Gila by Munshi Premchand
Gila by Munshi Premchand

जीवन का बड़ा भाग इसी घर में गुजर गया, पर कभी आराम न नसीब हुआ। मेरे पति संसार की दृष्टि में बड़े सज्जन, बड़े शिष्ट, बड़े उदार, बड़े सौम्य होंगे, लेकिन जिस पर गुजरती है, वही जानता है। संसार को तो उन लोगों की प्रशंसा करने में आनंद आता है, जो अपने घर को भाड़ में झोंक रहे हों, गैरों के पीछे अपना सर्वनाश किये डालते हों। जो प्राणी घरवालों के लिए मरता है, उसकी प्रशंसा संसार वाले नहीं करते। वह तो उनकी दृष्टि में स्वार्थी है, कृपण है, संकीर्ण हृदय है, आचार-भ्रष्ट है। इसी तरह जो लोग बाहर वालों के लिए मरते हैं, उनकी प्रशंसा घरवाले क्यों करने लगे! अब इन्हीं को देखो, सारे दिन मुझे जलाया करते हैं। मैं परदा तो नहीं करती, लेकिन सौदे-सुलफ के लिए बाजार जाना बुरा मालूम होता है। और इनका यह हाल है कि चीज मंगवाओ, तो ऐसी दुकान से लायेंगे, जहाँ कोई ग्राहक भूलकर भी न जाता हो। ऐसी दुकानों पर न तो चीज अच्छी मिलती है, न तौल ठीक होती है, न दाम ही उचित होते हैं।

यह दोष न होते, तो वह दुकान बदनाम ही क्यों होती, पर इन्हें ऐसी ही गयी-बीती दुकानों से चीजें लाने का मर्ज है। बार-बार कह दिया, साहब, किसी चलती हुई दुकान से सौदे लाया करो। वहाँ माल अधिक खपता है, इसलिए ताजा माल आता रहता है, पर इनकी तो टूटपूंजियों से बनती है, और वे इन्हें उल्टे छुरे से मूडंते हैं। गेहूँ लायेंगे, तो सारे बाजार से खराब, घुना हुआ, चावल ऐसा मोटा कि बैल भी न पूछें, दाल में कराई और कंकड़ भरे हुए। मनों लकड़ी जला डालो, क्या मजाल कि गले। घी लायेंगे, तो आधों-आधा तेल या सोलहों आने कोकोजेम और दरअसल घी से एक छटाँक कम! तेल लायेंगे तो मिलावट, बालों में डालो तो चिपट जायें, पर दाम दे आयेंगे शुद्ध आँवले के तेल का। किसी चलती हुई नामी दुकान पर जाते इन्हें जैसे डर लगता है। शायद ऊंची दुकान और फीका पकवान के कायल हैं। मेरा अनुमान तो यह है कि नीची दुकान पर ही सड़े पकवान मिलते हैं।

एक दिन की बात हो, तो बर्दाश्त कर ली जाय, रोज-रोज का टंटा नहीं सहा जाता। मैं पूछती हूँ आखिर आप टूटपूंजियों की दुकान पर जाते क्यों हो? क्या उनके पालन-पोषण का ठेका तुम्हीं ने लिया है? आप फरमाते हैं देखकर सब- के-सब बुलाने लगते हैं! वाह, मुझे क्या कहना है! कितनी दूर की बात है? जरा इन्हें बुला लिया और खुशामद के दो-चार शब्द सुना दिये, थोड़ी स्तुति कर दी, बस, आपका मिज़ाज आसमान पर जा पहुंचा। फिर इन्हें सुधि नहीं रहती कि यह कूड़ा-करकट बाँध रहा है या क्या। पूछती हूँ तुम उस रास्ते से जाते ही क्यों हो? क्यों किसी दूसरे रास्ते से नहीं जाते? ऐसे उठाईगीरों को मुँह ही क्यों लगाते हो? इसका जवाब नहीं। एक चुप सौ बाधाओं को हराती है।

एक बार एक गहना बनवाने को दिया। मैं तो महाशय को जानती थी। इनसे कुछ कहना व्यर्थ समझा। अपने पहचान के एक सुनार को बुला रही थी। संयोग से आप भी विराजमान थे। बोले- ‘यह सम्प्रदाय विश्वास के योग्य नहीं, धोखा खाओगी। मैं एक सुनार को जानता हूँ मेरे साथ का पढ़ा हुआ है। बरसों साथ- साथ खेले थे। वह मेरे साथ चालबाजी नहीं कर सकता।’ मैं भी समझी, जब इनका मित्र है और वह भी बचपन का, तो कहां तक दोस्ती का हक न निभाएगा? सोने का एक आभूषण और सौ रुपये इनके हवाले किये। इन भले मानस ने वह आभूषण और रुपये न जाने किस बेईमान को दे दिये कि बरसों के झंझट के बाद जब चीज बनकर आयी, तो आठ आने ताँबा और इतनी भद्दी कि देखकर घिन लगती थी। बरसों की अभिलाषा धूल में मिल गयी। रो-पीटकर बैठ रही। ऐसे-ऐसे वफादार तो इनके मित्र हैं, जिन्हें मित्र की गर्दन पर छुरी फेरने में भी संकोच नहीं। इनकी दोस्ती भी उन्हीं लोगों से है, जो जमाने भर के जड़, गिरहकट, लँगोटी में फाग खेलने वाले, फाक़े-मस्त है जिनका उद्यम ही इन जैसे आंखों के अंधों से दोस्ती गाँठना है। नित्य ही एक-न-एक महाशय उधार माँगने के लिए सिर पर सवार रहते हैं और बिना लिये गला नहीं छोड़ते। मगर ऐसा कभी न हुआ कि किसी ने रुपये चुकाये हों। आदमी एक बार खोकर सीखता है, दो बार खोकर सीखता है, किन्तु यह भलेमानस हजार बार खोकर भी नहीं सीखते। जब कहती हूँ रुपये तो दे आये, अब माँग क्यों नहीं लाते! क्या मर गये तुम्हारे वह दोस्त? आप तो बस, बगलें झाँककर रह जाते हैं। आप से मित्रों को सूखा जवाब नहीं दिया जाता। खैर, सूखा जवाब न दो। मैं भी नहीं कहती कि दोस्तों से बेमुरव्वती करो, मगर चिकनी- चुपड़ी बातें तो बना सकते हो, बहाने तो कर सकते हो। किसी मित्र ने रुपये माँगे और आपके सिर पर बोझ पड़ा। बेचारे कैसे इनकार करें? आखिर लोग जान जायेंगे कि नहीं, कि यह महाशय भी खुक्कल ही हैं। इनकी हविस यह है कि दुनिया इन्हें सम्पन्न समझती रहे, चाहे मेरे गहने ही क्यों न गिरवी रखने पड़ें। सच कहती हूँ कभी-कभी तो एक-एक पैसे की तंगी हो जाती है और इन भले आदमी को रुपये जैसे घर में काटते हैं। जब तक रुपये के वारे-न्यारे न कर लें, इन्हें चैन नहीं। इनकी करतूत कहां तक गाऊं। मेरी तो नाक में दम आ गया। एक-न-एक मेहमान रोज यमराज की भांति सिर पर सवार रहते हैं। न जाने कहां के बेफिक्रे इनके मित्र हैं। कोई कहीं से आकर मरता है, कोई कहीं से। घर क्या है, अपाहिजों का अड्डा है। जरा-सा तो घर, मुश्किल से दो पलंग, ओढ़ना-बिछौना भी फालतू नहीं, मगर आप हैं कि मित्रों को निमंत्रण देने को तैयार। आप तो अतिथि के साथ लेटेंगे, इसलिए इन्हें चारपाई भी चाहिए, ओढ़ना-बिछौना भी चाहिए, नहीं तो घर का परदा खुल जाय। जाता है मेरे और बच्चों के सिर। गर्मियों में तो खैर कोई मुजायका नहीं, लेकिन जाड़ों में तो ईश्वर ही याद आते हैं। गर्मियों में भी खुली छत पर तो मेहमानों का अधिकार हो जाता है, अब मैं बच्चों को लिए पिंजड़े में पड़ी फड़फड़ाया करूं। इन्हें इतनी भी समझ नहीं कि जब घर की यह दशा है, तो क्यों ऐसे को मेहमान बनाएँ जिनके पास कपड़े-लत्ते तक नहीं। ईश्वर की दया से इनके सभी मित्र इसी श्रेणी के हैं। एक भी ऐसा माई का लाल नहीं, जो समय पड़, पर धेले से भी इनकी मदद कर सके। दो बार महाशय को इनका अत्यंत कटु अनुभव हो चुका है, मगर इस जड़ भरत ने जैसे आँखें न खोलने की कसम खा ली हैं। ऐसे ही दरिद्र भट्टाचार्यों से इनकी पटती है। शहर में इतने लक्ष्मी के पुत्र हैं, पर आपका किसी से परिचय नहीं। उनके पास जाते इनकी आत्मा दुखती है। दोस्ती गाठेंगे ऐसों से, जिनके घर में खाने का ठिकाना नहीं।

एक बार हमारा कहार छोड़कर चला गया और कई दिन कोई दूसरा कहार न मिला। किसी चतुर और कुशल कहार की तलाश में थी, किन्तु आपको जल्द- से-जल्द कोई आदमी रख लेने को धुन सवार हो गयी। घर के सारे काम पूर्ववत् चल रहे थे, पर आपको मालूम हो रहा था कि गाड़ी रुकी है। मेरा जूठे बरतन माँजना और अपना साग-भाजी के लिए बाजार जाना इनके लिए असह्य हो उठा। एक दिन जाने कहाँ से एक बागड़ू को पकड़ लाये। उसकी सूरत कहे देती थी कोई जाँगलू है। मगर आपने उसका ऐसा बखान किया कि क्या कहूँ। बड़ा होशियार है, बड़ा आज्ञाकारी, परले-सिरे का मेहनती, गजब का सलीकेदार और बहुत ही ईमानदार। खैर, मैंने इसे रख लिया। मैं बार-बार क्यों इनकी बातों में आ जाती हूँ इसका मुझे स्वयं आश्चर्य है। यह आदमी केवल रूप से आदमी था। आदमियत के और कोई लक्षण उसमें न थे। किसी काम की तमीज नहीं। बेईमान न था, पर गधा अव्वल दरजे का। बेईमान होता, तो कम-से-कम इतनी तस्कीन तो होती कि खुद खा जाता है। अभागा दुकानदारों के हाथों लुट जाता था। दस तक की गिनती तक न आती थी। एक रुपया देकर बाजार भेजूं, तो संध्या तक हिसाब न समझा सके। क्रोध पी-पीकर रह जाती थी। रक्त खौलने लगता था कि दुष्ट के कान उखाड़ लूँ मगर इन महाशय को उसे कभी कुछ कहते नहीं देखा, डांटना तो दूर की बात है। आप नहा-धोकर धोती छाँट रहे हैं और वह दूर बैठा तमाशा देख रहा है। मैं तो बच्चों का खून पी जाती, लेकिन इन्हें जरा भी गम नहीं। जब मेरे डाँटने पर धोती छाँटने जाता भी, तो आप उसे समीप न आने देते। बस, उनके दोषों को गुण बनाकर दिखाया करते थे। मूर्ख को झाडू लगाने की तमीज न थी। मरदाना कमरा ही तो सारे घर में ढंग का कमरा है। उसमें झाडू लगाता, तो इधर की चीज उधर, ऊपर की नीचे, मानो कमरे में भूचाल आ गया हो! और गर्द का यह हाल कि साँस लेना कठिन, पर आप शांतिपूर्वक कमरे में बैठे हैं, जैसे कोई बात ही नहीं। एक दिन मैंने उसे खूब डाँटा- कल से ठीक-ठीक झाडू न लगाया, तो कान पकड़कर निकाल दूँगी। सबेरे सोकर उठी तो देखती हूँ कमरे में झाडू लगी हुई है और हरेक चीज करीने से रखी हुई है। गर्द-गुबार का नाम नहीं, चकित होकर देखने लगी। आप हँसकर बोले- देखती क्या हो! आज घूरे ने बड़े सबेरे उठकर झाडू लगायी है। मैंने समझा दिया। तुम ढंग से बताती नहीं, उलटे डाँटने लगती हो।

मैंने समझा, खैर, दुष्ट ने कम-से-कम एक काम तो सलीके से किया। अब रोज कमरा साफ-सुथरा मिलता। घूरे मेरी दृष्टि में विश्वासी बनने लगा। संयोग की बात! एक दिन जरा मामूली से सबेरे उठ बैठी और कमरे में आयी, तो क्या देखती हूँ कि घूरे द्वार पर खड़ा है और आप तन-मन से कमरे में झाडू रहे हैं। मेरी आँखों में खून उतर आया। उनके हाथ से झाडू छीनकर घूरे के सिर पर जमा दी। हरामखोर को उसी दम निकाल बाहर किया। आप फरमाने लगे- उसका महीना तो चुका दो! वाह री समझ! एक तो काम न करे, उस पर आँखें दिखाये। उस पर पूरी मजूरी भी चुका दूँ। मैंने एक कौड़ी भी न दी। एक कुरता दिया था, वह भी छीन लिया। इस पर जड़ भरत महोदय मुझसे कई दिन रूठे रहे। घर छोड़कर भागे जाते थे। बड़ी मुश्किलों से रुके। ऐसे-ऐसे भोंदू भी संसार में पड़े हुए हैं। मैं न होती, तो शायद अब तक इन्हें किसी ने बाजार में बेच लिया होता।

एक दिन मेहतर ने उतारे कपड़ों का सवाल किया। इस बेकारी के जमाने में फालतू कपड़े तो शायद पुलिस वालों या रईसों के घर में हों, मेरे घर में तो जरूरी कपड़े भी काफी नहीं। आपका वस्त्रालय एक बकची में आ जायगा, जो डाक के पार्सल से कहीं भेजा जा सकता है। फिर इस साल जाड़ों के कपड़े बनवाने की नौबत न आयी। पैसे नजर नहीं आते, कपड़े कहां से बनें? मैंने मेहतर को साफ जवाब दे दिया। कड़ाके का जाड़ा पड़ रहा था, इसका अनुभव मुझे कम न था। गरीबों पर क्या बीत रही है? इसका भी मुझे ज्ञान था, लेकिन मेरे या आपके पास खेद के सिवा इसका और क्या इलाज है? जब तक समाज का यह संगठन रहेगा, ऐसी शिकायतें पैदा होती रहेंगी। जब एक-एक अमीर और रईस के पास एक-एक मालगाड़ी कपड़ों से भरी हुई है, तब फिर निर्धनों को क्यों न नग्नता का कष्ट उठाना पड़े? खैर, मैंने तो मेहतर को जवाब दे दिया, आपने क्या किया कि अपना कोट उठाकर उसकी भेंट कर दिया। मेरी देह में आग लग गयी। मैं इतनी दानशील नहीं हूँ कि दूसरों को खिलाकर आप सो रहूँ। देवता के पारा यही एक कोट था। आपको इसकी जरा भी चिंता न हुई कि पहनेंगे क्या? यश के लोभ ने जैसे बुद्धि हर ली। मेहतर ने सलाम किया, दुआएं दी और अपनी राह ली। आप उस दिन सर्दी से ठिठुरते रहे। प्रातःकाल घूमने जाया करते थे, वह बंद हो गया। ईश्वर ने उन्हें हृदय भी एक विचित्र प्रकार का दिया है। फटे-पुराने कपड़े पहनते आपको जरा भी संकोच नहीं होता। मैं तो मारे लाज के गड़ जाती हूँ पर आपको जरा भी फिक्र नहीं। कोई हंसता है, तो हंसे, आपकी बला से। अन्त में जब मुझसे न देखा गया, तो एक कोट बनवा दिया। जी तो जलता था कि खूब सर्दी खाने दूँ पर डरी कि कहीं बीमार पड़ जाये, तो और बुरा हो। आखिर काम तो इन्हीं को करना है।

महाशय अपने दिल में समझते होंगे, मैं कितना विनीत, कितना परोपकारी हूँ। शायद इन्हें इन बातों का गर्व हो। मैं इन्हें परोपकारी नहीं समझती, न विनीत ही समझती हूँ। यह जड़ता है, सीधी-सादी निरीहता। जिस मेहतर को आपने अपना कोट दिया, उसे मैंने कई बार रात को शराब के नशे में मस्त झूमते देखा है और आपको दिखा भी दिया है। तो फिर दूसरों की विवेकहीनता की पुरौती हम क्यों करें? अगर आप विनीत और परोपकारी होते, तो घरवालों के प्रति भी तो आपके मन में कुछ उदारता होती, या सारी उदारता बाहर वालों के लिए सुरक्षित है? घरवालों को उसका अल्पांश भी न मिलना चाहिए? मेरी इतनी अवस्था बीत गयी, पर इस भले आदमी ने कभी अपने हाथों से मुझे एक उपहार भी न दिया। बेशक मैंने जो चीज बाजार से मंगाई, उसे लाने में इन्हें जरा भी आपत्ति नहीं, बिलकुल उज्र नहीं, मगर रुपये मैं दे दूँ यह शर्त है। इन्हें खुद कभी यह उमंग नहीं होती। यह मैं मानती हूँ कि बेचारे अपने लिए भी कुछ नहीं लाते। मैं जो कुछ मँगवा दूँ उसी पर संतुष्ट हो जाते हैं, मगर आखिर आदमी कभी-कभी शौक की चीजें चाहता ही है। अन्य पुरुषों को देखती हूँ स्त्री के लिए तरह-तरह के गहने, भांति-भांति के कपड़े, शौक -सिंगार की वस्तुएँ लाते रहते हैं। यहाँ व्यवहार का निषेध है। बच्चों के लिए भी मिठाइयाँ, खिलौने, बाजे शायद जीवन में एक बार भी न लाये हों। शपथ-सी खा ली है। इसलिए मैं इन्हें कृपण कहूँगी, अरसिक कहूँगी, हृदय-शून्य कहूँगी, उदार नहीं कह सकती। दूसरों के साथ इनका जो सेवा-भाव है, उसका कारण है, इनका यश-लोभ और व्यावहारिक अज्ञानता। आपके विनय का यह हाल है, कि जिस दफ्तर में आप नौकर हैं, उसके किसी अधिकारी से आपका मेल- जोल नहीं। अफसरों को सलाम करना तो आपकी नीति के विरुद्ध है, नजर या डाली तो दूर की बात है। और-तो-और, कभी किसी अफ़सर के घर नहीं जाते। इसका खामियाज़ा आप न उठायें, तो कौन उठाये? औरों को रिआयती छुट्टियाँ मिलती हैं। आपका वेतन कटता है, औरों की तरक्की होती हैं, आपको कोई पूछता भी नहीं, हाजिरी में पाँच मिनट की देर हो जाय, तो जवाब पूछा जाता है। बेचारे जी-तोड़कर काम करते हैं, कोई बड़ा कठिन काम आ जाता है, तो इन्हीं के सिर मढ़ा जाता है. इन्हें जरा भी आपत्ति नहीं। दफ्तर में इन्हें घिस्सू पिस्सू आदि उपाधियाँ मिली हैं, मगर पड़ाव कितना ही बड़ा मारें, इनके भाग्य में वही सूखी घास लिखी है। यह विनय नहीं है। स्वाधीन मनोवृत्ति भी नहीं है, मैं तो इसे समय-चातुरी का अभाव कहती हूँ व्यावहारिक ज्ञान की क्षति कहती हूँ। आखिर कोई अफसर आपसे क्यों प्रसन्न हो? इसलिए कि आप बड़े मेहनती हैं? दुनिया का काम मुरव्वत और रवादारी से चलता है। अगर हम किसी से खिंचे रहें, तो कोई कारण नहीं कि वह हमसे खिंचा रहे। फिर, जब मन में क्षोभ होता है, तो यह दफ्तरी व्यवहारों में भी प्रकट हो ही जाता है। जो मातहत अफ़सर को प्रसन्न करने की चेष्टा करता है, जिसकी जात से अफसर को कोई व्यक्तिगत उपकार होता है, जिस पर वह विश्वास कर सकता है, उसका लिहाज वह स्वभावतः करता है। ऐसे सिरागियों से क्यों किसी को सहानुभूति होने लगी? अफसर भी तो मनुष्य हैं। उनके हृदय में जो सम्मान और विशिष्टता की कामना है, वह कहीं पूरी हो? जब अधीनस्थ कर्मचारी ही उससे फिरंट रहें, तो क्या उसके अफसर उसे सलाम करने आयेंगे? आपने जहाँ नौकरी की, वहाँ से निकाले गये या कार्याधिक्य के कारण छोड़ बैठे। आपको कुटुम्ब-सेवा का दावा है। आपके कई भाई-भतीजे होते हैं, वह कभी इनकी बात भी नहीं पूछते, आप बराबर उनका मुँह ताकते रहते हैं।

इनके एक भाई साहब आजकल तहसीलदार हैं। घर की मल्कियत उन्हीं की निगरानी में है। वह ठाठ से रहते हैं। मोटर रख ली है, कई नौकर-चाकर हैं, मगर यहाँ भूल से भी पत्र नहीं लिखते। एक बार हमें रुपये की बड़ी तंगी हुई। मैंने कहा, अपने माताजी से क्यों नहीं माँग लेते? कहने लगे, उन्हें क्यों चिन्ता में डालूं। उनका भी तो अपना खर्च है। कौन-सी ऐसी बचत हो जाती होगी। जब बहुत मजबूर किया, तो आपने पत्र लिखा। मालूम नहीं, पत्र में क्या लिखा, पत्र लिया या मुझे चकमा दे दिया, पर रुपये न आने थे, न आये। कई दिनों के बाद मैंने पूछा- कुछ जवाब आया श्रीमान् के भाई साहब के दरबार से? आपने रुष्ट होकर कहा- अभी केवल एक सप्ताह तो खत पहुँचे हुए, क्या जवाब आ सकता है? एक सप्ताह और गुजरा, मगर जवाब नदारद। अब आपका यह हाल है कि मुझे कुछ बातचीत करने का अवसर ही नहीं देते। इतने प्रसन्न-चित्त नजर आते हैं कि क्या कहूँ। बाहर से आते हैं तो खुश-खुश! कोई-न-कोई शिगूफा लिये। मेरी खुशामद भी खूब हो रही है, मेरे मैके वालों की प्रशंसा भी हो रही है, मेरे गृह- प्रबन्ध का बखान भी असाधारण रीति से किया जा रहा है। मैं इन महाशय की चाल समझ रही थी। यह सारी दिलजोई केवल इसलिए थी कि श्रीमान् के भाई साहब के विषय में कुछ पूछ न बैठूं। सारे राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, आचारिक प्रश्नों की मुझसे व्याख्या की जाती थी। इतने विस्तार और गवेषणा के साथ कि विशेषज्ञ भी लोहा मान जाएं। केवल इसलिए कि मुझे वह प्रसंग उठाने का अवसर न मिले। लेकिन मैं भला कब चूकने वाली थी? जब पूरे दो सप्ताह गुजर गये और बीमे के रुपये भेजने की प्रीमियम मौत की तरह सिर पर सवार हो गयी, तो मैंने पूछा- क्या हुआ? तुम्हारे भाई साहब ने श्रीमुख से कुछ फ़रमाया या अभी तक पत्र नहीं पहुँचा? आखिर घर की जायदाद में हमारा भी कुछ हिस्सा है या नहीं? या हम किसी लौंडी-दासी की सन्तान हैं? पाँच सौ रुपये साल का नफा तो दस साल पहले था। अब तो एक हजार से कम न होगा, पर हमें कभी एक कानी कौड़ी न मिली। मोटे हिसाब से हमें दो हजार मिलना चाहिए । दो हजार न हों, एक हजार हों.. पाँच सौ हों, ढाई सौ हों, कुछ न हो तो बीमा के प्रीमियम भर को तो हो। तहसीलदार साहब की आमदनी हमारी आमदनी की चौगुनी है, रिश्वत भी लेते हैं, तो फिर हमारे रुपये क्यों नहीं देते? आप हें-हें, हाँ-हाँ करने लगे। वह बेचारे घर की मरम्मत करवाते हैं। बंधु-बांधवों का स्वागत-सत्कार करते हैं, नाते-रिश्ते में भेंट-भांट भेजते हैं। और कहाँ से लावें, जो हमारे पास भेजें? वाह री बुद्धि! मानो जायदाद इसीलिए होती है कि उसकी कमाई उसी में खर्च हो जाय। इस भले आदमी को बहाने गढ़ने भी नहीं आते। मुझसे पूछते, मैं एक नहीं हजार बता देती, एक-से-एक बढ़कर-कह देते, घर में आग लग गयी, सब कुछ स्वाहा हो गया, या चोरी हो गयी, तिनका तक न बचा, या दस हजार का अनाज भरा था, उसमें घाटा रहा, या किसी से फौजदारी हो गयी, उसमें दिवाला पिट गया। आपको सूझी भी लचर-सी बात। तकदीर ठोक कर बैठ रही। पड़ोस की एक महिला से रुपये कर्ज लिये, तब जाकर काम चला। फिर भी अपने भाई-भतीजों की तारीफ के पुल बाँधते हैं, तो मेरे शरीर में आग लग जाती है। ऐसे कौरवों से ईश्वर बचाये। ईश्वर की दया से आपके दो बच्चे हैं, दो बच्चियाँ भी हैं। ईश्वर की दया कहूँ या कोप कहूँ? सब-के-सब इतने ऊधमी हो गये हैं कि खुदा की पनाह, मगर क्या मजाल है कि भोंदू किसी को कड़ी आंख से भी देखें! रात के आठ बज गये हैं, युवराज अभी घूमकर नहीं आये। मैं घबड़ा रही हूँ आप निश्चित बैठे अखबार पढ़ रहे हैं। झल्लाई हुई जाती हूँ और अखबार छीनकर कहती हूँ जाकर जरा देखते क्यों नहीं, लौंडा कहाँ रह गया? न जाने तुम्हारा हृदय कितना कठोर है! ईश्वर ने तुम्हें संतान ही न जाने क्यों दे दी? पिता का पुत्र के साथ कुछ तो धर्म है। तब आप भी गर्म हो जाते हैं, अभी तक नहीं आया? बड़ा शैतान है। आज बच्चा आते हैं, तो कान उखाड़ लेता हूँ। मारे हंटरों के खाल उधेड़ कर रख दूंगा। यों बिगड़ कर तैश के साथ आप उसे खोजने निकलते हैं। संयोग की बात। आप उधर जाते हैं, इधर लड़का आ जाता है। मैं पूछती हूँ-तू किधर से आ गया? तुझे वह ढूंढ़ने गये हुए हैं। देखना, आज कैसी मरम्मत होती है। यह आदत छूट जायेगी। दाँत पीस रहे थे। आते ही होंगे। छड़ी भी उनके हाथ में है। तुम इतने अपने मन के हो गये हो कि बात नहीं सुनते। आज आटे-दाल का भाव मालूम होगा। लड़का सहम जाता है और लैम्प जलाकर पढ़ने बैठ जाता है। महाशयजी दो-ढाई घंटे के बाद लौटते हैं, हैरान, परेशान और बदहवास होकर। घर में पाँव रखते ही पूछते हैं- आया कि नहीं?

मैं उनका क्रोध उत्तेजित करने के विचार से कहती हूँ- आकर बैठा तो है, जाकर पूछते क्यों नहीं? पूछकर हार गयी, कहां गया था, कुछ बोलता ही नहीं। आप गरज कर कहते हैं- मन्नू, यहाँ आओ।

लड़का थर-थर काँपता हुआ आकर आंगन में खड़ा हो जाता है। दोनों बच्चियां घर में छिप जाती हैं कि कोई बड़ा भयंकर कांड होने वाला है। छोटा बच्चा खिड़की से चूहे की तरह झाँक रहा है। आप क्रोध से बौखलाए हुए हैं! हाथ में छड़ी है ही, मैं भी यह क्रोधोन्मत्त आकृति देखकर पछताने लगती हूँ कि कहां से इनसे शिकायत की। आप लड़के के पास जाते हैं, मगर छड़ी जमाने के बदले आहिस्ते से उसके कंधे पर हाथ रखकर बनावटी क्रोध से कहते हैं- तुम कहाँ गये थे जी? मना किया जाता है, मानते नहीं हो। खबरदार, जो अब कभी इतनी देर होगी? आदमी शाम को अपने घर चला आता है या मटरगश्ती करता है? मैं समझ रही हूँ कि यह भूमिका है। विषय अब आयेगा। भूमिका तो बुरी नहीं, लेकिन यहाँ तो भूमिका पर इति हो जाती है। बस, आपका क्रोध शांत हो गया। बिलकुल जैसे क्वार की घटा-घेर-घार हुआ, काले बादल आये, गड़गड़ाहट हुई और गिरी क्या, चार बूंदें। लड़का अपने कमरे में चला जाता है और शायद खुशी से नाचने लगता है।

मैं पराभूत हो जाती हूँ- तुम तो जैसे डर गये। भला, दो-चार तमाचे तो लगाए होते! इसी तरह तो लड़के शेर हो जाते हैं।

आप फरमाते हैं- तुमने सुना नहीं, मैंने कितने जोर से डाँटा। बच्चू की जान ही निकल गयी होगी। देख लेना, जो फिर कभी देर में आये।