dakshin mein angootha - mahabharat story
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एक बार कृपाचार्य से भेंट करने के लिए द्रोणाचार्य अपनी पत्नी और पुत्र के साथ हस्तिनापुर पधारे। वे अनेक दिनों तक उनके पास रहे। किसी बाहरी व्यक्ति को उनके आगमन की खबर नहीं थी। एक दिन कौरव और पांडव गेंद से खेल रहे थे। खेलते-खेलते गेंद उछलकर निकट के एक कुएं में जा गिरी। राजकुमारों की समझ में नहीं आ रहा था कि वे गेंद को किस प्रकार कुएं से बाहर निकालें। इस प्रयास में युधिष्ठिर की अंगूठी भी कुएं में गिर गई थी।

अभी वे पशोपेश में थे कि तभी वहां द्रोणाचार्य आ पहुंचे। राजकुमारों ने बताया कि उनकी गेंद कुएं में गिर गई है और वे उसे निकालने में असमर्थ हैं। तब द्रोण ने एक सरकंडे को अभिमंत्रित कर उसे कुएं में डाल दिया। सरकंडा सीधा गेंद में जाकर घुस गया। फिर उन्होंने एक-एक सरकंडे को जोड़कर गेंद और अंगूठी बाहर निकाल दी।

राजमहल में लौटकर राजकुमारों ने भीष्म पितामह को सारी घटना बताई। भीष्म समझ गए कि वे द्रोणाचार्य के अतिरिक्त और कोई नहीं हो सकते। तब वे स्वयं द्रोणाचार्य के पास गए और उनसे राजकुमारों को अस्त्र-विद्या प्रदान करने की प्रार्थना की।

द्रोणाचार्य ने उनका प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया। सभी राजकुमार वहीं आश्रम में रहते हुए द्रोणाचार्य से अस्त्र-विद्या ग्रहण करने लगे।

एक बार द्रोणाचार्य ने राजकुमारों की परीक्षा लेने का विचार कर पेड़ पर एक चिड़िया बांध दी और उसकी आंख का निशाना लगाने को कहा, परंतु अर्जुन के अतिरिक्त कोई भी राजकुमार निशाना नहीं लगा सका। तभी से द्रोणाचार्य अर्जुन से अधिक स्नेह करने लगे।

द्रोणाचार्य का यश चारों ओर फैला हुआ था। उन जैसा अस्त्र-शस्त्र का ज्ञाता दूसरा कोई नहीं था। उनकी कीर्ति सुनकर एकलव्य नामक एक भील कुमार ने उनसे शिक्षा प्रदान करने की प्रार्थना की, परंतु द्रोणाचार्य ने यह कहते हुए उसे मना कर दिया कि ‘उन्हें केवल राजकुमारों को शिक्षा देने के लिए नियुक्त किया गया है। अतः वे किसी और को शिक्षा नहीं दे सकते।’ एकलव्य निराश होकर वहां से लौट गया।

कुछ महीने बीतने के बाद द्रोणाचार्य राजकुमारों को साथ लेकर वन में गए। आश्रम में राजकुमारों ने एक कुत्ता पाला हुआ था। वे उसे भी अपने साथ ले गए। वन में वह कुत्ता कुछ दूर निकल गया और एक भीलकुमार को देखकर भौंकने लगा।

वह भीलकुमार वास्तव में एकलव्य था, जो धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहा था। एकलव्य ने कुत्ते को भगाने का बहुत प्रयास किया, परंतु वह वहीं खड़ा भौंकता रहा। तब उसने बाण छोड़कर कुत्ते का मुख बंद कर दिया। कुत्ता दौड़ता हुआ द्रोणाचार्य के पास पहुंचा।

कुत्ते की यह दशा देखकर सभी विस्मित रह गए। द्रोणाचार्य ने राजकुमारों को साथ लिया और उस स्थान पर जा पहुंचे, जहां एकलव्य अभ्यास कर रहा था। वहीं एक वृक्ष के नीचे द्रोणाचार्य की प्रतिमा रखी हुई थी और निकट ही एकलव्य धनुर्भ्यास कर रहा था। एकलव्य की गुरु-भक्ति देखकर द्रोणाचार्य अत्यंत प्रसन्न हुए, परंतु वे शीघ्र समझ गए कि अगाध श्रद्धा और दृढ़ निश्चय के बल पर एक दिन एकलव्य अर्जुन से भी आगे निकल जाएगा। अतः उन्होंने कहा‒”वत्स एकलव्य! तुम वास्तव में एक श्रेष्ठ धनुर्धर हो। तुम्हारा कौशल प्रशंसनीय है। मैंने तुम्हें शिक्षा प्रदान करने से इंकार कर दिया था, परंतु फिर भी तुमने मुझे अपना गुरु माना। अतः अब तुम मुझे गुरु-दक्षिणा दो।”

एकलव्य सिर झुकाते हुए बोला‒”आज्ञा दें गुरुदेव! मैं गुरु-दक्षिणा में आपको कौन-सी वस्तु भेंट करूं?”

द्रोणाचार्य बोले‒”वत्स! गुरु-दक्षिणा में मुझे तुम्हारे दाएं हाथ का अंगूठा चाहिए।”

अभी द्रोणाचार्य के मुख से ये वचन निकले ही थे कि एकलव्य ने कटार से अपना अंगूठा काटकर उनके चरणों में अर्पित कर दिया। एकलव्य यह बात भली-भांति जानता था कि अंगूठा कटने के बाद वह कभी धनुष-बाण धारण नहीं कर सकेगा, परंतु उसने मुस्कराते हुए गुरु को दक्षिणा प्रदान की।

गुरु-भक्ति और त्याग का ऐसा अनुपम दृश्य देखकर द्रोणाचार्य गद्गद् हो उठे।