में ही जीना सीखो। इस घर
की बहुएं घर से बाहर निकल कर काम नहीं करती हैं।
ससुर जी एक सरकारी दफ्तर के एकाउंटेंट पद से रिटायर करने के बाद पेंशन पर गुजारा कर रहे थे। दिन भर कुछ काम करने के बदले वह अपना समय पेपर पढ़ कर और पड़ोसियों के साथ गप्पे मार कर बिताते। न बेटे को कभी प्रेरित करते कि अच्छी नौकरी के लिए कोशिश करे, न सुनंदा को कुछ करने देते जिसके कारण घर
में हमेशा आर्थिक तंगी बनी रहती। समझाने पर कोई असर ही नहीं होता।
अनुपम अगर सुनंदा को खर्च के लिए पैसे देता तो पाई-पाई का हिसाब रखता। पिक्चर देखने जाना उसे फिजूलखर्ची लगता। सुनंदा को कहता, ‘कितनी सारी पिक्चर तो टेलीविजन पर आते हैं फिर थियेटर में
जाकर पैसा बर्बाद करने से क्या फायदा? कभी वह उसके साथ घूमने जाती तो रेस्टोरेंट में खिलाना तो दूर की बात पानी पूरी खिलाने में भी आना-कानी करता। ‘बाहर की वस्तुएं मत खाओ, तबियत खराब हो जाएगी। पति की कंजूसी से उसका मन आजिज हो जाता पर वह जानती थी यह कंजूसी पैसों की कमी के कारण करता है।
शादी के लगभग एक साल होने जा रहा था लेकिन अनुपम कभी एक नाक का कील भी लाकर उसे नहीं दे पाया। शुरू से ही सुनंदा को सजने-संवरने का बहुत शौक था। सोचती थी खुद नौकरी करेगी तो तरह-तरह के गहने बनवाएगी। गहनों से इसी लगाव के कारण जब कभी भी अनुपम के साथ बाजार जाती तो अक्सर आभूषण की दुकान पर तरह-तरह के गहने शोकेस में देख उसके कदम ठिठक जाते, वह बड़ी हसरत से बोलती, ‘काश! मेरे पास भी ऐसे गहने होते।
उसकी आवाज सुनते ही, अनुपम झट से उसका हाथ थाम शोकेस से दूर ले जाता। ‘कितनी बार तुम्हें समझाया गहने खरीदना हमेशा घाटे का सौदा होता है। सुनार तो लूटते ही हैं पहन के निकलो तो चोर उचक्के भी पीछे पड़ जाते हैं। सच पूछो तो घर में गहना रखने का मतलब ही होता है चोरों को न्योता देना।
वह अच्छी तरह समझती थी कि अनुपम इतनी दलीलें इसलिए देते रहता है कि कहीं सुनंदा उसके हैसियत पर ही प्रश्नचिन्ह न खड़े कर दे। लेकिन कभी अपनी आमदनी बढ़ाने की कोशिश नहीं करता। पिता के डर से सुनंदा को भी नौकरी नहीं करने देता।
वह भी नहीं चाहती थी कि अपनी नौकरी करने की जिद्द की वजह से घर में कलह हो। हालांकि इतनी आसानी से अपने बचपन के सपनों को तिलांजलि भी तो नहीं दे सकती थी।
अपने पति की अकर्मण्यता उसके विचार और उसकी कंजूसी से आहत सुनंदा चाहती थी कि अपने परिवार को संकीर्ण विचारधारा से बाहर निकाल कर आधुनिकता से जोड़े। किंतु अनुपम को समझाने की हर कोशिश बेकार जाती।
वह पूरा चिकना घड़ा था कोई बात समझना ही नहीं चाहता था। ले दे कर उस घर में उसकी आशा का केन्द्र उसकी बड़ी ननद कविता थी। उसकी शादी कानपुर में हुई थी। उसके ससुराल वाले काफी खुले विचारों वाले लोग थे इसलिए वह मायके के घुटन भरी जिंदगी से निकल खुली हवा में सांस ले रही थी।
उसका ससुराल एक सुखी सम्पन्न परिवार था जहां हर आदमी को अपने हिसाब से जीने की आजादी थी। कविता भी अपने पति के साथ एक बैंक में काम कर रही थी। वह सच्चे दिल से चाहती थी कि उसका मायका भी उसके ससुराल की तरह समय के साथ चले।
एक सी सोच ने ननद-भाभी को एक-दूसरे के काफी करीब ला दिया था। जरूरत पड़ने पर कविता निष्पक्ष रहकर अपने घरवालों की आलोचना करने से भी नहीं चूकती थी। ननद का यह निर्भीक और निष्पक्ष व्यवहार सुनंदा को बहुत भाता था। जिससे दोनों के बीच सगी बहनों जैसा प्यार और विश्वास का रिश्ता कायम हो गया। जब भी कविता पटना आती, सुनंदा अपनी समस्याओं के समाधान उसके साथ मिलकर ढूंढती।
एक बार जब कविता एक शादी में पटना आई अपने साथ कई सेट गहनों के लाई थी। कानपुर लौटते समय सुनंदा से बोली, ‘तुम्हें गहने पहनने का बहुत शौक है घर में कई शादियां भी है यह मेरे हीरो का सेट है तुम रख लो। शादियों में पहनना। वैसे भी ये सब गहने लॉकर में पड़े ही रहेंगे क्योंकि तीन साल के लिए हमदोनों पति-पत्नी की पोस्टिंग सिंगापुर हो गई है। जब मैं आऊंगी, तुम से ले लूगीं। ‘नहीं दी…, हार बहुत कीमती लगता है।
कविता हंसकर बोली। ‘तुम चिंता क्यों करती हो, हार किसी दूसरे का नहीं तुम्हारी ननद का ही तो है।
जब तक अनुपम को मालूम होता और वह मना करता कविता पटना से जा चुकी थी। कमरे में पहुंचा तो सुनंदा गले में हार पहने खुद को आईने में देख रही थी। सुनंदा पर नजर पड़ते ही अनुपम का गुस्सा भड़क उठा।
‘तुम्हें कुछ होश भी है कितना कीमती हार है। कहीं कोई चोर उच्चका उठा ले गया तो हम दीदी को क्या जबाब देगें।
सुनंदा पर उसकी डांट का कोई असर नहीं हुआ, ‘माना हार पूरे दस लाख का है पर परेशान होने की जरूरत नहीं है। कौन-सा मैं उनका हार अपने पास रख लूंगी।

दो-चार बार पहन कर, वापस लौटा दूंगी। देखो तो इस हार को पहन कर मैं कितनी सुंदर लग रही हंू।
सुनंदा को अपनी अगन्य नेत्रों से झुलसाते, गुस्से से भरा, वह वहां से तेजी पैर पटकता बाहर चला गया।
अनुपम के मना करने के बावजूद, हर शादी में सुनंदा के गले में वही हार जगमगाता रहा। एक दिन घर के पास ही एक शादी में सुनंदा गई थी। लौटते समय, थोड़ी देर हो गई तो मुहल्ले की बात है कोई कुछ नहीं करेगा, यह सोचकर अकेले ही लौट रही थी। अचानक अंधेरे से दो व्यक्ति प्रकट हुए और सुनंदा के सारे गहने
रिवॉल्वर की नोक पर उतरवा लिए। अपने ही मुहल्ले में बिलकुल घर के पास ऐसी दुर्घटना हो जाएगी किसी ने सोचा भी नहीं था पर होनी को कौन टाल सकता है। किसी चोर ने पहले से ही निशाना साध रखा था। सुनंदा के
चिल्लाने पर आस-पास के काफी लोग जमा हो गए थे। लोगों ने चोर का पीछा भी किया पर कुछ पता नहीं चल
पाया।
इस हादसे ने पूरे घर को हिला कर रख दिया। परिवार पर हुए इस तुषारापात का कोई विकल्प नजर नहीं आ रहा था। पूरे दस लाख की रकम इकठ्ठा करना अनुपम के बस की बात नहीं थी। सुनंदा के ससुर जी
को रिटायरयमेंट के बाद जो पैसे मिले थे बेटी की शादी और घर बनवाने में खर्च हो गए थे। बस नाममात्र की पेंशन मिलती थी। सुनंदा भी रोए जा रही थी। ‘इतने दिनों से पहन रही थी, मैं क्या जानती थी, मुये लुटेरे
आज घात लगाए बैठे हैं।
उसकी बाते अनुपम का गुस्सा और भी बढ़ा रही थी। ‘अब बैठ कर अपनी किस्मत को कोसने से क्या होगा? तुम तो रो पीटकर रह जाओगी भुगतना तो मुझे पड़ेगा। अगर दीदी के ससुराल वालों को मालूम होगा तो न जाने क्या-क्या कहेंगे। ‘अब क्या कहूं? ईश्वर से मेरी इतनी सी खुशी भी नहीं देखी गई। निश्चिन्त रहो, दीदी के ससुराल वाले अच्छे लोग हैं कुछ नहीं बोलेंगे। दीदी तो वैसे भी तो गऊ हैं। ‘चुप करो…दीदी के ससूराल वाले चाहे
कितने ही अच्छे लोग क्यों न हों, चोरी की बात सुन सैकड़ों लांछन लगाएंगे। अब तो यह सोचना है कि इतने सारे पैसे आएंगे कहां से? दीदी के सिंगापुर से लौटने के पहले कुछ न कुछ जुगाड़ तो करना ही पड़ेगा।
सुनंदा ने दयनीय मुंह बनाते हुए कहा, ‘अपने सारे गहने बेच दूं, तब भी दो लाख भी नहीं मिलेगें।
पूरा परिवार घोर संकट में पड़ गया था। सभी दस लाख रुपया इकठा करने के उपाय ढूंढ रहे थे। सुनंदा ने सुझाया, ‘बिहार सरकार शिक्षकों की नियुक्ति करने जा रही है आप लोग अनुमति दें तो मैं भी आवेदन
कर दूं। बीएड हूं, नौकरी मिल गई तो समस्या का कुछ तो समाधान होगा।
सभी मौन रहे, किसी ने उसकी बातों का विरोध नहीं किया। सभी की मौन सहमती मिलते ही सुनंदा अपनी नौकरी की तलाश में जुट गई। घर के दूसरे सदस्य भी बैठे नहीं रहे। उसके आलसी ससुरजी भी कई दुकानों में जाकर एकाउंट चेकिंग का काम करने लगे। अनुपम भी ऑफिस से निकलता तो घर आने के बदले ट्यूशन पढ़ाने लगा। सुबह तड़के उठ कर भी एक-दो ट्यूशन पढ़ा लेता। छ: महीना गुजरते-गुजरते सुनंदा को भी नौकरी मिल गई। सुनंदा की स्कूल में नियुक्ति होते ही उसकी सासू मां भी मुहल्ले की औरतों के साथ घर-घर की कहानी बांचने के बदले अब दिन भर रसोई और घर के कामों में व्यस्त रहने लगी। अंतत: परिवार के सभी सदस्यों की मेहनत रंग लाई। दो साल में ही दस लाख रुपया से ज्यादा जमा हो गया।
तीन साल बाद जब कविता सिंगापुर से लौटी और पटना आई। घर के लोगों को काम में व्यस्त और मायके का अव्यवस्थित घर को अब पूरी तरह व्यवस्थित देख उसे अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। रात में जब घर के सभी लोग साथ खाने बैठे तो अनुपम ने कविता को हार चोरी हो जाने की पूरी घटना विवरण के साथ बताई। साथ ही यह भी बताया कि अब उसे चिंता करने की कोई जरूरत नहीं हैं। उन लोगों ने मिलकर दस लाख से ज्यादा रुपया जमा कर लिया है इसलिए कविता दूसरे ही दिन बाजार जाकर वैसा ही हार ले आए।
पहली बार कविता को भाई के चेहरे पर स्वाभिमान और पुरुषार्थ की चमक देख बेहद खुशी हुई। एक रहस्मयी मुस्कुराहट के साथ वह सुनंदा की तरफ मुड़ी, ‘क्यों… सुनंदा…तुमने तो घर के सारे लोगों की फितरत ही बदल दी। सारे आलसी फुर्तीले हो गए।

सुनंदा हंसते हुए बोली, ‘नहीं…दी…यह मेरा नहीं आपके उस पांच हजार के अमेरिकन डायमंड वाले हार का कमाल है जो पूरा परिवार अपने रूढ़िवादी मानसिकता से मुक्त हो प्रगति कर रहा है। तुम्हारा आलसी भाई ट्यूशन पढ़ाने के लिए खुद भी पढ़ने लगा है। अब मनोयोग से अच्छी नौकरी पाने के लिए भी मेहनत कर रहा है ताकि मैं उससे आगे न निकल जाऊं। कई नौकरियों के लिखित परीक्षा पास भी की है। कविता अपने दोनों हाथ सुनंदा के सामने जोड़ते हुए बोली, ‘धन्य हो सुनंदा तुम…धन्य हो। मैंने तो सिर्फ सलाह दी थी पर तुमने तो असंभव को संभव कर दिखाया। तुम्हें तो किसी नाटक कंपनी में होना चाहिए था।
‘क्या दीदी, आप मेरी कुछ ज्यादा ही प्रशंसा नहीं कर रही हैं। अब आप अपने इस चमत्कारी हार को संभालिए। इसने मुझे वो सब कुछ दिया जो मुझे चाहिए था। वह एक गहने का एक डिब्बा कविता को पकड़ाते हुए बोली। उस डिब्बे में वही हार
था जो चोरी हो गया था। कविता हार का डिब्बा बंद कर सुनंदा को लौटाते हुए बोली, ‘नहीं…नही…मैं इसे
वापस नहीं लूंगी। इस हार को मेरी तरफ से उपहार समझ कर रख लो। इस पर अब तुम्हारा ही हक है।
उन दोनों की बातों से घर के लोगों को बहुत कुछ समझ में आने लगा था। अब तक चुपचाप सब कुछ सुनते अनुपम से रहा नहीं गया।
‘सच…दी, क्या यह सब आप दोनों की मंत्रणा थी? ‘क्या अभी भी तुम्हें शक है।कविता के बोलते ही वहां सब की हंसी गूंज उठी।
रुढ़िवादी मानसिकता के उसके ससुराल के लोग परंपराओं और संस्कार के नाम पर घर की औरतों पर ढेर सारी पाबंदियां लगा रखी थी। बड़ों का फैसला चाहे कितना भी अन्यायपूर्ण हो सभी को मानना पड़ता था। जब
सुनंदा ने अपनी नौकरी करने की बात की तो ससुर जी ने साफ इंकार कर दिया। अनुपम भी पत्नी का साथ देने के बदले उसके विरोध में खड़ा हो गया। ‘जितना कमाता हूं उतने में ही जीना सीखो। इस घर की बहुएं
घर से बाहर निकल कर काम नहीं करती हैं। उसकी सासू मां एक पतिव्रता स्त्री थी, पति की कही हर बात उनके लिए लक्षमण रेखा थी।
