Grehlakshmi Ki Kahani: ‘संजू ओ संजू, देखो तो तुम्हारा लाडला तुम्हारे लिए कितना रो रहा है।’ दिनेश ने ड्राइंग रूम से ही आवाज लगाई। ‘ओफ ओ, बाथरूम में थी। चैन से कुछ भी नहीं कर सकती। अभी जनाब को मेरी जरूरत है इसलिए रो रहे हैं मेरे लिए। जब इन्हें मेरी जरूरत नहीं होगी तो साहबजादे पूछेंगे भी नहीं। संजू बाथरूम से निकल कर नैपकीन से हाथ पोंछते हुए सहज भाव से बोली। दिनेश, संजू की बात सुनकर एकदम से संजीदा हो गया। उसके सामने उसकी मां का लाचार चेहरा घूम गया। उसके माता-पिता ने भी तो इतना ही कष्ट उठाया होगा! नहीं-नहीं, इससे भी कहीं ज्यादा कष्ट उठाए होंगे। पिताजी की पंद्र्रह हजार की प्राइवेट नौकरी थी। उतनी कम तनख्वाह में पिताजी ने चार जनों के परिवार को कितने कष्ट से पाला होगा, ये तो वही जानते होंगे। उसे तो बस इतना याद है कि पिताजी देर रात तक ओवरटाइम करते थे और मां हम दोनों भाइयों को चूल्हा फूंक-फूंककर रोटियां खिलाती थी और जब हम अपने पैरों पर खड़े हो गए, अपने परिवार को चलाने लायक हो गए तो अपने मां-बाप को ही भूल गए। पिताजी के परलोक सिधारने के बाद मां कितनी अकेली और लाचार हो गई है। ऐसे में एक लाचार मां को अपने पास न रखने का विचार कितना गलत है। माना मेरा बड़ा भाई मां को अपने साथ नहीं रखना चाहता तो क्या मेरा यह फर्ज नहीं बनता कि मैं मां को प्रेम से अपने पास रखूं। मां को अपने पास रख लेने से मेरा कौन सा खजाना खाली हो जाएगा। ये तो प्रेम की बात है, श्रद्धा की बात है। बात है दूध के कर्ज चुकाने की फिर। ये ईर्ष्या कहां से आ गई थी मेरे मन में। मां बड़े भैया के घर जाने के लिए बिल्कुल भी तैयार नहीं थी, फिर भी संजू के दबाव में आकर मैंने मां को भैया के घर भेज दिया। एक बार फोन करके मां का हालचाल जान ले लेता हूं। यह सोचते हुए उसने अपने भैया को फोन लगाया।
‘यह सुबह-सुबह किसे फोन कर रहे हैं आप?’ संजू ने पूछा।
‘मां को।’ दिनेश रुंधे गले से बोला।
‘मां को फिर से अपने पास रखने का इरादा है क्या? तो मेरी बात कान खोलकर सुन लो। मैं नहीं रखने वाली तुम्हारी मां को। काम-धाम तो कुछ करती नहीं, ऊपर से काम बढ़ा देती है’ संजू खींज भरे स्वर में बोली।
‘संजू।’ दिनेश जोर से दहाड़ उठा।
‘चिल्लाने से कुछ नहीं होगा। मैं आपके बच्चों की देखभाल करूं या आपकी दमें की मरीज मां की।’ संजू भी ऊंची आवाज में बोली।
‘संजू ये मत भूलो कि बुढ़ापा हम पर भी आएगा। अगर हमारे बच्चे भी हमारे साथ ऐसा ही सलूक करें तो हमें कैसा लगेगा।’ दिनेश बोला।
‘जो भी हो, मां को रखने की जिम्मेदारी केवल हमारी है क्या। उनके एक बेटा-बहू और भी तो हैं। अरे हमारे पास तो इतनी आमदनी भी नहीं है, उस पर पांच प्राणियों का खर्च। उनको भी रखकर हम और कष्ट उठाना नहीं चाहते। हर महीने हजारों रुपये तो उनकी दवाई में खर्च हो जाते थे।’ संजू चिढ़कर बोली।
‘संजू! बस भी करो। मां पर कितने पैसे खर्च होते थे, बड़ा हिसाब रखा है तुमने। कोई भी माता-पिता अपने बच्चों की परवरिश कितने मुश्किल से करते हैं यह बात तुम्हें मां बनने के बाद भी समझ नहीं आई।’ दिनेश क्रोध से तमतमा कर बोला।
‘यह अंदाजा केवल मुझे ही होगा। तुम्हारे भैया- भाभी को भी इस बात का अंदाजा होना चाहिए।’ बेरूखी भरे स्वर में कहते हुए संजू अपने कमरे में चली गई। दिनेश के सामने अपनी मां का लाचार चेहरा घूम गया।
‘मैं कहां जाऊंगी बेटा? रमेश की बीबी तो मुझे फूटी आंख भी देखना नहीं चाहती। मेरे पति नहीं रहे और तुम लोग भी मेरा साथ छोड़ दोगे तो मैं बूढ़ी कहां-कहां धक्के खाती फिरूंगी।’ जाते समय मां बुरी तरह गिड़गिड़ा रही थी। ‘अब मैं क्या करूं मां? तुम में और संजू में पटती ही नहीं है और फिर मेरी आमदनी भी इतनी नहीं है कि तुम्हारे दवाइयों का खर्च उठा सकूं।’ दिनेश थोड़ा सकुचाते हुए बोला।
‘वाह बेटा! हमने तुम दोनों भाइयों को कितने कष्ट से पाला। खुद तकलीफ सही, पर तुम दोनों भाइयों को कोई तकलीफ नहीं होने दी और आज मुझ अकेली का खर्च उठाने की ताकत तुम दोनों भाइयों में से किसी में नहीं है? साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि अब तुम्हें मां की नहीं, पत्नी की जरूरत है।’ कहकर मां ने एक झटके से अपना टीन का बक्सा उठाया और चल दी। दिनेश का मन आत्मग्लानि से भर उठा। अपनी मां का हालचाल लेने के लिए उसने तुरंत अपने भाई को फोन किया तो फोन उसकी भाभी ने उठाया, ‘हैलो…’
‘हैलो मैं दिनेश बोल रहा हूं। मां आस-पास है क्या?’
‘मां तो आपके घर में थी न। यहां अकेले कैसे आ जाएंगी।’ भाभी ने बेरूखी से जबाब दिया।
‘क्या मां वहां नहीं है तो मां कहां चली गई? दिनेश घबराहट भरे स्वर में बोला।
‘मुझे क्या मालूम? कह कर उसकी भाभी ने फोन काट दिया।
‘मां वहां नहीं गई तो कहां गई होगी? हे भगवान अब मैं मां को कहां ढूढूं?’ दिनेश अपना माथा पकड़ वहीं सोफे पर बैठ गया।
‘यह लो चाय पी लो। थोड़ी फुर्ती आ जाएगी।’ संजू सामने टेबल पर चाय का प्याला रख कर बोली।
‘नहीं पीनी है मुझे चाय-वाय। तुमने ही मेरी मां को घर से निकाला। अब वो भैया के घर पर भी नहीं है। पता नहीं कहां होगी मेरी मां? किस हालत में होगी? कहीं उनके साथ कोई अनहोनी हो गई तो…’ कहकर दिनेश बच्चों की भांति फफक-फफककर रोने लगा।
संजू को भी अपनी करनी पर बहुत अफसोस हो रहा था। वह दिल की उतनी बुरी नहीं थी। उसका सोचना था कि जेठ जी बैंक में मैनेजर हैं, अच्छी सैलरी मिलती है। मां जी वहां रहेंगी तो वे भी आराम से रहेंगी और हमारा खर्चा भी बचेगा पर उसे इस बात का बिल्कुल भी अंदाजा नहीं था कि मां जी वहां न जाकर कहीं और चली जाएंगी। कहीं मां जी को कुछ हो गया तो वह अपने आप को कभी माफ नहीं कर पाएंगी। वह बार-बार भगवान से प्रार्थना करने लगी, ‘भगवान मेरी गलती की सजा मेरी मां जी को मत देना। उनकी रक्षा करना प्रभू।’
दोनों पति-पत्नी ने मिलकर मां को हर संभव जगह पर ढूंढा लेकिन उनका कहीं पता नहीं चल पाया। तब हारकर दोनों ने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई। कुछ दिनों में मालूम पड़ा कि वे वृद्धाश्रम में है। ये लोग भागकर वहां पहुंचे। वहां पहुंचते ही संजू अपनी सास की पैर पकड़कर बोली, ‘मुझे माफ कर दीजिए मां जी। मुझसे बहुत बड़ी गलती हो गई।’
‘रहने दें बहू। ज्यादा ढोंग मत कर। मैं तुम लोगों पर बोझ बन गई थी न, इसलिए यहां आ गई। अब आराम से रहो तुम लोग। मेरी शुभकामनाएं तुम लोगों के साथ है।’ फिर वे अपने बेटा की तरफ मुखातिब हुईं।
‘मेरे हृदय से एक बात निकल रही है बेटा कि भगवान करे तुम्हारे बच्चे तुम्हारे जैसे न निकले। मैं नहीं चाहती कि बुढ़ापे में तुम लोगों को ऐसे दिन देखना पड़े। जीवन की संध्या बेला में हर किसी की यही ख्वाहिश होती है कि उनका आखिरी समय अपनों के साथ बीते पर मेरे ऐसे भाग्य कहां?’
‘मुझे माफ कर दो मां। मुझे आज भी तुम्हारे आशीर्वाद की जरूरत है मां। घर चलो मां’ दिनेश भाव-विह्वल होकर बोला।
‘हां मां जी, पुरानी बातें भुला दीजिए। वो आपका ही घर है। हम लोग आपके अपने है। स्वार्थ की परत अब मेरी आंखों से हट चुका है मां जी।’ संजू पश्चाताप भरे स्वर में बोली तो उसकी सास की आंखें भी भर आई और भाव-विह्वल होकर उन्होंने दोनों को गले लगा लिया।
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