Hindi Immortal Story: “ये अंग्रेज इस तरह नहीं मानेंगे। ऊपर से सभ्य लगने वाले अंग्रेज अधिकारी भीतर से जालिम हैं। यहाँ सच्चाई और न्याय की कोई सुनवाई नहीं है। इसलिए इन पर यकीन करना बंद करके हमें अंग्रेजों को शस्त्र उठाकर देश से बाहर निकालने के लिए जुट जाना चाहिए। नहीं तो इनके अन्याय और अत्याचार बंद नहीं हो सकते और देश की जनता इसी तरह सिसकती रहेगी।”
इंग्लैंड के साथ-साथ अन्य देशों से भी होकर आए अजीमुल्ला नानासाहब को बता रहे थे, तो उनकी आँखों में देश की आजादी का सपना तैरने लगा था।
नानासाहब बाजीराव पेशवा के दत्तक पुत्र थे। पर बाजीराव पेशवा की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने नानासाहब को उनका उत्तराधिकारी मानने से इनकार कर दिया और पेंशन बंद कर दी।
नानासहब के वकील अजीमुल्ला इसी सिलसिले में इंग्लैंड गए थे ताकि वहाँ अंग्रेज अधिकारियों को के आगे अपने तर्क रख सकें। पर अंग्रेजों ने उन्हें टका सा जवाब दिया। अजीमुल्ला इस बात से दुखी थे। पर इंग्लैंड में ही अजीमुल्ला देश-विदेश के क्रांतिकारियों के संपर्क में आए और उससे उनके भीतर भारत की आजादी के लिए सशस्त्र संघर्ष की चेतना उत्पन्न हुई।
इंग्लैंड के अलावा वे अन्य देशों में भी गए और वहाँ के क्रांतिकारियों तथा स्वाधीनता-सेनानियों के संपर्क में आए। लौटकर उन्होंने नानासाहब को इस सबके बारे में बताया तो उनके मन में सोई हुई विद्रोह की चिनगारियाँ जाग गईं।
नानासाहब ने कुछ समय बाद तीर्थयात्रा का ऐलान किया और अपनी धार्मिक यात्रा पर निकल पड़े। पर उनका इरादा कुछ और था। उन्होंने जगह-जगह जाकर वहाँ के राजाओं, नवाबों तथा और प्रमुख लोगों से मुलाकात की और सबके मन में अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र विद्रोह की भावना उत्पन्न की। और फिर होते-होते पूरे भारत में स्वाधीनता संग्राम की तैयारी होने लगी जिसके कर्णधार नानासाहब और अजीमुल्ला थे। यह भी योजना बनी कि मुगल सम्राट बहादुर शाह जफर के नेतृत्व में यह लड़ाई लड़ी जाए।
1857 के स्वाधीनता संग्राम की पूरी योजना बिठूर में बनी थी, जो कानपुर के पास था। इसलिए जब क्रांति का बिगुल बजा और अंग्रेजों के खिलाफ जनता और सेना का विद्रोह फूट पड़ा तो कानपुर खुद-ब-खुद लड़ाई का केंद्र बन गया।
कानपुर छावनी के अंग्रेज सेनापति सर ह्यू ह्वीलर के नाना से मित्रतापूर्ण संबंध थे। इस कारण उसने नाना से फरियाद की कि वे सहायता के लिए पहुँचें। नाना अपने सैनिकों के साथ पहुँचे तो उसने खजाना और हथियारों का पूरा भंडार नाना को सौंप दिया, ताकि वह सुरक्षित रहे।
अब यह सभी कुछ नाना के कब्जे में था और नाना क्रांति के लिए सही समय की प्रतीक्षा में थे। आखिर 4 जून की रात को तीन गोलियाँ चलीं और उसी के साथ ही क्रांतिकारियों की गतिविधियाँ बड़ी तेजी से शुरू हो गईं। अंग्रेजों पर हमले शुरू हो गए और उन्हें भागकर जान बचानी पड़ी। देखते ही देखते पूरा कानपुर शहर क्रांतिकारियों के कब्जे में आ गया। अंग्रेज डरकर किले के अंदर जा छिपे। जगह-जगह स्वाधीनता का झंडा लहराने लगा।
हालाँकि अंग्रेज अब भी किले के भीतर से गोलियाँ चला रहे थे। नाना के सैनिकों ने उनका मुँह तोड़ जवाब दिया। साथ ही उनकी रसद काट दी। आखिर अंग्रेजों को समर्पण करना पड़ा। नावों पर अंग्रेज बच्चों और औरतों को बैठाकर सुरक्षित स्थान पर भिजवाने की व्यवस्था की गई। पर सैनिक इतने गुस्से में थे कि जब उन्हें वहाँ से सुरक्षित ले जाया जा रहा था, तो उन्होंने एकाएक नावों पर आक्रमण कर दिया, जिससे कोई जीवित नहीं बचा।
बाद में तात्या टोपे भी कानपुर आ गए और कानपुर स्वाधीनता सेनानियों का मजबूत गढ़ बन गया। अंग्रेजी सेना ने उस पर फिर से अधिकार करने की कोशिश की, पर उन्हें मुँह की खानी पड़ी। बाद में अंग्रेजों की विशाल सेना आ पहुँची, तो भी स्वाधीनता सेनानियों ने डटकर मोर्चा लिया।
पर अंग्रेज अब तक सँभल गए थे। कानपुर फिर से अंग्रेजों के कब्जे में आ गया। नाना और तात्या टोपे वहाँ से निकले और फिर से सेना संगठित करने की कोशिशों में लग गए। कालपी और ग्वालियर में अंग्रेजी सेना से भीषण युद्ध हुआ। पर अब तक अंग्रेज फिर से सँभल चुके थे। जबकि बहुत सी देशी रियासतों ने स्वाधीनता सेनानियों का साथ देने की बजाय उलटा अंग्रेजों का साथ दिया। इसलिए जीत अंग्रेजी सेना की हुई।
नानासाहब अपने मित्र अजीमुल्ला के साथ नेपाल की जंगलों की ओर चले गए और वहीं से अंग्रेजों के खिलाफ छापामार लड़ाइयाँ लड़ते रहे। इसके बाद उनका कुछ भी पता नहीं चला। पर उन्होंने जिस विद्रोह और क्रांति का आगाज किया था, वह रुकी नहीं और अंग्रेजों को आखिर भारत छोड़कर जाना पड़ा।
ये कहानी ‘शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ’ किताब से ली गई है, इसकी और कहानी पढ़ने के लिए नीचे दिए गए लिंक पर जाएं – Shaurya Aur Balidan Ki Amar Kahaniya(शौर्य और बलिदान की अमर कहानियाँ)
